उदास दिनों की पूरी तैयारी

छत पर जूठा था अमरूद। एक मिट्टी का दिया जिसमें सुबह, सोखे हुए तेल की गंध आती थी। कंघी के दांते टूट गए। आईने पर साबुन के झाग के सूखे निशान हैं। दहलीज़ पर अख़बारों का गट्ठर। चिट्ठीदान में नहीं पढ़ी गई चिट्ठियाँ। चाय का आख़िरी घूँट फेंक दिया गया। सूरज छत की बाम पे लोट गया। रात गिरने ही वाली थी कि ठिठक गयी लैम्पपोस्ट और ट्रैफ़िक सिग्नल की गोद में।

दिन के सारे काम रात में गठरी की तरह दिखते हैं

चीज़ें रहस्यमय हो जाएँ तो पूजनीय होने में उन्हें वक़्त नहीं लगता। पूरा शहर एक अबूझ दृश्यजाल में बदल रहा था—रहस्यमय दृश्यजाल जो रिल्के की कविताओं में और थॉमस मान के उपन्यास में मिलता है।

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