मैं विवेक के साथ क्षण को जीता हूँ

प्रियंवद (जन्म : 1952) समादृत साहित्यकार हैं। वह कथा और कथेतर तथा संपादन और सांस्कृतिक सक्रियता के मोर्चों पर अपनी मिसाल आप हैं। जीवितों के हिंदी कथा संसार में वह अकेले हैं जिनके पास सर्वाधिक स्मरणीय, उल्लेखनीय और चर्चित कहानियाँ हैं। आज उनका 70वाँ जन्मदिन है। उन्हें मंगलकामनाएँ देते हुए यहाँ प्रस्तुत है उनसे एक नई और विशेष बातचीत :

‘लिखना ख़ुद को बचाए रखने की क़वायद भी है’

संतोष दीक्षित सुपरिचित कथाकार हैं। ‘बग़लगीर’ उनका नया उपन्यास है। इससे पहले ‘घर बदर’ शीर्षक से भी उनका एक उपन्यास चर्चित रहा। संतोष दीक्षित के पास एक महीन ह्यूमर है और एक तीक्ष्ण दृष्टि जो समय को बेधती है। इस नाते वह हिंदी के अनूठे लेखक ठहरते हैं। यह बातचीत ‘बग़लगीर’ के प्रकाशित होने के आस-पास संभव हुई।

नई कविता नई पीढ़ी ही नहीं बनाती

किसी भी समय की कविता हो, उस कविता में आने वाले परिवर्तन या उस नई कविता का चेहरा केवल उस समय आई नई पीढ़ी के कवि ही नहीं बनाते हैं। उससे पहले के जो कवि हैं, जो लिख रहे होते हैं, वह भी कहीं न कहीं उसको बनाते हैं। यह नहीं है कि जो सत्तर के दशक से या उससे भी पहले से जो रचनाकार लिखते हुए आ रहे थे, उनका इस नई सदी की कविता का चेहरा-मोहरा बनाने में कोई योगदान नहीं है।

‘मैं अपने एकांत का रैडिकल इस्तेमाल करना चाहता हूँ’

अगर आप मुझसे पूछें तो मैं कहूँगा कि मेरा कथा-मन है। मुझे कहानियाँ सुनना, देखना और काफ़ी हद तक पढ़ना भी अच्छा लगता है। कविताएँ लिखने के बावजूद मेरी कहानी कहने की महत्वाकांक्षा नहीं, आकांक्षा कभी कम नहीं हुई। इसीलिए न केवल मैंने कहानियाँ लिखीं, बल्कि अब मैं कथात्मक फ़िल्में भी बनाना चाहता हूँ।

‘जो मनुष्य से परे है, वह भी मनुष्य में शामिल है’

बिना सब कुछ के समाहार के, समावेश के, आप जीवन के एक कण को भी नहीं समझ सकते, सब कुछ मिलकर जीवन बनता है। यहाँ तक कि जो सजीव नहीं है, जैसे वज्र और इसके लिए योग के आसनों के जिन नामों का उपयोग किया गया है, वज्रासन, वह तो निर्जीव है; लेकिन कुछ भी निर्जीव नहीं है।

‘भोपाल के रूप में मैंने अपना ही कुछ खो दिया’

यह 22 की उम्र में किसी लेखक से मेरा पहला इंटरव्यू था। मैं थोड़ा नर्वस भी थी। मैंने मुलाक़ात से पहले उनके दो उपन्यास ख़रीदकर पढ़े और फिर तैयारी के साथ सवाल बनाकर ले गई। मैंने उनके दो उपन्यास पढ़े हैं… सिर्फ़ इस एक बात से मंज़ूर साहब इतना खुश हो गए कि देर तक हैरानी से भरकर हँसते रहे। ‘‘जीती रहो बेटा, जीती रहो, यूँ ही पढ़ना हमेशा, किसी को भी पढ़ो, मगर पढ़ना…’’ यह कहते हुए वह देर तक हँसते ही रहे। मुझे उनकी वह हँसी आज भी याद है—हैरानी में डूबी हुई हँसी।

‘कोई भी कवि जन्म से ही कवि होता है’

कविता में हम तो वही विचार, वही अर्थ, वही भाव लिखते हैं जो हम लिखना चाहते हैं, जो हमारे मन में हैं, जो हमें उस वक़्त जकड़े हुए हैं? लेकिन यह बात सही नहीं है। कोई नादान कवि या पाठक ही ऐसी बात कर सकता है।

‘मैं अपने लिखे में हर जगह उपस्थित हूँ’

स्मृति को मैं जीने के अनुभव के ख़ज़ाने की तरह मानता हूँ, आगे की ज़िंदगी ख़र्च करने के लिए इसकी ज़रूरत है। अगर भूलने से काम रुकता है, तो परेशानी होती है। जैसे चावल ख़रीदने घर से निकले, दुकान पहुँचे तो मालूम हुआ जेब में पैसे नहीं हैं। रचनात्मकता में भूलना सहूलत है।

‘भाषा से प्रेम अब कम हुआ है’

इस संसार में—साहित्य और कलाओं के संसार में—एक बहुत सक्रिय और संपन्न आयु जी चुके अशोक वाजपेयी के साक्षात्कारों की हिंदी में कोई कमी नहीं है। वे पुस्तकों के रूप में, संकलनों और पत्रिकाओं में हद से ज़्यादा फैले हुए हैं। बावजूद इसके उनसे बात करने की आकांक्षाएँ बराबर बनी हुई हैं—तमाम असहमतियों के रहते। इस प्रकार के व्यक्तित्व हिंदी के सांस्कृतिक इलाक़े में पहले भी कम ही थे, अब भी कम ही हैं और लगातार कम होते जा रहे हैं।

‘मेरी सारी कविताएँ मेरे प्रेम की कविताएँ हैं’

नरेश सक्सेना एक ऐसे विलक्षण कवि हैं, जिन्हें अपनी लगभग समग्र काव्य-पंक्तियाँ और उनके स्रोत याद हैं। वह कविता में ‘कम’ के पक्षधर हैं, लेकिन वार्तालाप में बेहद मुखर हैं; इतने कि सारे प्रश्न पहले से ही जान लेना चाहते हैं।

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