भाभी कॉम्प्लेक्स और कार्ल मार्क्स

हिंदी साहित्य में भाभी जिस रूप में उतरी है, उसमें सत्य से अधिक सुहावनापन है। आज भी पुरुष की बहुपत्नीक और स्त्री की बहुपति प्रवृत्तियाँ, जो तहज़ीब के नीचे से अब भी रिसती रहती हैं और साहित्यदानों में दिलबस्तगी पैदा करती आई हैं, उन्हीं की छानबीन में कहीं भाभी-प्रॉब्लम का भी संतोष मिल जाएगा। पर चूँकि विवाह का टेकनीक पेचीदा और गुट्ठल हो गया है और आर्थिक उलझन और पेचो-ताब ने ‘परिवार’ को एकबारगी जड़ से हिला दिया है, भाभी वहाँ से निकलकर हिंदी के बुतशिकन लेखकों का ‘टूल’ बन गई है।

गांधीजी और उनकी वसीयत

बापू अचानक दिवंगत हो गए—‘राम’ को छोड़कर अंतिम समय और कुछ नहीं कह गए। जिन्हें राजगद्दी लेनी थी, उन्होंने तो ले ली; लेकिन उनके दूसरे सपूत भी इस बीच गले के ज़ोर से सिद्ध करते रहे कि बापू के सच्चे उत्तराधिकारी हमीं हैं। शायद ही कोई राजनीतिक दल इस उत्तराधिकार से बचा हो। अब तक तो ‘राम नाम की लूट है, लूट सके सो लूट’ वाली हालत थी। अंत काल तक पछताने के लिए कोई नहीं रहा। लेकिन आज के अख़बार में जब यह ख़बर मैंने देखी तो दंग रह गया—‘‘सरकार चुनाव-बिल पास करके आगामी चुनाव में गांधीजी के नाम का उपयोग अनैतिक घोषित करने जा रही है।’’

‘मुझे सुलझे विचारों ने बार-बार मारा है’

हरिशंकर परसाई (1924–1995) का रचना-संसार समुद्र की तरह है, यह कहते हुए समादृत कथाकार-संपादक ज्ञानरंजन ने इसमें यह भी जोड़ा है कि यह कभी घटने वाला संसार नहीं है। भारतीय समय में अगस्त का महत्त्व कुछ अविस्मरणीय घटनाओं की वजह से बहुत है। इस महीने में ही भारत स्वतंत्र हुआ और इस महीने में ही स्वतंत्र भारत के एक असली चेहरे हरिशंकर परसाई का जन्म हुआ और मृत्यु भी। यहाँ हम उनके रचना-संसार से उनकी कहन का एक चयन प्रस्तुत कर रहे हैं :

पेट, प्यार और पल्प

इस तरह की बातें मैंने कई लोगों से कई लोगों को पूछते-करते देखा है। यह एक रस्मी बात है। अगर साहित्य और लेखन के धंधे का आदमी मिलेगा तो इस तरह की बातें पूछ सकता है।

काग़ज़ केवल शब्द लिखने के लिए नहीं बना है

कम बोलना चाहिए। ऐसा इसलिए कि कविता में बोले जाने की बात को ‘कह’ देने की गुंजाइश बनी रहती हैं।

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