समय प्रश्नमय

एक नई सामुदायिक साहित्यिकता निर्मित हो रही है, जिसमें अत्यंत युवा अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। इस उमड़ते-घुमड़ते आस्फोट के लिए लेखक संगठनों की अंतर्कलह और उसमें व्याप्त औसतपन और अहंवाद और गिरोहवाद और वैचारिक जड़ताएँ बहुत कारगर नहीं हो सकतीं। नई उच्छलता नए निर्माण-बोध के साथ आगे आ रही है। उस पर बेवजह का संदेह क्यों किया जाए।

रचना में नया क्या

बहुत आसानी से कहा जा सकता है कि रचना में नई अंतर्वस्तु और उसका विन्यास ही नया माना जाएगा। सवाल उठता है कि नई अंतर्वस्तु क्या है? रचना में नई महत्त्वाकांक्षाओं को नया माना जा सकता है, जिसके प्रतिफल नई संरचना और नया रूप-विधान हो सकते हैं—नई कला और नई असहमति और पुराने की नई तरह से पहचान—आविष्कार और उद्भावना।

हिंसा ही नहीं है हिंदी

कौन नहीं जानता कि समय के विभिन्न चरणों और दौरों में एक ही भाषा अत्यंत प्रगतिशील और धुर प्रतिगामी विचारों की संवाहिका हो सकती है। ऐसा भी होता है कि एक साथ कितनी ही भाव-धाराएँ एक भाषा में सचल और सक्रिय रहती हैं। इसमे कोई दो मत नहीं कि इस समय हिंदी को घृणा-भाषा के तौर पर प्रभूत तरीक़े से इस्तेमाल किया जा रहा है। वह बाँटने का उपकरण बन गई है। उसे अनाधुनिकता के वितरण और विस्तार के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है। उसे ज्ञान विरुद्ध अंधता का एजेंट बना दिया गया है। लेकिन क्या इस आधार पर उसकी यह ब्रांडिंग ठीक होगी कि हिंदी मूलतः घृणा के प्रत्ययन और क्रियात्मकता की भाषा है।

‘मैं अपने एकांत का रैडिकल इस्तेमाल करना चाहता हूँ’

अगर आप मुझसे पूछें तो मैं कहूँगा कि मेरा कथा-मन है। मुझे कहानियाँ सुनना, देखना और काफ़ी हद तक पढ़ना भी अच्छा लगता है। कविताएँ लिखने के बावजूद मेरी कहानी कहने की महत्वाकांक्षा नहीं, आकांक्षा कभी कम नहीं हुई। इसीलिए न केवल मैंने कहानियाँ लिखीं, बल्कि अब मैं कथात्मक फ़िल्में भी बनाना चाहता हूँ।

दुश्मनी जम कर करो लेकिन…

मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह टिप्पणी मैंने जनवादी लेखक संघ के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि उस किताब के संकलनकर्ताओं द्वारा की गई विसंगतियों को लेकर की है। मैंने व्यक्तिगत रूप से अपने विचार व्यक्त किए हैं, न कि प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में।

कवि चंदबरदाई और उनका ‘पृथ्वीराज रासो’

इतिहास की तारीख़ के हिसाब से देखा जाए तो कवि चंदबरदाई को हिंदी का पहला कवि और उनकी रचना ‘पृथ्वीराज रासो’ को हिंदी की पहली रचना होने की इज़्ज़त बख़्शी गई है।

हिंदी साहित्य के इतिहास के बारे में

आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी के अप्रतिम आलोचक, निबंधकार, साहित्येतिहासकार, कोशकार, अनुवादक, कथाकार और कवि हैं। शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य को जिस तरह प्रस्तुत किया, उस तरह आज तक शायद ही कोई दूसरा कर पाया।

हिंदी का पहला मुसलमान कवि

अब्दुल रहमान के ‘संदेश रासक’ में 12वीं सदी के भारतीय जीवन की एक पूरी तस्वीर दिखती है। वह मुल्तान में पैदा हुए, फिर उत्तर भारत आ गए। अपने काव्य में वह अन्य हिंदुओं की तरह मुल्तान को ‘मलेच्छ देश’ कहते हैं, क्योंकि वहाँ मुसलमानों का क़ब्ज़ा बहुत पहले हो चुका था

अपभ्रंश का दौर

हिंदी को हमेशा हिंदुस्तानियों से जोड़कर देखा गया है, जिसे बोलने वाले मुसलमान भी थे, हिंदू भी और पारसी भी। इस तरह देखें तो हिंदी का किसी दीन या मज़हब से कुछ लेना-देना नहीं था।

जनवाद और साहित्य की तिजारत

आप अपने इर्द-गिर्द भी नज़र दौड़ाएँगे तो जनवाद और प्रगतिशीलता के नाम पर ‘अपनी तरक़्क़ी’ करने वाले असंख्य महारथी मिल जाएँगे।

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