हिंदी की पहली आदिवासी कवयित्री

हिंदी में उपस्थित स्त्री-कविता आजकल साहित्य-विमर्श के केंद्र में है। मेरे समीप इस करुणा कलित विमर्श में सुशीला सामद का नाम एक विकल रागिनी की भाँति बज रहा है। यह हाहाकार इस मायने में स्वाभाविक भी है कि सुशीला सामद एक छायावादी कवयित्री हैं, जिन्हें भारत की पहली हिंदी आदिवासी कवयित्री होने का गौरव प्राप्त है।

वर्ष 1935 में प्रकाशित उनके कविता-संग्रह ‘प्रलाप’ की प्राप्ति मुझे कुछ रोज़ पूर्व नई पीढ़ी के आलोचक आशीष मिश्र के मार्फ़त हुई। दशकों तक अनुपलब्ध रहे इस कविता-संग्रह को 2017 में वंदना टेटे ने अपनी विस्तृत भूमिका और संपादन के साथ प्रकाशित करवाया। वंदना टेटे सुपरिचित आदिवासी कवयित्री हैं। वह अपनी भूमिका (‘विहग-कुल आकुल स्वर में जाग’) की शुरुआत कुछ यों करती हैं :

भारतीय पत्रकारिता और साहित्य के इतिहास में आदिवासी और महिलाओं दोनों की स्थिति एक समान है—लेखन में भी और लेखक के रूप में भी। लेखन में जहाँ उन्हें विषय और कथ्य के रूप में नहीं लाया गया या लाया भी गया तो उनके गरिमापूर्ण अस्तित्व को नकारकर। वहीं, दूसरी ओर उनकी लेखकीय अभिव्यक्ति को लगातार दमित-पीड़ित किया गया। प्रकाशनों में उन्हें स्थान नहीं दिया। अगर अपने दम पर वे अपना प्रकाशन ले भी आए तो उसमें भाषायी त्रुटि, साहित्यिक दोष, सौंदर्यात्मक अनुभूतियों की कमी आदि बताकर पत्रकारिता व साहित्य के मुख्य मंच पर आने से जबरन रोक दिया। फिर भी, आ भी गए तो नज़रें ऐसे फेर लीं मानो उस दिशा में न तो आँखों की पुतलियाँ फिरती हों और न ही गर्दन मुड़ती हो। और वे अनदेखे-अनजाने ही रह गए। भारत की प्रथम आदिवासी हिंदी कवयित्री सुशीला सामंत के साथ ऐसा ही हुआ।

‘सामंत’ टाइटिल मुंडा आदिवासियों में नहीं है, ‘सामद’ है। लेकिन सुशीला के जीजा देवेंद्रनाथ का परिवार ‘सामंत’ ही लिखता था। इसलिए सुशीला भी अपने नाम के साथ ‘सामंत’ लगाने लगी थीं। हमने पुस्तक के पुनर्प्रकाशन में ‘सामंत’ की बजाय ‘सामद’ का ही प्रयोग किया है, ताकि कवयित्री की मुंडा आदिवासी पहचान बनी रहे।

सुशीला सामद (जन्म : 7 जून 1906 — मृत्यु : 10 दिसंबर 1960) आधुनिक हिंदी कविता का एक शुरुआती नाम हैं। एस.टी. और स्त्री कोटे से बाहर रखकर भी अगर उनके नाम पर विचार करें, तब भी वह हिंदी साहित्य के इतिहास की एक उल्लेखनीय उपस्थिति प्रतीत होती हैं। लेकिन अन्याय और उपेक्षा करना भी साहित्य का एक ज़रूरी कार्यभार है। यह न हो तब भविष्य के कार्यभार अत्यंत सीमित होकर, अंतत: समाप्त हो जाएँगे 🙂

सन् 1930 के दशक का कोलाहलपूर्ण काल—झारखंड के सुदूर इलाक़े चाईबासा में एक कवयित्री हिंदी में कविताएँ लिख रही है :

किन अकुलाई आहों से,
किसकी मधुमय चाहों से।
किसके अनुपम भावों से,
आई यहाँ बसंती रानी।।

यह कवयित्री समय, समाज और साहित्य की सारी समकालीनता से बेदार है। वह अँधेरे में नहीं है। वह साहित्यिक-सामाजिक पत्रिका ‘चाँदनी’ की संपादक-प्रकाशक भी है और तत्कालीन बिहार में महात्मा गांधी की एकमात्र आदिवासी महिला ‘सुराजी’ आंदोलनकारी भी। वह कोई साधारण व्यक्तित्व नहीं है, इसलिए उसकी उपेक्षा के सूत्र सरलता से पकड़ में नहीं आते, और गहरे जाने की ज़रूरत जान पड़ती है। कवयित्री के ही शब्दों में उसका परिचय शायद कुछ मदद करे :

संक्षेप में मेरा परिचय यह है—पिछड़े हुए बिहार-प्रांत के सबसे अधिक पिछड़े भाग छोटानागपुर के कोल्हान जैसे असभ्य और अंधकारपूर्ण चाईबासापुरी की निवासिनी हूँ। पिता जी चाईबासा के एक प्रख्यात व्यक्ति हैं। वह आधुनिक शिक्षित आदिम-निवासियों में एक श्रेष्ठ व्यक्ति गिने जाते हैं। आदिम-निवासियों के उद्धार-कार्य में उनका हाथ सदैव रहा है। मैं उनकी सात पुत्रियों में पाँचवीं हूँ। मेरी शिक्षा बाल्य-काल में प्राइमरी स्कूल तक हुई है। मेरे पिता जी आदिम-निवासी होते हुए भी पर्दा-प्रर्था के कट्टर समर्थक हैं। मेरी शिक्षा स्थानीय एस.पी.जी. मिशन स्कूल में हुई है। मैंने क़रीब 11 वर्ष की अवस्था में स्कूल छोड़ा था।

मेरा विवाह 15 या 16 वर्ष की अवस्था में हुआ। इस बीच अपने कृपालु बहनोई की प्रेरणा से मैं घर में बराबर अध्ययन करती रही। विवाह के चार वर्ष बाद मेरी पुत्री उत्पन्न हुई। यहीं से मेरे गृहस्थ जीवन का शेष और सार्वजनिक जीवन का आरंभ होता है। मेरे बेकार और चिंतित मन में अध्ययन और सेवा के मधुर भाव भरने का श्रेय मेरे पूज्य बहनोई श्री देवेंद्र सामंत एस.ए., एल.एल.बी. को है। आप एक प्रसिद्ध वकील हैं। प्रांतीय कौंसिल के सदस्य भी हैं। इसके सिवा चाईबासा के डिस्ट्रिक्ट बोर्ड और मन्यूनिसिपेलिटी के वाइस चेयरमैन हैं।

मुझे 1931 में प्रयाग-महिला-विद्यापीठ की विवरण-पत्रिका मिली। मैं उसी वर्ष प्रवेशिका-परीक्षा में सम्मिलित हुई और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुई। इससे उत्साहित होकर मैं 1932 में विनोदिनी तथा विदुषी परीक्षाओं में बैठी। इस बार भी मुझे आशातीत सफलता मिली।

मुझे अपने अध्ययन में किसी विद्वान् अथवा अध्यापक से सहायता नहीं मिली। मैंने जो कुछ सीखा, एकमात्र अपने अध्यवसाय के द्वारा ही सीखा और जाना।

1932 में स्त्रियों के अंदर जागृति और शिक्षा-प्रसार करने के निमित्त ‘महिला-समिति’ तथा ‘महिला-मंदिर’ की संस्थापना की गई। इनका दायित्व तथा अध्यापन का भार मुझ ही पर था। रात-दिन की चिंता तथा परिश्रम के कारण मैं रूग्न हो गई। अतएव मुझे वर्ष भर के लिए अवकाश ग्रहण करना पड़ा।

1934 में मैं प्रयाग जाकर विदुषी आनर्स की परीक्षा में सम्मिलित हुई। यहीं मेरी कुछ सहेलियों ने आग्रह किया कि मैं अपनी रचनाएँ पुस्तक-रूप में छपवाऊँ। उन्हीं के प्रोत्साहन से उत्साहित होकर मैंने साहित्य-क्षेत्र में प्रवेश करने की धृष्टता की है।

हिंदी मेरी मातृभाषा नहीं है। मेरी मातृभाषा मुंडारी है। परंतु मैं राष्ट्रभाषा हिंदी को अपनी मातृभाषा से अधिक पूज्य समझती हूँ। और इसी के नाते मातृ-मंदिर में अपने इन नीरस सुमनों को लेकर पूजा करने आई हूँ। यद्यपि मेरी यह अनधिकार पूजा तुच्छ और हेय समझी जाएगी, तथापि मैं इसमें भी परम संतोष का ही लाभ करूँगी।

‘प्रलाप’ की कविताएँ जिनका संग्रह देखने को मित्रों का आग्रह था, ‘चाँदनी’ और ‘आदिवासी’ नाम की पत्रिकाओं में निकल चुकी हैं। उन्हीं के संतोष-निमित्त उन कविताओं के संग्रह को ‘प्रलाप’ के नाम से पुस्तकाकार उपस्थित किया है।

इस बार इन कविताओं में आवश्यक परिवर्तन व संशोधन भी कर दिया गया है। आशा है, हिंदी-काव्य-गगन के कलाधर विद्वान् मेरे भ्रांत मस्तिष्क के ‘प्रलाप’ को सुनकर भी उसे अनसुना ही समझे रहेंगे।

सुशीला देवी
चाईबासा,
6 मार्च 1934

‘प्रलाप’ में 43 रचनाएँ हैं और इसकी भूमिका ‘सरस्वती’ पत्रिका के तत्कालीन संपादक देवीदत्त शुक्ल ने लिखी है :

‘प्रलाप’ नामधारी इस करुण-रस-पूर्ण ‘अंतर्लाप’ को पढ़कर कौन नहीं कहेगा कि यदि लेखिका का कविता का ऐसा ही अभ्यास बना रहा तो हिंदी की स्त्री-कवियों में वह भी आदर के साथ गिनी जाएँगी। हमें विश्वास है कि देवी जी मानव-जीवन के अन्य पहलुओं का भी अपनी कविता की दृष्टि से निरीक्षण करेंगी और हमें शीघ्र ही उनकी दूसरी नई कविता-पुस्तक अवश्य देखने को मिलेगी।

सुशीला सामद की दूसरी कविता-पुस्तक आई ज़रूर, लेकिन अब देखने को उपलब्ध नहीं है। वंदना टेटे के मुताबिक़ :

‘प्रलाप’ (1935) के बाद ‘सपने का संसार’ सुशीला सामद का दूसरा काव्य-संग्रह है जो 1948 में छपा। चाईबासा के साहित्यकार और पत्रकार शशिकर ने ‘डॉ. बुल्के स्मृति ग्रंथ’ (सत्य भारती, 1987) में इसकी सूचना दी है। शशिकर ने अपने लेख में यह भी बताया है कि ‘सपने का संसार’ की भूमिका हिंदी के सुख्यात आलोचक नलिन विलोचन शर्मा ने लिखी है।

वंदना टेटे ‘सपने का संसार’ की तलाश में लगी हुई हैं, ताकि सुशीला सामद की कविता-यात्रा का समग्र और समुचित पाठ और मूल्यांकन संभव हो सके। वंदना समूचे साहित्य-इतिहास-लेखन को आधा-अधूरा, नस्लीय, सामंती और लैंगिक भेदभाव से भरा हुआ मानती हैं। यह कहने से पूर्व वह अपनी भूमिका में इसे यों स्पष्ट भी करती हैं :

सुशीला के समय में हिंदी की दो चर्चित कवयित्रियाँ हैं—सुभद्राकुमारी चौहान (1904-1948) और महादेवी वर्मा (1907-1987)। इनमें महादेवी ही हैं जिनका हिंदी काव्य-संग्रह ‘नीहार’ 1930 में, ‘रश्मि’ 1932 में और ‘नीरजा’ 1934 में प्रकाशित हुआ है। महादेवी और सुशीला के जीवन, व्यक्तित्व, रचना-कर्म और आदर्श में संयोग से कई समानताएँ हैं : प्राथमिक स्तर पर पढ़ाई छोड़ना फिर बाद में उच्च शिक्षा हासिल करना, समाज और देश-सेवा की प्रवृत्ति, परंपरागत विवाहित महिला की तरह जीवन नहीं जीना, महिलाओं की शिक्षा एवं जागरूकता के लिए कार्य करना और गांधी के विचार व कर्म को अपना आदर्श बनाना। अपने प्रथम काव्य-संग्रह पर विद्वानों की एक जैसी सम्मति और साहित्य जगत में समान रूप से उपेक्षा का पात्र बनना। दोनों की कविताओं का स्वर भी एक है। विपुल लेखन के कारण ज़रूर महादेवी की कविताओं का वितान बहुत विस्तृत दिखाई देता है; परंतु जहाँ तक रचनाओं के भाव, कथ्य, अभिव्यक्ति और सौंदर्य का सवाल है : अहिंदीभाषी और आदिवासी सुशीला उनसे कमतर नहीं जान पड़ती हैं।

हिंदी की पहली आदिवासी कवयित्री, संपादक और सुराजी स्वतंत्रता-सेनानी सुशीला सामद के पहले कविता-संग्रह ‘प्रलाप’ (1935) का नवीनतम संस्करण (2017) प्यारा केरकेट्टा फ़ाउंडेशन (राँची, झारखंड) ने प्रकाशित किया है। इस संस्करण से कुछ कविताएँ यहाँ पढ़ी जा सकती हैं : सुशीला सामद का रचना-संसार