लिखने के बारे में
मध्यमवर्गीय आदमी की कविता और मासिक बिल में हमेशा एक अतिरिक्त उभर आता है या छूट जाता है। कवि का एक संसार होता है, आदमी का दूसरा।
मध्यमवर्गीय आदमी की कविता और मासिक बिल में हमेशा एक अतिरिक्त उभर आता है या छूट जाता है। कवि का एक संसार होता है, आदमी का दूसरा।
एक ‘कभी-कभार-सा’ लिखने के मध्य में ही ‘अनुकरण की अधीरता’ पर उनके पाठ का अपना एक तात्पर्य क्यों न तलाश लिया जाए। हम कवि, नागरिक और मनुष्य के कर्तव्य बरतने की कुछ साझा पूर्व-शर्तें अपनी पीठों पर लादे रखें तो ‘कुछ खोजते हुए’ अचानक एक दिन एक किसी जगह पर क्यों नहीं मिल पड़ेंगे?
पहले मैं जिस आशय के अनुरचना-से कार्य को ‘पढ़ते-पढ़ते’ के किसी खाँचे में रखना चाहता था, उसे ‘पढ़ते-गढ़ते’ के खाँचे में रखा। यह मैंने ज्ञानेंद्रपति से लिया।
पिछले वर्ष नव वर्ष की पूर्वसंध्या पर पता नहीं किस मनःस्थिति में मैंने याद किया सुजान सौन्टैग को और कह दिया उनके हवाले से कि इस वर्ष संकल्प नहीं, प्रार्थनाएँ—करुणा, कृपा, नवाज़िश।
कवि के ज़ेहन में सवाल उठ सकता है कि किस कवि का स्वप्न? वेल, इट डिपेंड्स! इतनी धाराएँ हैं, कविता के इतने आंदोलन हुए।
वह अनंत यात्रा पर निकल गए हैं। यह अचानक हुआ है। हिंदी ने और कविता ने अभी उन्हें विदा करने की तैयारी नहीं कर रखी थी। अभी मृत्यु पर इधर-उधर की संस्कृतियों के कुछ फ़लसफ़े पढ़ हमारे मनों को मज़बूत किया जाना शेष था।
उस कमरे में उस रात गहरी चली खोज में ताखे से झाँकती दिख पड़ती है एक बीड़ी और मैं साथी को आवाज़ लगाता हूँ कि आ गए हैं मुक्तिबोध। हम स्तुति-पाठ करते हैं—‘हम घुटने पर नशा-देवता (मुक्तिबोध ने नाश-देवता लिखा है) बैठ तुझे करते हैं वंदन—तेरे अग्निकणों से जीवन…’
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