वायरल से कविता का तापमान नापने वालों के लिए

गए कुछ रोज़ से हिंदी कवि और उनकी कविता आक्रामक, अति उत्साही और फूहड़ सरलीकरणों के बीच बने हुए हैं। एक दो कौड़ी के आलोचक की दो कौड़ी की दो कविताओं पर दो दिनों से बहस जारी है। इस दृश्य के भीतर कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी की नवीनतम पुस्तक ‘कविता : क्या कहाँ क्यों’ (राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण : 2021) को पढ़ना मेरे लिए सुकूनदेह रहा है।

यह पुस्तक विधिवत् लिखी गई पुस्तक नहीं है। यह पिछले छह दशकों से अशोक वाजपेयी के द्वारा कविता के बारे में समय-समय पर जो सोचा-गुना-लिखा गया, उसका पीयूष दईया द्वारा सुरुचि और सावधानी से किया गया संचयन है।

कविता के निर्लज्ज पक्षधर के रूप में बदनाम अशोक वाजपेयी की यह पुस्तक उन सभी कवि-पूर्वजों और सहचरों के नाम है, जिन्होंने कविता से उम्मीद और आस्था कभी कम नहीं पड़ने दी।

इस पुस्तक के पाठ से गुज़रते हुए मैंने पाया कि कविता पर इतनी अदम्य (अ. वा. के शब्दों में अबोध नहीं) आस्था का स्रोत अशोक वाजपेयी का वह समय ही हो सकता है, जो अब तक गुज़रे तीन दशकों में बहुत बदल चुका है। वायरल से कविता का तापमान नापने वाले आज के ‘शिक्षित समुदाय’ के बीच उन निशानों का सचमुच क्या कोई अर्थ है, जो मैंने पढ़ते हुए इस किताब पर छोड़े हैं :

इस अवसर में कविता की छीजती जगह एक कवि को ही सबसे ज़्यादा विचलित करती है, क्योंकि समाज के 99 प्रतिशत अंश को पता ही नहीं है कि कविता क्या है, कहाँ है और क्यों है? इस स्थिति में तब 358 पृष्ठ की इस पुस्तक को जिसमें हज़ारों बार ‘कविता-कविता’ की टेक है, क्या एक अस्सी वर्षीय पराजित कवि की आत्मकथा की तरह नहीं पढ़ा जाना चाहिए, जिसने तमाम भयानक ख़बरों के बावजूद हँसना छोड़ा नहीं है।

‘‘मेरे लिए जीना कविता के लिए जीना है। कविता के बाहर बहुत सारा जीवन है यह सही है और मुझे पता है। पर, सही या ग़लत, मेरे लिए वही जीवन अर्थ रखता है जो कविता में है या जिसे कविता रचती है। यह कविता में एक तरह की अबोध आस्था नहीं है : यह आस्था है उसकी घटती जगह और साख को जानते हुए। यह एक ‘हारी होड़’ है। हारी है, पर होड़ है।’’ [पृष्ठ : 316]

इस हारी होड़ के बावजूद कविता में बने रहने की मुश्किलें अब किस क़दर हैं, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाइए कि यहाँ प्रतिक्षण कविता के नाम पर न जाने क्या-क्या वायरल हो रहा है और हमारे सत्तानंद सरलीकरण उन्हें हिंदी कविता के मुक़ाबिल खड़ा कर रहे हैं। यह प्रचार तब तो और भी दुखद है, जब इसमें तथ्य ग़लत हों और पूर्वाग्रह ‘डबरे पर सूरज के बिंब की तरह’ नज़र आ रहा हो। यह वायरल तब तो और भी पीड़ित करेगा, जब यह पारुल खक्खर जैसी गुजराती कवयित्री का हो जिनके पास न कविता है, न विचार। वह सत्ता और जनसंपर्क का आधार लेकर वास्तविक सत्ताविरोधी और सचमुच प्रतिबद्ध रचनाकारों को बर्बाद करने के लिए दृश्य में प्रकट हुई हैं।

इस वायरल का तापमान इतना ज़्यादा ले डूबने वाला है कि हमारे जनवादी और जनवादी लेखक संघ तक बौराए हुए हैं, और अपने ही दिमाग़ पर अपने झंडे का डंडा मारने की क्लासिक मूर्खता कर रहे हैं।

अब इस भ्रममय वातावरण में जहाँ अगर कोई आपसे आपके ग़लत तथ्यों को हटाने के लिए आग्रह करे, तब आप अपने पूर्वाग्रह के चलते ऐसा न करके कुछ और करने लगें, मसलन माफ़ी माँगने लगे, ग़लत तथ्यों को प्रसारित करने वाली अभिव्यक्ति की रक्षा की दुहाई देने लगें, घर छोड़कर जाने की ज़िद करने लगें… तब बताइए ‘कविता : क्या कहाँ क्यों’ इस प्रश्न से कोई कैसे जूझे? मुझे लगता है कि इसका तरीक़ा है : गुनहगार आईने के सामने खड़ा हो जाए या अपने फ़ोन में सेल्फ़ी मोड ऑन करके स्वयं से ही पूछे कि क्या वायरल होना ही कविता की जगह और पहुँच के लिए ज़रूरी है?

कवियों को सलाह देते हुए एक बार अँग्रेज़ी के रोमांटिक कवि शेली ने कहा था :

‘‘तुम तब तक कुछ भी नहीं लिखो, जब तक तुम्हें यह विश्वास न हो जाए कि तुम्हारे भीतर कोई सत्य है, जो तुम्हें लिखने को लाचार कर रहा है। सीधे-सादे लोगों को तुम सलाह दे सकते हो, लेकिन उनसे सलाह लेना तुम्हारा काम नहीं है। अपढ़ और बेवक़ूफ़ जनता कविता पर जो राय कायम करती है, वह टिकाऊ नहीं होती। काल अपनी राय उसके विरुद्ध बनाता है। समकालीन आलोचना उन मूर्खताओं का पुंज है, जिनसे प्रतिभाशाली लोगों को बेकार उलझना पड़ता है।’’

मैं जब किसी कवितावंचित या कविताविरोधी या कविता के कुपाठ/कुप्रचार में मुब्तला व्यक्ति को देखता हूँ, तब मेरी पहली और आख़िरी प्रतिक्रिया यही होती है कि इस व्यक्ति की अब तक की ज़िंदगी व्यर्थ हो गई। मैं इसके लिए ख़ुद को ज़िम्मेदार पाता हूँ। मुझे कविता में और कविता के लिए काम करने की मेरी विफलता का तीव्र एहसास होता है। यह सब कुछ मेरे लिए अपमानजनक है। मैं शेली की सलाह का पाश न रखते हुए मूर्खताओं से उलझ पड़ता हूँ, और सोचता हूँ : हमारा ‘शिक्षित समुदाय’ कविता से ही सब कुछ चाहता है, जबकि वह कविता से हाथ झाड़कर पूरी तरह दूर खड़ा हुआ है। उसे पता ही नहीं है कि उसकी भाषा में अभी भी कविता है—बहुत समृद्ध और प्रतिबद्ध—कवि अभी भी साँस ले रहे हैं और अपने समय को व्यक्त कर रहे हैं।

अब अंत में ‘कविता : क्या कहाँ क्यों’ से कुछ उद्धरण, जो संभवतः इस सिलसिले में कुछ मददगार सिद्ध हों :

कविता कवि का अन्य जीवन है।

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कविता गवाह कम हिस्सेदार अधिक है।

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कविता भाषा का जीवन है।

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कविता अपने ढंग और अपनी शर्तों पर रैडिकल होती है।

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कविता पर अपना नाम दर्ज करा पाना बहुत कठिन काम है।

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कविता से अनुराग प्रथमतः और अंततः जिजीविषा का ही प्रकार है।

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कविता सच कहती है और सपना देखती है।

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कविता का विषय, कविता का अर्थ नहीं होता।

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कविता का अंतःकरण ही उसका सत्य है।

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कविता मनुष्यता का एक अद्वितीय आविष्कार है।

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कविता से हमारी अदम्य मनुष्यता का सत्यापन होता है।

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कविता का काम रिकॉर्ड रखना नहीं है।

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कविता समाज या समूह नहीं लिखता, व्यक्ति ही लिखता है।

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कविता की बुनियादी प्रतिज्ञा संसार से अनुराग है।

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कविता के लिए समावेशी रुचि चाहिए।

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कविता में कोई ‘दूसरा’ नहीं होता।

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कविता एक अशुद्ध कला है, क्योंकि भाषा एक अशुद्ध व्यापार है।

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कविता के दो शत्रु इन दिनों बहुत सक्रिय हैं : सरलीकरण और सामान्यीकरण।

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कविता पर्याप्त कर्म है और कवि की सच्ची नागरिकता भी।

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कविता की जगह उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच कहीं होती है।