‘एक विशाल शरणार्थी शिविर में’

…सभी विस्थापितों को होना था स्थापित। स्थापित होकर सभी को करना था प्रेम। सभी को है अपनी रात और एकांत का इंतज़ार। सभी को लेना था इतिहास से प्रतिशोध। सभी को चाहिए था सपनों के लिए एक बिछौना―अतीत पर पछताने के लिए एक चादर और नींद के लिए एक सिरहाना। फिसलने के लिए तेल चाहिए था सभी को। सभी को चाहिए था चुल्लू भर पानी और एक कमरा।

चलो भाग चलते हैं

ये सच है कि हम हमारे गढ़े हुए तमाम संबोधनों को, दो वर्ण वाले तुकांत शब्दों को; जी नहीं पाएँगे। घर से भाग नहीं पाएँगे। भागने की तमाम वजहें हैं, हम दोनों के पास। हालाँकि भाग जाने के लिए एक वजह ही काफ़ी है। मैं तुम्हें ये नहीं समझाऊँगा कि बंदिशों और विवशताओं में कितना अंतर होता है।

कल कुछ कल से अलग होगा

आलोकधन्वा के कविता-संसार की कल्पना स्त्रियों के बग़ैर नहीं की जा सकती। वह हिंदी में स्त्री-विमर्श के एक प्रतिनिधि और सशक्त कवि हैं। माँ पर कविता लिखते हुए आलोकधन्वा को एक पूरा ज़माना याद आता है।

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