पुरानी उदासियों का पुकारू नाम

एक साहित्यिक मित्र ने अनौपचारिक बातचीत में पूछा कि आप महेश वर्मा के बारे में क्या सोचते हैं? मेरे लिए महेश वर्मा के काव्य-प्रभाव को साफ़-साफ़ बता पाना कठिन था, लेकिन जो चुप लगा जाए वह समीक्षक क्या! मैंने कहा कि मुझे लगता है : पीछे छूट चुकी धुँधली-सी चीज़, वह कुछ भी हो सकती है; छाता हो सकता है, पिता, टार्च या किसी निष्कवच क्षण की कोई नितांत मौलिक परंतु निरर्थक अनुभूति हो सकती है… वह उन्हें अश्रव्य आवाज़ में पुकारती है—हे… महेश! और महेश चौंक पड़ते हैं।

‘मैं अपने लिखे में हर जगह उपस्थित हूँ’

स्मृति को मैं जीने के अनुभव के ख़ज़ाने की तरह मानता हूँ, आगे की ज़िंदगी ख़र्च करने के लिए इसकी ज़रूरत है। अगर भूलने से काम रुकता है, तो परेशानी होती है। जैसे चावल ख़रीदने घर से निकले, दुकान पहुँचे तो मालूम हुआ जेब में पैसे नहीं हैं। रचनात्मकता में भूलना सहूलत है।

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