दुस्साहस का काव्यफल

व्यक्ति जगद्ज्ञान के बिना आत्मज्ञान भी नहीं पा सकता। अगर उसका जगद्ज्ञान खंडित और असंगत है तो उसका अंतर्संसार द्विधाग्रस्त और आत्मपहचान खंडित होगा। आधुनिक युग की क्रियाशील ताक़तें मनुष्य के जगद्ज्ञान को नियंत्रित करके उसके आत्मपहचान को बदलने की कोशिश करती थीं। चाहे पूँजीवाद हो या साम्यवाद—हर पक्ष की मूल कार्ययोजना यही थी। लेकिन उस आत्मपहचान में एक अन्विति, सममिति, मुकम्म्लपन और कंसिस्टेंसी थी—ठीक आधुनिक वास्तुकला की तरह। उस अन्विति ने ही न्यूनतम सामाजिक सहमति पर महत्तर राजकीय संस्थाओं की रचना की और उन्हें मुकम्मल सहमति जुटाने का कार्यभार सौंपा।

आदिवासी अंचल की खोज

आज यह सोचकर विस्मय होता है कि कभी मार्क्सवादी आलोचना ने नई कविता पर यह आक्षेप किया था कि ये कविताएँ ऐंद्रिक अनुभवों के आवेग में सामाजिक अनुभवों की उपेक्षा करती हैं। आज आधी सदी बाद जब काव्यानुभव में इंद्रियानुभव की हिस्सेदारी पर विचार करें तो मामला एकदम विपरीत मिलेगा।

लोक के जीवन का मर्म

एक तरफ़ ऐसी सभ्यता बनाई जा रही है, जहाँ एकल परिवार का आदर्श भी अब बीते समय की बात हो चुकी है। परिवारमात्र की धारणा टूट रही है, अब व्यक्ति के अपने उपभोग-कामनाओं में आत्मेतर व्यक्ति भार सरीखा है। दूसरी ओर मिथिलेश का परिवार बहुत बड़ा है। वह परिवार की धारणा व उसके सौंदर्य को और विस्तार दे रहे हैं। इसमें पति-पत्नी-बच्चों की कौन कहे; नानी-नाना, पशु-पक्षी और पेड़-पौधे तक शामिल हैं। मिथिलेश का यह घर संसार का सबसे आत्मीय वृत्त है। यह संसार से ख़ुद को काटने वाली चहारदीवारी नहीं, बल्कि अपने गिर्द संसार से संश्रय का आत्मीय अवकाश है।

अ-भाव का भाव—‘अर्थात्’

पुरानी और परिचित चीज़ों में एक आश्वस्ति होती है। नई में त्रास और रोमांच—ठीक पहले प्रेम की तरह। हम आश्वस्ति और सुरक्षा चुनते हैं; वैचारिक, आर्थिक, यौनिक सुरक्षा… जीवन का रोमांच नहीं। हम अपनी तमाम धारणाओं पर इतने निश्चित और आदतों के ऐसे पवित्रपंथी हैं, कि एक ही ढर्रे की ऊबी-सी ज़िंदगी को सत्कर्म बना लिया है।

संतृप्त मनोवेगों का संसार

एक स्त्री के लिए एकांत में लौटना रात्रि में लौटना ही हो सकता है। क्योंकि मर्दाना सूर्य उसके रहस्य का दुश्मन है। इसीलिए महादेवी वर्मा के यहाँ रात्रि की अनगिनत छवियाँ और सुगंधियाँ हैं, लेकिन मध्याह्न खोजे नहीं मिलता। मोनिका को रात्रि भी कैसी चाहिए—चाँदनी जिसमें बरस जाए। ऐसी रात्रि नहीं जो आत्मविस्मरण लाए, ऐसी रात्रि चाहिए जो चाँदनी की तरह बरस जाए, जो उज्ज्वल सौंदर्य की अनुभूति दे, और जिसे वह फूलों की तरह चुन सकें।

पुरानी उदासियों का पुकारू नाम

एक साहित्यिक मित्र ने अनौपचारिक बातचीत में पूछा कि आप महेश वर्मा के बारे में क्या सोचते हैं? मेरे लिए महेश वर्मा के काव्य-प्रभाव को साफ़-साफ़ बता पाना कठिन था, लेकिन जो चुप लगा जाए वह समीक्षक क्या! मैंने कहा कि मुझे लगता है : पीछे छूट चुकी धुँधली-सी चीज़, वह कुछ भी हो सकती है; छाता हो सकता है, पिता, टार्च या किसी निष्कवच क्षण की कोई नितांत मौलिक परंतु निरर्थक अनुभूति हो सकती है… वह उन्हें अश्रव्य आवाज़ में पुकारती है—हे… महेश! और महेश चौंक पड़ते हैं।

कवित्व का निराला विवेक

भावुक कविताएँ चिल्लर संवेदना की अपेक्षा रखती हैं : दाता मुक्त, याचक ख़ुश। दोनों की अवस्थिति यथास्थिति बनी रहती है।

निर्वासितों का जनपद

हिंदी कविता में बहुत से राजकुमार आते हैं। थोड़ी देर स्तुति, संस्तुति, सम्मान के आलोकवृत्त में चमकते हैं। भ्रमवश इस चौंध को अपना आत्मप्रकाश समझ लेते हैं। परंतु हिंदी कविता के पाठक बहुत बेवफ़ा हैं। कुछ दिनों तक यह सब देखते हैं, और कविता न मिलने पर छोड़ जाते हैं।

‘दिव्य क़ैदख़ाने में’ रंजनदास

जीवन स्थितियाँ जितनी त्रासद होती जाती है, ‘फ़ील गुड’ और ‘ऑल इज़ वेल’ का मंत्र-पाठ उतना ही तीव्र होता जाता है। ऐसे में रोंडा बर्न्स, शिव खेड़ा, संदीप माहेश्वरी जैसे महर्षि पैदा होते हैं और ‘लॉ ऑफ़ अट्रेक्शन’ का ज्ञान देते हैं!

उदासी जिनकी मातृभाषा है

कविताओं का सौंदर्यात्मक उद्भास दुनिया से हमारे नए संबंध-संयोजन को जन्म देता चलता है। अवलोकन बाह्य जगत के साथ अपनी अनुभूतियों और वृत्तियों का भी होता है। बाह्य जगत का अवलोकन फिर भी आसान है, आत्मावलोकन सबसे कठिन है। हम अपनी इच्छाओं की पूर्ति में ही इच्छाओं की सार्थकता समझते हैं।

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