प्रसिद्धि की विडंबना

प्रसिद्धि के साथ एक मज़े की बात यह है कि जब तक प्रत्यय की तरह इसके साथ विडंबना नहीं जुड़ती, तब तक इसके छिपे हुए अर्थ हमारे सामने पूरी तरह उजागर नहीं होते। लेकिन इससे भी ज़्यादा मज़े की बात शायद यही हो सकती कि ज़्यादातर मामलों में विडंबना शोहरत का पीछा करने में ज़्यादा देर भी नहीं लगाती।

‘भोपाल के रूप में मैंने अपना ही कुछ खो दिया’

यह 22 की उम्र में किसी लेखक से मेरा पहला इंटरव्यू था। मैं थोड़ा नर्वस भी थी। मैंने मुलाक़ात से पहले उनके दो उपन्यास ख़रीदकर पढ़े और फिर तैयारी के साथ सवाल बनाकर ले गई। मैंने उनके दो उपन्यास पढ़े हैं… सिर्फ़ इस एक बात से मंज़ूर साहब इतना खुश हो गए कि देर तक हैरानी से भरकर हँसते रहे। ‘‘जीती रहो बेटा, जीती रहो, यूँ ही पढ़ना हमेशा, किसी को भी पढ़ो, मगर पढ़ना…’’ यह कहते हुए वह देर तक हँसते ही रहे। मुझे उनकी वह हँसी आज भी याद है—हैरानी में डूबी हुई हँसी।

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