मलयज की स्त्री-दृष्टि

संसार का बहुत सारा गद्य इस प्रकार प्रारंभ होता रहा है कि उसके पहले वाक्य में ही मौसम और समय प्रकट हो जाएँ। यह गद्य से गुज़र रहे व्यक्तित्व को एक तय प्रभाव में बाँधने का एक बहुत रूढ़ नुस्ख़ा है। इसका प्रयोग हमारी शीर्षस्थानीयता से लेकर हमारी औसतताएँ और मूढ़ताएँ एक साथ करती आई हैं। जैसे मैं अगर इस मज़मून को—जो अभी शुरू होकर भी शुरू नहीं हुआ है—इस वाक्य से शुरू करूँ : वह जुलाई के किसी रविवार की एक दुपहर थी… तब बस मैं इस गद्य से गुज़र रहे व्यक्तित्व को भारतीय परिवेश में एक उमस और ऊब में ले जा चुका हूँ। इस प्रकार की सरलताएँ गद्यकार का काम संक्षिप्त करती हैं।

मलयज के गद्य—विशेषकर उनकी डायरियों—के ज़रिए उनकी स्त्री-दृष्टि की जाँच एक उमस और ऊब से भरा हुआ काम है। यह क़रीब-क़रीब 1500 पृष्ठ का संसार है, और इस बात के लिए उकसाता है कि इसमें इस तरह की जाँचें वैसे ही टाल दी जाएँ, जैसे जुलाई के किसी रविवार की दुपहर में आप बस बिस्तर पर पड़े हुए सीलिंग फ़ैन को ताकते हुए सब कुछ को टालते रहते हैं। इस स्थिति में विचार पर विचार आते हैं—बेतरतीब, जिन्हें बातरतीब करने के लिए आप उठना नहीं चाहते। इतने में ही न जाने कहाँ से दरवाज़े पर कुछ दोस्त चले आते हैं। इनमें एक स्त्री है, एक स्त्रीवादी है और एक स्त्रीपीड़ित है। यह दृश्य कुछ यों सरकता है कि उमस और ऊब कुछ-कुछ बिखरने लगती है। मैं उनके बीच ‘मलयज की डायरी’ के एक इंदराज को याद करता हूँ :

बीवी-बच्चों की अनुपस्थिति में घर कैसा लगता है, जबकि पता हो कि अनुपस्थिति घंटे दो घंटे की न होकर कई-कई दिनों की है? एक साफ़-सुथरा फ़र्श बिजली की रोशनी में चमक रहा है, उस पर छोटे जूतों और चप्पलों के कोई निशान नहीं हैं। एक तख़्त जिस पर बिछी हुई चादर में न कोई शिकन है, न कोई धब्बा। चीज़ें सब क़रीने से हैं, क़रीने से और ठंडी, उन्हें कोई नहीं छूता-हटाता, अस्त-व्यस्त करता—वे चुप हैं। उन्हें छेड़कर उनसे कोई नहीं बोलता। घर में कुछ बोलो तो अपनी आवाज़ बिना किसी आवाज़ से टकराए अपने कानों में ज्यों की त्यों लौट आती है—बीच में न उसे कोई लपकता है, न काटता है, न अपने पास रखता है। घर के कमरों से प्रतीक्षा के निशान ग़ायब हो गए हैं। कमरे को पता है कि जिसे आना है वह आएगा ही, कहीं कोई खटका नहीं, न कोई धुकधुकी जो बिना बताए देर से आने वाले के लिए होती है। ज़िद और ठुनक जो फ़रमाइश के पूरे न किए जाने पर एक प्यारे शोर की तरह कमरे की देहरी पर ही पूरे तन-मन को दबोच लेती थी, पाँव से लिपटकर, अब वह कहीं और है। कई-कई दिन तक के लिए…। [‘मलयज की डायरी’, 23 दिसंबर 1980]

स्त्रीवादी दोस्त ने इस स्मृति में स्त्री-श्रम के अवमूल्यन की अवहेलना के लिए मलयज की और इस गद्य-अंश की प्रशंसा करने के लिए मेरी भरपूर निंदा की। स्त्री स्त्रीवादी के साथ थी। उसने कहा कि ऐसा कोई तब ही लिख सकता है, जब उसने घर के काम-काज में कभी स्त्री का हाथ न बँटाया हो। स्त्रीपीड़ित ने कहा कि और ध्यान दीजिए कि यह आदमी यह सब तब लिख रहा है, जब : औरतों की कई नस्लें धरती पर आ गई हैं : बॉडीबिल्डर औरतें जिनके कंधों की पेशियाँ मर्द की पेशियों जैसी सख़्त हैं; मैराथन धावक औरतें जिनके शरीर की पेशियाँ मर्दों जैसी ही सुतवाँ हैं; प्रशासक औरतें जिनकी सत्ता मर्दों के बराबर है; औरतें जो अपने तलाक़शुदा पतियों को गुज़ारा-भत्ता (एलिमनी) दे रही हैं और औरतें जो संगाती रही होने के नाते गुज़ारा-भत्ता (पैलिमनी) पा रही हैं; समलैंगिक औरतें जो शादी करने और वीर्यदान से बच्चे पैदा करने का अधिकार माँग रही हैं; मर्द जो अपना अंग-भग करके वैधानिक रूप से औरत होने के नाते पासपोर्ट पा रहे हैं; वेश्याएँ जो जाने-माने व्यावसायिक संगठनों में एकजुट हो गई हैं; संसार की सबसे ताक़तवर सेनाओं के अगले दस्तों में सशस्त्र औरतें हैं; पूरे ओहदे-दर्जे की कर्नल हैं जो शोख़ लिपस्टिक और नेलपॉलिश लगाती हैं; औरतें जो अपनी फ़तहों के बारे में लिखती हैं जिनमें लोगों के नाम, मुद्राओं के वर्णन, अंगों के नाप जैसे विवरण मिलते हैं। [जर्मेन ग्रीयर, विद्रोही स्त्री, अनुवाद : मधु बी जोशी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2001, पृष्ठ : ix]

इतना विमर्श मेरी सहनशीलता के बाहर कहीं पड़ता है। मैंने ऊबकर इन दोस्तों से कहा कि आप लोग मलयज को जानते नहीं हैं। वह युवा स्त्रियों की अधिकता वाले एक परिवार में अकेले कमाने वाले व्यक्तित्व थे। वह जब तक जीवित रहे, तब तक आई स्त्रीवाद की सारी लहरों से परिचित रहे। उन्होंने अपनी डायरियों में जो कुछ लिखा अपने अज्ञान में नहीं, अपनी पीड़ा और अनुभूति के उकसावे पर लिखा। उनमें संवेदनशीलता और आत्मालोचना बहुत थी, इसलिए ही वह आत्मदया से बचते रहे। वह लिखकर ख़ुद को जाँचते थे। यह प्रक्रिया उस आत्मसंघर्ष से संबद्ध है, जिसमें व्यक्ति सबसे पहले ख़ुद से लड़ता है—ख़ुद को बदलने के लिए। मैं उनके तनावों के साथ उन्हें पढ़ता हूँ। वह जब स्त्रियों पर कोई प्रतिक्रिया देते हैं, तब उसे उसके अतिरेक में समझते हुए, मैं उनके जीवन में उतरकर उनके कहे में निहाँ बारीक रेशे देखता हूँ। यह एक पूरा विचित्र जाल है—हमारे संस्कारों और हमारी कंडीशनिंग का। इस पर यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि ये डायरियाँ उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुईं। इस अर्थ में देखें तब यह एक ऐसा काम है, जिसमें जिस पल मन में जो भी जैसे भी विचार आ रहे हैं, उन्हें दर्ज कर दिया गया है। इन विचारों को कोई और भी पढ़ेगा, यह विचार संभवतः दूर-दूर तक लेखक के मन में नहीं है। यहाँ संपादन नहीं है :

औरतें ज़्यादातर मूर्ख, चिड़चिड़ी, ईर्ष्यालु और दंभी होती हैं—कम से कम अपने घर में तो मैं यही पाता हूँ। उनमें दूसरों को समझने का माद्दा बहुत ही कम—बिल्कुल नहीं के बराबर होता है। उनके बारे में सारी महानताएँ पुरुषों की कल्पना… wishful thinking का परिणाम हैं।

इन पंक्तियों को बड़े जब्र के साथ लिख रहा हूँ और मेरा दिमाग़ ग़ुस्से में नहीं है।

…कुछ रेत के लोंदे हमने बनाए थे। शायद यही सबसे बड़ी मूर्खता है। रेत ढहती जाती है फिर भी लोंदे बनाने की आदत नहीं जाती।

We are patient and doctor at the same time—a doctor cannot cure himself.

किताबें पढ़-पढ़कर वे सब अपने को ठस दिमाग़—बाँझ—बनाती जा रही हैं (कितना अप्राकृतिक कार्य!) और समझती हैं कि शिक्षित हो रही हैं। कितना बड़ा मज़ाक़ है—उन्हें नहीं मालूम कि ये किताबें उन्हें पल-पल सोखती जा रही हैं। औरत का घंटों बैठकर किताब में सिर मारना—बौद्धिक व्यायाम करना (मैत्रेयी-गार्गी के क़िस्सों के लटके ऐ स्त्री-पुरुषो! अब बंद करो!) मुझे संसार का सबसे अनैतिक, अप्राकृतिक कार्य लगता है। लगता है, उसे ग़लत जगह ग़लत स्क्रू की तरह फिट किया जा रहा है।

और फिर इस बौद्धिक व्यायाम से कुछ बुद्धि बढ़ती हो, समझने का माद्दा बढ़ता हो—राम-राम!

स्त्री-शिक्षा की धुन में आजकल स्त्रियों की हत्या—उनके निजीपन—originality की हत्या की जा रही है। यह बात कहने पर शायद स्त्रियों से अधिक विरोध पुरुष ही करेंगे। शायद मैं भी करूँ। पर… और बातों से अत्यधिक हताश होकर Jean Cristophe के शब्दों में बेसाख़्ता कह उठता हूँ मैं : Only love me. There is no good to understand me… क्योंकि समझने का बूता, ओ औरत, तुझमें है ही नहीं…। [‘मलयज की डायरी’, 9 अक्टूबर 1959]

विष्णु खरे ने मुझे अपना अंतिम साक्षात्कार देते हुए कहा था कि भाषा का सही होना हमारे मस्तिष्क के लिए बहुत ज़रूरी है, क्योंकि कुछ रोगों का उपचार भाषा के ज़रिए होता है। पागलपन को क्योर करने के लिए शुद्ध भाषा बहुत ज़रूरी है। यहाँ ज़रा रुक कर सोचो हम लोग कितना ग़लत-सलत और अनर्गल सोच रहे हैं, यह सोचना भाषा से छनकर शुद्ध होता है। भाषा में सही-ग़लत कुछ नहीं होता का मतलब है, जीवन में सही-ग़लत कुछ नहीं होता, क्योंकि जो सहीपन भाषा की नैतिकता है, वही सहीपन जीवन की भी नैतिकता है। [http://buddhubaksa.com/the-last-interview-of-vishnu-khare/]

यहाँ प्रश्न है कि आख़िर हम किसी लेखक को संपूर्णता में कैसे समझें? एक ऐसे लेखक को जिसका कुछ लिख लेना, अपनी ज़िंदगी से कुछ छीन लेने सरीखा था; उसके एक ऐसे काम का पाठ और मूल्यांकन हम कैसे करें जो उसके जीते जी प्रकाशित ही नहीं हुआ और जब हुआ भी तब ऐसे अकुशल और कुरुचिपूर्ण संपादन में कि क्या ही कहा जाए! मलयज की 47 साल की ज़िंदगी में ‘मलयज की डायरी’ के 32 साल एक कीर्तिमान हैं। इन डायरियों में ही हमें ऐसी बातें पढ़ने को मिलती हैं, जिन्हें पढ़कर आज की स्त्रियाँ तिलमिला जाएँ :

औरतें जब ‘वैनिटी’ का प्रदर्शन करने लगती हैं, तब कितनी मूर्ख लगने लगती हैं। जब ये मूर्ख होती हैं, तब कितने अद्भुत आत्म-विश्वास से बातें करने लगती हैं।

‘वैनिटी’ के क्षण में सारी शिक्षा, ज्ञान और बुद्धिमत्ता ताक पर चली जाती है और संस्कारों के भीतर पड़ी हुई क्षुद्रताएँ सामने निकल आती हैं। लेकिन इन्हीं क्षणों में व्यक्ति कितना मानवीय भी हो उठता है! क्या विचित्र बात है कि आदमी अपनी कमज़ोरियों को उजागर करके ही मानवीय बन पाता है!

तब क्या जो अपनी कमज़ोरियों को छुपाते हैं, वे ढोंग करते हैं? [‘मलयज की डायरी’, 19 जनवरी 1966]

‘मलयज की डायरी’ के इन हिस्सों पर अब तक कोई बात नहीं हुई है! क्योंकि ‘मलयज की डायरी’ पर ही अब तक ठीक से कोई बात नहीं हुई है। दरअस्ल, मलयज पर ही अब तक ठीक से कोई बात नहीं हुई है। यह संवादहीनता इस बात की तस्दीक़ है कि कैसे बग़ैर किसी विशेष पाठ और विश्लेषण के इतने वर्षों से हम अब लगभग विस्मृत एक लेखक की एक कृति को महत्त्वपूर्ण मानते आए हैं। साहित्य के संसार में न पढ़े जाने से विशाल और कोई दूसरा दुर्भाग्य नहीं है। यह दुर्भाग्य ही एक लेखक को अलक्षित और अनुपलब्ध कर देता है। इसलिए इस संसार में शीर्षस्थानीयता से लेकर औसतताएँ और मूढ़ताएँ तक एक साथ एक स्वर में अपनी उपेक्षा के विलाप में व्यस्त रहती हैं।

बहरहाल, अरुण कमल ने ‘मलयज की डायरी’ पर लिखते हुए अपनी पुस्तक ‘गोलमेज़’ में कहा है कि इसकी सबसे अच्छी समीक्षा यही होती कि मैं पूरी डायरी यहाँ उद्धृत कर देता। इस अतिकथन को एक तरफ़ रखकर देखें तो मलयज की मृत्य (1982) के 18 साल बाद उनकी डायरियाँ नामवर सिंह के संपादन में तीन खंडों में प्रकाशित हुईं। इसका चौथा खंड भी मिलता है। इस खंड को कुछ लेख और तीनों खंडों की कुछ सामग्री जोड़कर तैयार कर दिया गया है। 20 साल से अधिक हुए इस डायरी का दूसरा संस्करण नहीं आया, पहला संस्करण कई वर्षों से अनुपलब्ध है, पेपरबैक संस्करण कभी था ही नहीं।

मैंने ‘मलयज की डायरी’ को लेकर जून-जुलाई 2015 में सोशल नेटवर्किंग साइट ‘फ़ेसबुक’ पर एक मुहिम-सी चलाई थी, बद-क़िस्मती से वह इस प्रकार की बहुत सारी दूसरी कार्रवाइयों की तरह ही लगभग बे-असर रही; लेकिन विष्णु खरे ने एक पत्र के ज़रिए इस गतिविधि का संज्ञान लिया था। वह पत्र यहाँ उद्धृत है :

‘मलयज की डायरी’ पर अविनाश मिश्र की टिप्पणी से मैं संक्षेप में यह कहने पर बाध्य हुआ हूँ। इसे एक तरह की विचित्र एफ़.आई.आर. भी समझा जा सकता है। मैं इस पर सार्वजनिक रूप से Polygraph Test के लिए तैयार हूँ।

1. यह डायरी जैसी प्रकाशित हुई है, वहाँ तक वह मेरे यानी विष्णु खरे द्वारा संपादित है। नामवर सिंह को कैसे किसने क्यों संपादक बनाया, यह एक अलग क़िस्सा है।

2. डायरी के इस तरह प्रकाशन के पीछे अत्यंत त्रासद, दुखद और लाचार भूमिका दिवंगत मलयज के विवश और पराश्रित नाभिकीय परिवार की है। मलयज की दारुण, असामयिक मृत्यु के समय उनकी बेटी और बेटा दोनों बहुत छोटे थे। वर्षों बाद जब डायरी प्रकाशित हुई तब भी वे दोनों लगभग अवयस्क थे। मलयज की पत्नी, जिन्हें मैं पिछले लगभग 40 वर्षों से ज्योत्स्ना भाभी ही कहता-मानता आया हूँ, अभी भी एक बेहद सादा, परेशान और घबराई हुई महिला हैं। आज तक उन्हें उनके पति के प्रकाशनों का हिसाब नहीं मिला है। उन्हें लगातार ठगा गया है और अब भी ठगा जा रहा है। दोनों बच्चों के बड़े हो जाने तक ज्योत्स्ना भाभी ने जो संघर्ष किया है, जो सरकारी नौकरी उन्हें दी गई, कैसे वह survive कर पाईं, यह सब किसी प्रेमचंद या जैनेंद्र की लेखनी या दे सीका या सत्यजित राय के कैमरे से ही चरितार्थ हो सकता है। मलयज के ही अपने हर तरह के अंतरंगों ने उनके, मलयज और भाभी दोनों के, साथ जो छल-कपट और अन्याय किए हैं; वे कल्पनातीत हैं।

3. अविनाश मिश्र ने बहुत उपकार किया वरना हिंदी के किसी कमीने ने आज तक यह नहीं पूछा है कि ‘मलयज की डायरी’ में मलयज का जीवन-वृत्त क्यों नहीं गया है? उनका फ़ोटोग्राफ़ क्यों नहीं है? तीनों खंडों में शस्ति (ब्लर्ब) की जगह ख़ाली क्यों है? कवर इतना घटिया क्यों है? भूमिकाएँ इतनी टालू और शर्मनाक क्यों हैं?

4. डायरी के और मलयज के सभी अन्य प्रकाशनों के साथ और भी कई समस्याएँ हैं जिनमें जाने का यहाँ अवकाश नहीं है। हिंदी में अधिकांशतः कुत्तों और कमीनों का राज है। केंद्र में मलयज परिवार की मनःस्थिति है जिसके कारण हितैषियों के हाथ और ज़ुबान कट जाते हैं…।

यहाँ तक आते-आते ‘मलयज की स्त्री-दृष्टि’ नाम का यह मज़मून उमस और ऊब में घिरकर ख़ासा भटक चुका है। ‘मलयज की डायरी’ के ऊपर उद्धृत कथित स्त्रीविरोधी हिस्सों, ‘मलयज की डायरी’ और मलयज पर संवादहीनता के वर्णन ने मज़ीद जगह ले ली है। मलयज केवल इतने ही नहीं हैं।

जुलाई के एक रविवार की यहाँ व्यक्त इस दुपहर में—स्त्री, स्त्रीवादी और स्त्रीपीड़ित तीनों की ही ओर से—प्रश्न उठता है कि ‘मलयज की स्त्री-दृष्टि’ पर बात करने से पूर्व हम मलयज पर इतनी बात क्यों करें? मैंने प्रयास किया कि यह काम साथ-साथ हो, लेकिन केंद्रीय विमर्श के सिरे सरकने लगे। इस दरमियान ही वे पत्र सामने आए जो मलयज ने अपनी बहन प्रेमलता वर्मा को लिखे। इन्हें मलयज की मृत्यु के 35 साल बाद स्वयं प्रेमलता वर्मा ने प्रकाशित करवाया, इस दावे के साथ कि—इन पत्रों में बहुत कुछ वह है जो न तो उनकी डायरियों में है, न ही उनके अन्य लेखन में। [https://www.therazafoundation.org/malayaj-ke-patr-premalata-varma] इन पत्रों में पत्र लिखनेवाला और पत्र पानेवाला दोनों ही अपनी-अपनी नई अस्मिता की तलाश में लगे हुए नज़र आते हैं। प्रेमलता वर्मा कहती हैं कि इस बिंदु पर ही वह (मलयज) मुझसे और अधिक जुड़ते गए।

इस जुड़ाव में मलयज के यहाँ अभिव्यक्त स्त्रियाँ पूरी तरह कथेतर और पारिवारिक हैं। जब वह स्त्रियों पर कोई टिप्पणी करते हैं, तब उनके दृष्टि-पथ वे ही स्त्रियाँ होती हैं जो उनके संपर्क में हैं। इन स्त्रियों के बहाने वह स्त्री को समझने की कोशिश कम, उस पर निर्णय देने की कोशिश अधिक करते हैं। वह कुछ इस प्रकार की स्वभाव/प्रवृत्तिगत विवशताओं और अनुभूतियों को जो स्त्री-पुरुष दोनों में संभव हैं, केवल स्त्री-अस्मिता के माथे मढ़ देते हैं। मलयज का जीवन सब मोर्चों पर एक अभावग्रस्त जीवन है। वहाँ सिवाय रचनात्मक बेचैनी के शेष सब कुछ बहुत कम है। यह अभाव मलयज के उत्तर-जीवन में भी इस अर्थ में निर्बाध है कि उनका समुचित पाठ अब तक नहीं हुआ है। इस पाठाभाव में हमारी स्त्रीवादी कवयित्रियों ने ‘मलयज की डायरी’ नहीं पढ़ी है, उन्हें शमशेर और रघुवीर सहाय की स्त्री-दृष्टि की आलोचना से फ़ुर्सत नहीं है। हमारे हिंदी विभागों ने ‘मलयज की डायरी’ नहीं पढ़ी है, उन्हें कबीर और तुलसीदास की स्त्री-दृष्टि की आलोचना से फ़ुर्सत नहीं है। हिंदी का बहुत सारा दिमाग़ अभी संस्कृत साहित्य और रीतिकाल की आलोचना में व्यस्त/मस्त है। इसके अतिरिक्त सारी समकालीनता बग़ैर विमर्श के ही ‘महत्त्वपूर्ण’ है!

इस दृश्य में इस मज़मून में मलयज की स्त्री-दृष्टि का विश्लेषण नहीं, इस दृष्टि के स्त्री-पक्ष की माँग प्रस्तावित है—एक इस प्रकार का स्त्री-पक्ष जो मलयज की स्त्री-दृष्टि का विश्लेषण उन्हें समग्रता में पढ़-समझकर संभव हो, क्योंकि मलयज के कई रंग हैं—प्राकृतिक और जोखिम से लबरेज़—वैसे ही जैसे समुद्रों और स्त्रियों के कई रंग होते हैं—एक ही दिन में कई-कई…

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‘कथादेश’ (स्त्री : दृश्य और दृष्टि, मार्च-2021, संपादक : हरिनारायण, अतिथि संपादक : शम्पा शाह) में पूर्व-प्रकाशित।