‘अलग रहो, अलग रहो, अलग रहो, अलग रहो’

शंख घोष ने अपने नाम के बिल्कुल उलट जाकर अपने कविता-संसार में मौन को प्रमुखता दी है। वह शोर के प्रति निर्विकार और उससे निश्चिंत रहे आए। यह कृत्य उनके लिए एक बेहतर मनुष्य बनने की प्रक्रिया-सा रहा।

चंद्रमा के अकेलेपन के साथ अँधेरे में

”कोई यह नहीं कहे कि मैं गांधी का अनुयायी हूँ। मैं जानता हूँ कि मैं अपना कितना अपूर्ण अनुयायी हूँ।”

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