‘आलम किसू हकीम का बाँधा तिलिस्म है’

मैं इलाहाबाद, बनारस होते हुए दिल्ली पहुँचा; और मुझ तक पहुँचती रहीं कविताओं से भरी हुई हिंदी की छोटी-बड़ी अनगिनत पत्रिकाएँ। मैं हर जगह अपने वय के कवियों से जुड़ा रहा। बहुत से कवियों को उनकी पहली कविता से जानता हूँ। कई को उनके पहले सार्वजनिक पाठ से। कई कवियों की कविताओं के हर ड्राफ़्ट से वाक़िफ़ हूँ। मुझे इलाहाबाद में विवेक निराला, संतोष चतुर्वेदी और मृत्युंजय मिले। बनारस में अनुज लुगुन और अरुणाभ सौरभ। दिल्ली में अनुपम सिंह, अच्युतानंद मिश्र, अदनान कफ़ील दरवेश, अविनाश मिश्र, अमृत सागर, सुधांशु फ़िरदौस, आदित्य शुक्ल, सुघोष मिश्र मिले। मैं पिछले डेढ़ दशक से इन्हें लिखते-पढ़ते-छपते देख रहा हूँ। इन सबकी कविताओं को पढ़ते-गुनते अपनी राय बनाता रहा हूँ। काश सब पर कुछ लिख पाता! मैंने दोस्ती और कविता को अलग-अलग रखा। अब भी रखता हूँ। जहाँ पूर्वाग्रह दिखा, वहाँ सुधार किया। इनमें कोई किसी के जैसा नहीं है! मुझे सबसे जुड़कर और फिर अबोला करके दूर से देखना अच्छा लगता है। इस लगाव, तनाव और तटस्थता से लोगों के व्यक्तित्त्व को समझने में मदद मिलती है।

इस प्रसंग में सुधांशु फ़िरदौस के कवि-व्यक्तित्व के प्रति जिज्ञासा बनी रही। सुधांशु क्या लिख रहे हैं, क्या छप रहा है, इससे वाक़िफ़ होता रहा। इस वर्ष जनवरी में उनकी कविताओं पहला संग्रह (‘अधूरे स्वाँगों के दरमियान’, राजकमल प्रकाशन) आया है, जिसे जयपुर साहित्योत्सव से मैं ख़रीद लाया। इस संग्रह की अधिकांश अच्छी कविताएँ पहले से ही पढ़ी-सुनी हुई हैं। लेकिन संग्रह पढ़ने का सुख कुछ और ही है। पढ़ते समय जो कुछ दिमाग़ में आता गया उसे कविताओं के हाशिए पर गोंजता गया (इस बुरी आदत से मज़बूर हूँ!)।

अधूरे स्वाँगों के दरमियान │ स्रोत : राजकमल प्रकाशन

इस संग्रह में शुरुआती तीन खंडों के अंतर्गत छोटी कविताओं को शामिल किया गया है। उत्तरार्द्ध के तीन खंडों में अपेक्षाकृत लंबी कविताएँ हैं। ज़्यादातर छोटी कविताएँ इतनी छोटी हैं कि एक बिम्ब में पूरी हो जाती हैं। ये छोटी कविताएँ ‘झेन’ कविताओं का आनंद देती हैं; जहाँ दृष्टि, भाव और ऐंद्रियानुभव बिम्बों में घुल गए हैं। इन संवेदनात्मक चित्रों के भीतर अनपेक्षित उलझाव-तनाव नहीं है। ये बहुत सरल, सुलझे हुए और स्वयंपूर्ण हैं; इसलिए सहज संप्रेष्य और प्रभावी भी हैं। इन कविताओं के विषय और शीर्षक भिन्न हैं, परंतु भावदशा में एक रागदीप्त उदासी और अनुचिंतनपूरित अकेलापन ही केंद्रस्थ है। इस तरह देखने पर किसी को लग सकता है कि इनमें बहुवर्णी दुनिया का अनुभवगत वैविध्य नहीं है। लेकिन वह भी यह लक्षित किए बिना नहीं रहेगा कि अनुभूति में अनुभव से भी गहरे उतर विशिष्ट संवेदन को उसके ताप, दाब, संगीत और आर्द्रता में पकड़ने की जैसी क्षमता सुधांशु फ़िरदौस में है, वह उनके वय के दूसरे कवियों में दुर्लभ है। अपनी इसी क्षमता के दम पर उन्होंने ख़ूबसूरत ‘स्टिल लाइफ़’ चित्रों का निर्माण किया है। मैं इस बात का दावा कर सकता हूँ कि ऐसे चित्र उनकी पीढ़ी में किसी के पास नहीं हैं। कारण कि आज संवेदन-क्षण में उतरने के लिए अपेक्षित ज़िद, धैर्य और सूक्ष्म-संवेदी इंद्रिय संस्थान को ग़ैरज़रूरी मान लिया गया है। सुधांशु एक मँझे हुए कलाकार की तरह क्षण के भीतर की थरथराहट और अनुनाद को जानते हैं। वह समय के एक बिंदु पर उसकी गतियों को पकड़ते हैं; बल्कि ऐसा भी कह सकते हैं कि वह एक महीन बिंदु पर जीवन-गतियों के बीच के संबंध, लय और संगीत को पकड़ते हैं।

शरद की पूर्णिमा
कातिका धान की दुधाई महक
ओस से भीगी दूब पर
जामिद दो नंगे पैर

चाँद को छू लेने की चाह में
गड़हे से बाहर उछल
छटपटा रही हैं
मछलियाँ

शरद पूर्णिमा का जादू जिसने देखा है, वह इस कविता को महसूस कर सकता है। शरद में झरती हुई ओस की मासूम बूँदें पूर्णिमा की टहटह उजियरिया में इस तरह प्रदीप्त हो उठती हैं कि चाँदनी झरती हुई प्रतीत होती है। धान के हल्के दुधई फूल सृजन की गंध से आकुल होते हैं। बारिश का गंदला पानी मिट्टी बैठ जाने से स्वच्छ और पारदर्शी हो जाता है। रात में पूर्णिमा का चाँद छोटे-छोटे गड़हों में धीरे से उतर आता है। यहाँ झरती हुई चाँदनी में चाँदी जैसी मछलियाँ उछल रही हैं। इस सौंदर्य से आविष्ट होकर वे चाँद को छू लेना चाहती हैं। इस सौंदर्य का जादू है कि वे अपनी सीमाओं को भूलकर मुक्त हो जाना चाहती हैं। यह बिम्ब जितना वस्तुनिष्ठ है, उतना ही आत्मनिष्ठ भी। मछलियाँ स्वयं कवि हैं, जिनके दोनों पैर धरती के गुरुत्त्वाकर्षण से जड़े हैं; लेकिन उनकी आत्मा इस चाँद और सौंदर्य को भर लेना चाहती है। यहाँ पाठक मेरी बहक को माफ़ करें, मुझे ऐसी कविताएँ बहुत अच्छी लगती हैं, जो मुझे मेरी सीमाओं से मुक्त कर एक सौंदर्यलोक में ले जा सकें! कविता को ऊपर से देखने पर जो चित्र इतना ठहरा हुआ लगता है, उसके अंतस्तल में कितनी गतियों और संस्तरों का संचलन है! सुधांशु का यह संग्रह भी इसी तरह के एक चित्र से शुरू होता है—‘जनपद में अभी-अभी थमी है बारिश’। इस कविता में अलग-अलग बहुत सुलझे हुए चित्र हैं, जिन्हें एक लय पर रख दिया गया है। ‘तरबने में रात’, ‘चाँद और परछाईं’, ‘आत्महत्या’, ‘रातोरात’, ‘जनराग’ आदि इसी तरह की कविताएँ हैं; लेकिन सबसे उल्लेखनीय कविता है—‘रतजगाई’।

रात चाँद के हँसुए से आकाश में घूम-घूम काट रही थी तारों की फ़स्ल
खिड़की से नूर की बूँदें टपक रही थीं
हमारे पसीने से भीगे नंगे बदन पर
रतिमिश्रित प्रेम के सुवास से ईर्ष्यादग्ध रात की रानी
अपने फूलों को बराबर गिराए जा रही थी
भोर होने वाली थी और नींद से कोसों दूर हम दोनों
एक-दूसरे के आकाश में
आवारा बादलों की तरह तितर रहे थे।

इस कविता में अंतः-बाह्य, प्रकृति, मनुष्य के सौंदर्य और अनुभव एक दूसरे को जैसे दीप्त करते हैं; वह वैसे ही है जैसे दो आईनों को आमने-सामने रख दिया जाए तो एक-दूसरे के अनगिनत प्रतिबिम्ब बनते चले जाते हैं। इस कविता में चित्र और अनुभव एकमेक हो गए हैं। इस कविता को पढ़ते हुए महाप्राण निराला की ‘प्रिय यामिनी जागी’ और महीयसी महादेवी की ‘रूपसि तेरा घन-केश पाश!’ शीर्षक कविता याद आती है। इन तीनों कविताओं की ख़ासियत प्रकृति और मानवीय भावों, बिम्बन-प्रतिबिम्बन और अंततः घुलते हुए संगीत बन जाने में है।

सुधांशु फ़िरदौस की कविताओं में पक्षधरता बहुत मुखर नहीं है। लेकिन उनके बिम्ब बहुत गहराई और मार्मिकता से दु:ख और जिजीविषा को रचते हैं। जब वह काव्य-रचना के कारणों पर विचार करते हैं, तो उनके काव्य-बिम्ब और गहरी व्यंजनाएँ दे जाते हैं :

सर्दी के दिनों में रेल के सामान्य डिब्बे में सफ़र करते हुए
जैसे चिपक कर बैठे होते हैं लोग अपने-अपने आकाश में खोए हुए
वैसे ही कविता में आए मेरे अनुभव एक-दूसरे से चिपके हुए
अपना अलग-अलग आकाश खोलते हुए।

पक्षधरता का इस रचनात्मकता के साथ आना ही अपेक्षित है। कविता में उनके अनगिनत तरह के घुले-मिले अनुभव कैसे आते हैं? जैसे सर्दी के दिनों में रेल के सामान्य डिब्बे में अपने-अपने आकाश में खोए हुए, लेकिन चिपक कर बैठे लोग। इस बिम्ब को पढ़ते हुए होनोर दोमिए (Honoré Daumier) का बनाया विश्वप्रसिद्ध चित्र ‘तृतीय श्रेणी का डिब्बा’ (The Third Class Carriage) याद आता है। जिन्होंने इस चित्र को देखा होगा, वे मेरी बात से सहमत होंगे। चित्र और इस बिम्ब को देखकर यह बात समझ में आएगी कि कैसे अलग-अलग कला-माध्यम एक दूसरे से प्रभावित होते हैं और हर नया कलाकार मौलिकता और सृजन को कैसे संभव करता है? मनुष्य अपने जीवन में जिस स्वप्न, आकांक्षा, दु:ख, अनुताप के आकाश में खोया रहता है; कविता अपनी अनुभूति से उसी आकाश को भाषा में खोलती है। नई कविता का एक लोकप्रिय बिम्ब है—पोल पर अटकी हुई तड़फड़ाती पतंग। लेकिन इसी बिम्ब को जब एक युवा कवि प्रयुक्त करता है, तो उसका जीवनानुभव उसमें एक नई दीप्ति पैदा कर देता है :

पेड़ों से अटकी टूटी बदरंग पतंग गोया मन में अटकी स्मृतियाँ
उनका हौसला उन्हें रुला तो सकता है
उड़ा नहीं सकता
उनकी उड़ानों के इतिहास के बोझ से दबी बोझिल शामें।

इन छोटी कविताओं में भी कुछ कविताएँ बिम्बधर्मी कविताओं से अलग जॉनर की हैं। इन कविताओं में लोक, प्रकृति और सुंदर बिम्बों की छ्टा नहीं है। ये वे कविताएँ हैं, जहाँ अपने समय की विडम्बनाओं को पकड़ने का प्रयास है। इनमें प्रचलित मुद्राओं के बजाय बड़े निरुद्वेग और आवेगहीन ढंग से सामयिक राजनीतिक-सामाजिक विडंबनाओं को रचने का प्रयास है। आज के समय में हम जिसे झूठ! झूठ! कह रहे होते हैं, चार दिन बाद उसी को सच मानकर जनता विचारशील लोगों के ख़िलाफ़ खड़ी हो जाती है!

ये शहर चीज़ों को बदलने की अजीब कीमियागीरी जानता है
यहाँ सुबह के इश्तिहार
शाम तक विचार बन जाते हैं।

ये पंक्तियाँ हमारे समय के विमर्शों की सबसे बड़ी सच्चाई हैं। इसी तरह की कविता है—‘नकार’। जहाँ कवि अपनी प्रेमिका से कहता है कि तुम बहुत सुंदर हो और मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। फिर वह विचार करता है कि सुंदरता और प्रेम का संबंध कितना बासी है! ‘जाते-जाते’, ‘कि आख़िर’, ‘अज़ाब’ और ‘ज़िबह’ जैसी कविताएँ इसी जॉनर की हैं। लेकिन इस शैली की प्रतिनिधि कविता है—‘तानाशाह’। यहाँ एक बात समझ में आ रही है, कह दूँ नहीं तो भूल जाऊँगा। सुधांशु छोटी कविताओं में भी तत्सम, तद्भव और अरबी-फ़ारसी के शब्दों को मिला देते हैं। इससे रचनात्मकता में कोई वृद्धि नहीं होती। छोटी सशक्त बिम्बधर्मी कविताओं में भाषिक संसक्ति होनी चाहिए। कई मूल के शब्द-प्रयोग से प्रभाव-क्षय ही होता है। लेकिन यही प्रयोग जब लंबी, नाटकीय, बहुवाचिक कविताओं में करते हैं, तब भाषा की लय को भंग कर और उसकी गाँठों को ढीला कर रचनात्मक तनाव को जन्म देते हैं। यह उपयोगी तभी होगा जब सुधांशु रचनात्मकता के इस क्षेत्र में बढ़ें। छोटी कविताओं में इस तरह का प्रयोग ज़्यादातर खटकता ही है।

इस संग्रह में तीसरी तरह की कविताएँ वे हैं, जो संग्रह के अंतिम तीन खंडों में, लंबी कविताओं की तरह शामिल की गई हैं। इन कविताओं में ‘शरदोपाख्यान’ और ‘कालिदास का अपूर्ण कथागीत’ जैसी कविताएँ सौंदर्यात्मक बिम्बों के कारण भी उल्लेखनीय हैं। ‘बगुला भगत का जनतंत्र’ प्रतीकधर्मी सटायर है। ये दोनों तरह की कविताएँ पूर्व-उल्लिखित दोनों कोटि की छोटी कविताओं का ही विकास हैं। ‘शरदोपाख्यान’ प्रकृति और लोकबिम्बों से बनी ख़ूबसूरत कविता है। यह कविता ‘अमृतपान’ और ‘रतजगाई’ शीर्षक कविताओं का विकास है। यह शरद के ऐंद्रिय संवेदनों को पकड़ने के साथ उसके ताल, लय, छंद और मनस्प्रभावों को रचने वाली शरद पर लिखी गई सर्वश्रेष्ठ कविताओं में से एक है। ‘बगुला भगत का जनतंत्र’ छोटे-छोटे खंडों में लिखी गई है। इसका हर खंड अपने में स्वायत्त सार्थक व्यंग्य है। ‘मुल्क है या मक़तल’, ‘दिल्ली : चार ऋतुएँ’ आदि कविताओं को इसी कोटि में रखा जाएगा। इनके कुछ अंश बहुत पैने हैं :

क्या नफ़ासत से चाबुक मारते हैं हुक्काम
मज़ा आ रहा है कहते हैं अवाम!

उपरोक्त इन दोनों ही शैलियों को जिस कविता में एक साथ साधने का प्रयास किया गया है, वह इस संग्रह की अंतिम कविता है—‘मेघदूत विषाद’। इसका पूर्वार्द्ध सघन लोकबिम्बों से बनी प्रगीतात्मक संरचना का आभास देता है, लेकिन उत्तरार्द्ध में संवाद, नाटकीयता और सटायर से प्रगीत की संकेंद्रीय वृत्तों वाली संरचना को तोड़ दिया गया है। कविता में संरचनात्मक परिवर्तन अंतर्वस्तु के बदलाव से आया है। अंतर्वस्तु के साथ संरचना और भाषा दोनों में बदलाव आया है। पूर्वार्द्ध की भाषा तात्समिक है, लेकिन उत्तरार्द्ध की भाषा में अरबी-फ़ारसी और देसज शब्द कवि के भाव-बोध को और तीखा बनाते हैं। वह प्रयोग जो छोटी कविताओं में खटक रहा था, वही लंबी कविता में अपनी सार्थक भूमिका ग्रहण कर लेता है। इस सबके बावजूद पूरी संरचना में जो दिक़्क़त है, वह यह है कि कविता दो फाँक नज़र आती है। कविता के दोनों हिस्सों को इस तरह जोड़ा गया है, जैसे टाट और रेशम को एक जगह नाथ दिया गया हो। दरअसल, यह दिक़्क़त कवि-व्यक्तित्व के भीतर है। कवि के शैशव-किशोर मन के अनुभव और उसका वर्तमान संसार उसके अवचेतन में अलग-थलग पड़े हुए हैं, उनके बीच कोई संवाद-विवाद-तनाव पैदा नहीं हुआ है। अगर यह होता तो कविता की संरचना एक जैविक प्रक्रिया का प्रमाण बन जाती।

यहाँ कहना यह है कि आज इतनी लंबी कविताओं को सँभालने के लिए जो पोस्टमॉडर्न सेंसिबिलिटी और तनाव चाहिए वह सुधांशु में नहीं है। दरअसल, सुधांशु तनाव के कवि हैं ही नहीं। अंतिम कविता (मेघदूत विषाद) में इसकी अनुगूँज तो है, लेकिन मामला अभी ढीला है। उनकी संवेदना और अनुभव में अभी कोई दरार नहीं है। सुधांशु फ़िरदौस का भावतंत्र कुछ ऐसा है कि उसमें आकर दुनिया की गति थोड़ी कम हो जाती है, वह तनावरहित होकर सुलझ जाती और सुंदर बिम्बों और सटायरिकल पंक्तियों में ढलने लगती है। इस सबके बावजूद अगर आप अपने गिर्द मौजूद दुनिया के सौंदर्य और उसके जादू में झाँकना चाहते हैं तो यह संग्रह ज़रूर पढ़िए। मेरी समझ से यदि किसी संग्रह में इतनी संख्या में उल्लेखनीय कविताएँ हों तो इसे हिंदी समाज के लिए एक उपलब्धि कहना चाहिए। मेरा पाठक मन कवि को बधाई कह रहा है, लेकिन समीक्षक मन इस अपेक्षा के साथ बधाई दे रहा है कि अगले संग्रह की कविताएँ हमारी खोपड़ी और नशों में मौजूद तनाव को दर्ज करेंगी, जिसका रास्ता इस संग्रह की अंतिम कविता में मौजूद है।

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‘आलम किसू हकीम का बाँधा तिलिस्म है’ मीर की पंक्ति है। आशीष मिश्र हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध सुपरिचित आलोचक हैं। ‘हिन्दवी’ के लिए ‘व्यक्ति-विवेक’ स्तंभ के अंतर्गत वह हिंदी की नई रचनाशीलता और नए कविता-संग्रहों पर विचार करेंगे। सुधांशु फ़िरदौस की कुछ कविताएँ पढ़ने के लिए देखें : सुधांशु फ़िरदौस का रचना-संसार