अस्सी वाया भाँग रोड बनारस

कितना अजीब है किसी घटना को काग़ज़ पर उकेरना। वर्तमान में रहते हुए अतीत की गुफाओं में उतर कर किसी पल को क़ैद कर लेना। उसे अपने हिसाब से जीने पर मजबूर कर देना। मैं कितनी बार कोशिश करता हूँ कि जो घटना बार-बार मुझे प्रभावित कर रही है उसे किसी स्मृति की तरह ही रखा जाए। लेकिन कुछ घटनाएं इतनी हठी होती हैं कि ख़ुद को काग़ज़ पर उतार कर ही दम लेती हैं। ऐसी ही एक घटना बनारस की है। मैं जिन दिनों हिन्दू विश्वविद्यालय का छात्र था। उफ़ ! ये ‘था’ कितना दिल फ़रेब है।

नई कविता नई पीढ़ी ही नहीं बनाती

किसी भी समय की कविता हो, उस कविता में आने वाले परिवर्तन या उस नई कविता का चेहरा केवल उस समय आई नई पीढ़ी के कवि ही नहीं बनाते हैं। उससे पहले के जो कवि हैं, जो लिख रहे होते हैं, वह भी कहीं न कहीं उसको बनाते हैं। यह नहीं है कि जो सत्तर के दशक से या उससे भी पहले से जो रचनाकार लिखते हुए आ रहे थे, उनका इस नई सदी की कविता का चेहरा-मोहरा बनाने में कोई योगदान नहीं है।

‘भोपाल के रूप में मैंने अपना ही कुछ खो दिया’

यह 22 की उम्र में किसी लेखक से मेरा पहला इंटरव्यू था। मैं थोड़ा नर्वस भी थी। मैंने मुलाक़ात से पहले उनके दो उपन्यास ख़रीदकर पढ़े और फिर तैयारी के साथ सवाल बनाकर ले गई। मैंने उनके दो उपन्यास पढ़े हैं… सिर्फ़ इस एक बात से मंज़ूर साहब इतना खुश हो गए कि देर तक हैरानी से भरकर हँसते रहे। ‘‘जीती रहो बेटा, जीती रहो, यूँ ही पढ़ना हमेशा, किसी को भी पढ़ो, मगर पढ़ना…’’ यह कहते हुए वह देर तक हँसते ही रहे। मुझे उनकी वह हँसी आज भी याद है—हैरानी में डूबी हुई हँसी।

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