प्रतिरोध का स्वर और अस्वीकार का साहस

कवि की दीर्घ सक्रियता देखकर मुझे उम्मीद थी कि इस संग्रह में एक लंबी अवधि की रचनात्मकता दर्ज‌ होगी, किंतु अधिकतर कविताएँ वर्तमान से मुठभेड़ करती दिखती हैं; अर्थात् इस संग्रह में वही समय आया है, जिसे हम इधर देख रहे हैं, समझ-बूझ रहे हैं, झेल रहे हैं और अपने त‌ईं स्वीकार-अस्वीकार कर रहे हैं।

‘भक्त भगवानों से लगातार पूछ रहे हैं कविता क्या है’

व्योमेश शुक्ल के अब तक दो कविता संग्रह, ‘फिर भी कुछ लोग’ और ‘काजल लगाना भूलना’ शाया हुए हैं—जिनमें तक़रीबन सौ कविताएँ हैं, कुछ ज़्यादा या कम। इन दोनों संग्रहों की‌ कविताओं पर पर्याप्त बातचीत-बहस हो चुकी है। व्योमेश जी के कवि पर भी ख़ासी बातचीत हिंदी के परिसर में होती रहती है। कविता पढ़ने के अपने शुरुआती समय से ही व्योमेश जी को मैं पढ़ता रहा हूँ और मुतासिर रहा हूँ।

‘प्रेम में मरना सबसे अच्छी मृत्यु है’

सविता सिंह के इस संग्रह की कविताओं में करुण भाव के साथ-साथ हम जीवन के प्रति एक निसंग भाव भी महसूस करते चलते हैं। ऐसी मनःस्थिति अक्सर जीवन के प्रति एक गहरे लगाव के बाद किसी गहरे आघात से पैदा होती है। लेकिन इस निसंगता का अर्थ अवसाद एवं कर्तव्य विमुखता नहीं है। यह ज़िंदगी के संघर्षों से पलायन नहीं है।

दुस्साहस का काव्यफल

व्यक्ति जगद्ज्ञान के बिना आत्मज्ञान भी नहीं पा सकता। अगर उसका जगद्ज्ञान खंडित और असंगत है तो उसका अंतर्संसार द्विधाग्रस्त और आत्मपहचान खंडित होगा। आधुनिक युग की क्रियाशील ताक़तें मनुष्य के जगद्ज्ञान को नियंत्रित करके उसके आत्मपहचान को बदलने की कोशिश करती थीं। चाहे पूँजीवाद हो या साम्यवाद—हर पक्ष की मूल कार्ययोजना यही थी। लेकिन उस आत्मपहचान में एक अन्विति, सममिति, मुकम्म्लपन और कंसिस्टेंसी थी—ठीक आधुनिक वास्तुकला की तरह। उस अन्विति ने ही न्यूनतम सामाजिक सहमति पर महत्तर राजकीय संस्थाओं की रचना की और उन्हें मुकम्मल सहमति जुटाने का कार्यभार सौंपा।

उम्मीद अब भी बाक़ी है

रवि भाई एक बार बातों-बातों में बतलाए कि भाई, आजकल के युवा कवि अपनी कविता की कमज़ोरियों पर बातें ही नहीं करना चाहते। यदि बातें करो तो आप उनके शत्रु बन जाओ। मुझे पता था कि रवि भाई कविता के कला-पक्ष की तुलना में जन-पक्ष की तरफ ज़्यादा ध्यान देते थे। वह कहते थे कि कविता को आम जन की भाषा के नज़दीक आना चाहिए। कविता के सुपाच्य होने की वे लगातार वकालत करते रहते थे। कविता आसानी से संप्रेषित हो जाए। इसके लिए नए पाठकों का निर्माण और युवा कवियों को प्रोत्साहन देने के लिए ही ‘कवि संगम’ की परिकल्पना उन्होंने की। पहली बार देश भर से चालीस कवियों को उन्होंने निमंत्रित किया। तीस कवियों की उपस्थिति रही।

आदिवासी अंचल की खोज

आज यह सोचकर विस्मय होता है कि कभी मार्क्सवादी आलोचना ने नई कविता पर यह आक्षेप किया था कि ये कविताएँ ऐंद्रिक अनुभवों के आवेग में सामाजिक अनुभवों की उपेक्षा करती हैं। आज आधी सदी बाद जब काव्यानुभव में इंद्रियानुभव की हिस्सेदारी पर विचार करें तो मामला एकदम विपरीत मिलेगा।

लोक के जीवन का मर्म

एक तरफ़ ऐसी सभ्यता बनाई जा रही है, जहाँ एकल परिवार का आदर्श भी अब बीते समय की बात हो चुकी है। परिवारमात्र की धारणा टूट रही है, अब व्यक्ति के अपने उपभोग-कामनाओं में आत्मेतर व्यक्ति भार सरीखा है। दूसरी ओर मिथिलेश का परिवार बहुत बड़ा है। वह परिवार की धारणा व उसके सौंदर्य को और विस्तार दे रहे हैं। इसमें पति-पत्नी-बच्चों की कौन कहे; नानी-नाना, पशु-पक्षी और पेड़-पौधे तक शामिल हैं। मिथिलेश का यह घर संसार का सबसे आत्मीय वृत्त है। यह संसार से ख़ुद को काटने वाली चहारदीवारी नहीं, बल्कि अपने गिर्द संसार से संश्रय का आत्मीय अवकाश है।

हिंदी में विश्व कविता का विश्व

गत सौ वर्षों की हिंदी कविता पर अगर एक सरसरी तब्सिरा किया जाए और यह जाँचने-जानने का यत्न किया जाए कि हमारी हिंदी दूसरी भाषाओं में उपस्थित सृजन के प्रति कितनी खुली हुई है, तब यह तथ्य एक राह की तरह प्रकट होता है कि हिंदी का संसार अपनी सीमाओं और संसाधनों के स्थायी विलाप के बावजूद एक खुला हुआ संसार है; जिसमें अपनी शक्ति भर अपने समय में कहीं पर भी किसी भी भाषा में हो रहे उल्लेखनीय सृजन को अपनी सीमाओं और संसाधनों में ले आने की सदिच्छा है।

अथ ‘स्ट्रेचर’ कथा

यह सच है कि मानवीय संबंधों की दुनिया इतनी विस्तृत है कि उस महासमुद्र में जब भी कोई ग़ोता लगाएगा उसे हर बार कुछ नया प्राप्त होने की संभावना क़ायम रहती है। बावजूद इसके एक लेखक के लिए इन्हें विश्लेषित या व्यक्त करते वक़्त यह इतना सरल नहीं हो पाता।

अ-भाव का भाव—‘अर्थात्’

पुरानी और परिचित चीज़ों में एक आश्वस्ति होती है। नई में त्रास और रोमांच—ठीक पहले प्रेम की तरह। हम आश्वस्ति और सुरक्षा चुनते हैं; वैचारिक, आर्थिक, यौनिक सुरक्षा… जीवन का रोमांच नहीं। हम अपनी तमाम धारणाओं पर इतने निश्चित और आदतों के ऐसे पवित्रपंथी हैं, कि एक ही ढर्रे की ऊबी-सी ज़िंदगी को सत्कर्म बना लिया है।

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