‘एक विशाल शरणार्थी शिविर में’

…सभी विस्थापितों को होना था स्थापित। स्थापित होकर सभी को करना था प्रेम। सभी को है अपनी रात और एकांत का इंतज़ार। सभी को लेना था इतिहास से प्रतिशोध। सभी को चाहिए था सपनों के लिए एक बिछौना―अतीत पर पछताने के लिए एक चादर और नींद के लिए एक सिरहाना। फिसलने के लिए तेल चाहिए था सभी को। सभी को चाहिए था चुल्लू भर पानी और एक कमरा।

क्या हम परिवार को देश की तरह देख सकते हैं

परिवार में भी कोई नया आईडिया एकदम से लागू नहीं किया जा सकता। यहां भी अगर डेमोक्रेसी लागू करनी है तो सबसे पहले व्यक्ति को खुद फुल डेमोक्रेट बनना होगा अर्थात ढेर सारा धैर्य खुद में पैदा करना होगा। बिना इस धैर्य के हम कहां तक सफल हो पाएंगे? फिर तो हम अपने परिवार की दरारों को ना तो देख पाएंगे और ना ही समझ पाएंगे। जरा सी समस्या में हम परिवार से भागना शुरू कर देंगे। लेकिन यह हमारा पीछा नहीं छोड़ता।

चलो भाग चलते हैं

ये सच है कि हम हमारे गढ़े हुए तमाम संबोधनों को, दो वर्ण वाले तुकांत शब्दों को; जी नहीं पाएँगे। घर से भाग नहीं पाएँगे। भागने की तमाम वजहें हैं, हम दोनों के पास। हालाँकि भाग जाने के लिए एक वजह ही काफ़ी है। मैं तुम्हें ये नहीं समझाऊँगा कि बंदिशों और विवशताओं में कितना अंतर होता है।

‘भक्त भगवानों से लगातार पूछ रहे हैं कविता क्या है’

व्योमेश शुक्ल के अब तक दो कविता संग्रह, ‘फिर भी कुछ लोग’ और ‘काजल लगाना भूलना’ शाया हुए हैं—जिनमें तक़रीबन सौ कविताएँ हैं, कुछ ज़्यादा या कम। इन दोनों संग्रहों की‌ कविताओं पर पर्याप्त बातचीत-बहस हो चुकी है। व्योमेश जी के कवि पर भी ख़ासी बातचीत हिंदी के परिसर में होती रहती है। कविता पढ़ने के अपने शुरुआती समय से ही व्योमेश जी को मैं पढ़ता रहा हूँ और मुतासिर रहा हूँ।

उदास दिनों की पूरी तैयारी

छत पर जूठा था अमरूद। एक मिट्टी का दिया जिसमें सुबह, सोखे हुए तेल की गंध आती थी। कंघी के दांते टूट गए। आईने पर साबुन के झाग के सूखे निशान हैं। दहलीज़ पर अख़बारों का गट्ठर। चिट्ठीदान में नहीं पढ़ी गई चिट्ठियाँ। चाय का आख़िरी घूँट फेंक दिया गया। सूरज छत की बाम पे लोट गया। रात गिरने ही वाली थी कि ठिठक गयी लैम्पपोस्ट और ट्रैफ़िक सिग्नल की गोद में।

अक्टूबर किसी चिड़िया के बिलखने की आवाज़ है

मैं तुम्हारे नाम लिखा गया एक प्रेमपत्र था, जिसे अधूरा पढ़कर छोड़ दिया गया। लेकिन इसके अक्षरों पर जितनी बार तुम्हारी अबोध उँगलियाँ फिरीं, एक लोमहर्षक धुन गुँथती चली गई। वह धुन इस उदास अक्टूबर का विरह संगीत है। यह जिया हुआ संगीत, जो मेरी आत्मा पर बार-बार बजता है। इसे अनसुना कर पाना ख़ुद को नकारने जैसा है।

जीवन अपने भाग्य के ख़िलाफ़ आमरण अनशन है

मैं कुछ ना कुछ ऐसा करता रहता हूँ कि मुझे अपने आप से कोफ़्त होने लगती है। यही कोफ़्त फिर एक हँसी में बदल जाती है। पिछले बीस दिनों से डायरी का एक पन्ना भी नहीं लिखा। सोचा था कि खूब लिखूँगा। लेकिन सब सोचा हुआ ही रह गया। हाँ, कुछ छोटी-मोटी कविताएँ लिखीं। कुछ ख़ास पढ़ा भी नहीं। जबकि पढ़ना चाहिए था। राखी भी आकर चली गई और पंद्रह अगस्त भी।

एक उपन्यास लिखने के बाद

उपन्यास के बारे में वैसे अब तक इतना कुछ कहा जा चुका है कि जब उसका—अपनी सीमा भर—मैंने अध्ययन किया, तब पाया कि सब कुछ बहुत विरोधाभासग्रस्त है। मैंने शोर के कंकड़-पत्थर, अल्फ़ाज़ों की चाँदी और ख़ामोशी के स्वर्ण से भरे हुए कितने ही उपन्यास देखे-पलटे-पढ़े। उन्होंने सामान्य और विशेष दोनों ही रूपों में मुझे प्रभावित और अंतर्विरोधयुक्त किया।

एक लेखक को किन चीज़ों से बचना चाहिए?

न समझे जाने के डर से—एक लेखक पर यह दबाव बहुत बड़ा होता है कि उसका लिखा ठीक उसी तरह समझा जाए जिस तरह वह लिख रहा है। आसान ज़ुबान में लिखने की सलाह इसी से निकलती है। लेकिन लेखक को कई बार वह भी कहना होता है जिसे समझने के लिए कोशिश करनी पड़े, संवेदना और विचार के नए इलाक़ों में जाना पड़े। ऐसा कुछ कह सकने के लिए लेखक को इस डर से मुक्त होना होगा कि पता नहीं उसका लिखा समझा जाएगा या नहीं।

एक तरीक़ा यह भी

शोध-कार्य-क्षेत्र में सक्रिय जनों को प्राय: ‘सिनॉप्सिस कैसे बनाएँ’ इस समस्या से साक्षात्कार करना पड़ता है। यहाँ प्रस्तुत हैं इसके समाधान के रूप में कुछ बिंदु, कुछ सुझाव :

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