ख़ुशियों के गुप्तचर की दुनिया

त्रिवेणी सभागार (तानसेन मार्ग, नई दिल्ली) से निकलकर मैं लॉन पार कर रहा था, वह सामने दिख गए : क़द-काठी, डील-डौल हिंदुस्तान के बीस फ़ीसद लोगों वाली—रोमांटिक कवियों जैसे काकपुच्छी बाल, कॉलरिज जैसा ख़त… नेरूदा कैप लगाए वह सफ़ेद पाइन सिगरेट पी रहे थे। मैंने पास पहुँचकर अभिवादन किया तो सिगरेट बढ़ाते हुए उन्होंने मठारी हुई पतली सोइलार आवाज़ में अभिवादन का जवाब दिया। मैंने लक्ष्य किया कि सिगरेट और प्रति-अभिवादन में बड़ा साम्य है। मैंने कस लिया परंतु कलेजे में कुछ उतरा ही नहीं! फिर ज़ोर लगाया, सिगरेट सुलगकर आधी हो गई, लेकिन आत्मा तर नहीं हुई। मुझे हँसी आ गई, मैंने कहा—गीत (चतुर्वेदी) जी! यह सिगरेट भी आपकी कविताओं जैसी ही है; देखने में तन्वंगी-सुंदर, परंतु इतना दम लगाने पर भी कुछ निकला नहीं! गीत जी के साथ अनुराग वत्स थे, वह हँस पड़े। गीत जी भले आदमी हैं, वह भी मुस्कराने लगे। फिर मैं अपने रास्ते लग लिया। कुछ वर्ष पहले दिल्ली में हुई यह मुलाक़ात आज कौंध गई। इसका कारण है, और वह यह कि उनका नया संग्रह मेरे हाथों में है। वैसे कुछ माह पहले रायपुर में मुलाक़ात हुई तो उन्होंने बताया कि वह सिगरेट छोड़ चुके हैं। यह सुनकर मुझे अच्छा लगा। लेकिन उनकी उँगलियों में फँसी पतली पाइन सिगरेट मैं नहीं भूल पाया। मैं इस संग्रह के साथ इसके प्रकाशक अनुराग वत्स को भी याद कर रहा हूँ। वह जितने सहज-व्यवस्थित लगते हैं, संग्रह का संयोजन भी उतना ही सुंदर है। सामान्यतः हिंदी प्रकाशक बेढब किताबें छापने के उस्ताद हैं। वे सौंदर्यबोध के दुश्मन हैं। ऐसा कवर पेज बनाते हैं, जैसे कविता से दुश्मनी निभा रहे हों।

मेरे साथ अजब तरह की दिक़्क़तें हैं। मैं फ़िल्म देख रहा होता हूँ तो कविताएँ याद आती हैं। चित्र देख रहा होऊँ तो संगीत। कविता पढ़ रहा होऊँ तो चित्र याद आते हैं। मैं इसे जल्दी समझ नहीं पाता कि अमुक दृश्य, चित्र या संगीत क्यों याद आ रहा है? इससे बहुत उलझन होती है। अब जैसे देखिए, मैं गीत जी का यह संग्रह पढ़ रहा हूँ तो मेरे दिमाग़ में बार-बार मनजीत बावा के चित्र आ रहे हैं। मुझे याद है कि वर्षों पहले जब मैं ‘राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय’ में मनजीत बावा के चित्र देख रहा था मेरे मन में शेख फ़रीद, बुल्ले शाह, हजरत सुल्तान बाहू की कविताएँ गूँज रही थीं। फ़िलहाल मैं स्वयं को ही समझना चाहता हूँ, आख़िर गीत जी का यह संग्रह पढ़ते हुए मुझे मनजीत बावा क्यों याद आ रहे हैं? शायद मानवीय और मानवेतर सौंदर्य की घुलनशीलता के कारण! शायद अपनी सहज लयात्मक रेखाओं के कारण! या शायद दोनों में एक सूफ़ियाना मिज़ाज की समानता हो! जो भी हो, राम जाने, लेकिन मनजीत बावा याद आ रहे हैं।

कभी मनजीत बावा के चित्रों को ध्यान से देखिए। बावा के संसार में देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, प्रकृति… सब कुछ लगता है अपने सांस्कृतिक द्वैत और बंधन से मुक्त होकर गहन अद्वैत भाव में डूबा हुआ है। यहाँ सब कुछ जागतिक धारणाओं और दुनियावी संघर्षों के पार किसी गहन आनंद में डूबा हुआ लगता है। मनजीत बावा का यही धरातल गीत चतुर्वेदी की आधार-भूमि है। गीत चतुर्वेदी इसी अद्वैत की ज़मीन से अपना मोहक काव्य-संसार रचना चाहते हैं। उनका यह संसार कच्चा, लचीला और लयबद्ध है। अभी यह पक कर कड़ा नहीं हुआ है। अभी इसमें अद्वैत की गंध और उसका आकर्षण मौजूद है। इसलिए रूपाकार विशिष्ट संसार में भी गीत चतुर्वेदी का काव्य-पुरुष एक ऐसी दुनिया चाहता है, जहाँ ‘विशिष्ट वह’ तो हो, लेकिन उसके पहचान की सीमाएँ न हों। जहाँ तस्वीर की जगह ख़ाली बॉक्स को भी उसके चेहरे की तरह पहचान लिया जाए। यह काव्य-पुरुष ठेठ आधुनिक व्यक्तिवादी मनुष्य की तरह पहचान-सजग है, परंतु उसकी सीमाएँ—संघर्ष और जिम्मेदारियाँ नहीं चाहता, फलतः प्रत्यावर्तित होकर अद्वैती धरातल का स्वप्न बुनने लगता है। इस धरातल पर कोई पीली खिड़की इस तरह खुलती है, जैसे फूल की पंखुड़ियाँ खुल रही हों। यहाँ कोई माँ अपनी संतान को इतने ममत्व से देखती है कि दूध की धार से नदियाँ बहने लगती हैं। जो धरती पर बिखरे रक्त के गहरे लाल रंग को प्रेम के हल्के गुलाबी रंग में बदल देता है। इस धरातल पर मूर्त-अमूर्त, उपस्थित-अनुपस्थित, स्मृति-घटमान, कल्पना-यथार्थ, जीव-अजीव, सब एक ही अकूल जलराशि की लहरें हैं। गीत जी जहाँ यह करने में सक्षम हैं, वहाँ पाठक उनकी काव्य-प्रतिभा का कायल हुए बिना नहीं रह सकता। परंतु ऐसा न होने पर मूर्त को अमूर्त, उपस्थित को अनुपस्थित, घटमान को स्मृति और यथार्थ को कल्पना की ज़मीन से देखकर संतोष कर लेते हैं। और जहाँ ऐसा है वहाँ काव्य-संवेदन का पोलापन भी साफ़ दिखाई पड़ता है।

ख़ुशियों के गुप्तचर │ स्रोत : रुख़ पब्लिकेशंस

इस संग्रह का काव्य-पुरुष यह मानता है कि कवि ईश्वर की कमियों और असमर्थताओं को पूरी करता है। वह कहता है कि ‘जिन सुंदरताओं को रचने में ईश्वर असमर्थ होता है उन्हें कवियों के भरोसे छोड़ देता है’। यह दृश्य या भौतिक दुनिया के बरअक्स, मनुष्य की विशिष्ट फ़ितरत, कल्पना की स्थापना है। वह कहता है कि ‘हमेशा यथार्थ में ही मत रहा करो। प्रेम पालने की थोड़ी ज़िम्मेदारी कल्पना पर भी है।’ उसके यहाँ ‘छतरियों को बारिश बुलाने का हुनर है’। ‘उसके सपने की मछलियाँ नींद के बाहर साँस नहीं ले पातीं’। परंतु इसकी लागत बहुत ज़्यादा है; इस नींद और सपने के लिए उसे अपने आस-पास के मूर्त, प्रत्यक्ष, ठोस यथार्थ से ऊपर उठना पड़ता है। तब कहीं इस बेनियाज़ी और बेहोशी में होश का दरवाज़ा खुलता है। जहाँ वह सांसारिक जंजाल से हल्का होकर ऊपर उठता-सा दिखाई पड़ता है। जीवन और ज़मीन के दुर्निवार गुरुत्वाकर्षण से दूर जा रही उसकी यह दुनिया हवा भरे ग़ुब्बारों की तरह धरती छोड़कर स्वायत्त उठती हुई-सी लगती है। यह ठोस है, सघन है, काव्य-पंक्तियों में गज़ब की अंतर्दीप्ति है, परंतु इस काव्य-संसार के अनुषंग कोई ज़ोर नहीं मानते; छिटके-छिटके-से लगते हैं। ये आकारवान होकर भी तरल और निर्भार लगते हैं। ये चीज़ें; पशु, पक्षी, वृक्ष, पहाड़, मनुष्य, जैव-अजैव सब एक-दूसरे के विस्तारित रूप लगते हैं, तथापि एक-दूसरे से कोई तार्किक संबंध नहीं रखते। यहीं, इसी ज़मीन से, गीत जी के काव्य-संसार में एक संकट खड़ा होता है; सुंदर अनुभवों, अंतर्दृष्टियों, बिम्बों और सूक्तियों में आतंरिक अन्विति की क्षीणता का संकट।

कविता का काम दुनिया के नानात्व में सामरस्य दिखाने भर से नहीं चलता, उसे कारणों, घटनाओं और निष्पत्तियों में संबद्धता खोजनी होती है। निश्चय ही यह सृष्टि अखंड और समरस है, लेकिन मानवीय संसार संबद्धता से बनता है। अमूर्त सामरस्य आत्मगतता के क्षेत्र की चीज़ है। जबकि संबद्धता व्यक्ति की आत्मपरकता और वस्तुगत यथार्थ के बीच द्वंद्व से पैदा होती है। आत्मपरकता और दुनिया के बीच लगातार अंतर्क्रिया से ठोस संबद्धता क्रमशः अतींद्रिय सामरस्य से अलग होती जाती है। इसी प्रक्रिया में दृष्टि और विशिष्ट व्यक्तित्व का विकास होता है। कई बार प्रतिबद्ध लेखकों के लिए यह दृष्टि-संबद्धता पूर्व-निश्चित-सी होती है। अतः साफ़ समझने की ज़रूरत है कि यह न तो रेडीमेड उपलब्ध है, न ही कुशल और चतुर रचना युक्तियों से संभव है। दृष्टि-संबद्धता जीवन और समाज में चल रही ऐतिहासिक शक्तियों की गतिकी और उनकी टकराहटों के विश्लेषण से बनती है। इसलिए हर रचनाकार दृष्टि-संबद्धता को अपनी तरह से परिभाषित करता है। इसी संबद्धता से रचना में संवेदनात्मक, संवेगात्मक, वैचारिक और भाषिक अन्विति पैदा होती है। जीवन में जो दृष्टि-संबद्धता है, रचना में वही अन्विति कहलाती है। मनोचिकित्सा-शास्त्र कहता है कि यदि हमारे मनो-संसार में अन्विति न हो तो यह विशृंखलित होकर निष्प्रयोज्य हो जाएगा। इसी तरह अन्विति के अभाव में कविता बिम्बों और सूक्तियों का संग्रह बनकर निष्प्रभावी हो जाएगी। गीत जी की इधर की कविताओं में अन्विति की क्षीणता का यह संकट बढ़ा है। आप ध्यान दें तो पाएँगे कि गीत जी की सूक्तियाँ ख़ूब चर्चित हैं। लोग कविता से दो-चार पंक्तियों की कोई सूक्ति या बिम्ब उद्धृत करते हैं, कोई उनकी मुकम्मल कविता उद्धृत नहीं करता। इसका कारण यह है कि गीत जी के पास मुकम्मल कविताएँ दुर्लभ होती जा रही हैं। एलियट की भाषा में इसका सरलीकरण करके कह सकते हैं कि गीत चतुर्वेदी की कविताओं में ‘वस्तुनिष्ठ सह-संबंध’ ढीला पड़ रहा है।

सुंदर बिम्बों और सूक्तियों की भूमिका निश्चय ही कविता में उल्लेखनीय है, लेकिन अन्विति और सह-संबंध के अभाव में ये कविता नहीं बन सकतीं। इलियट जिसे वस्तुनिष्ठ सह-संबंध कहकर रचना के बाह्य संरचनागत प्रश्नों से जोड़ते हैं, उस पर इलियट से हज़ारों वर्ष पहले पैदा हुए भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में ज्यादा गहन चिंतन किया था। उनके चिंतन से यह समझदारी बनती है कि अन्विति या सह-संबंध काव्य का बाह्य संरचनागत विषय नहीं है, बल्कि यह काव्य के जीवद्रव्य और प्रकारांतर से कवि-व्यक्तित्त्व से जुड़ा हुआ विषय है। अगर कवि-व्यक्तित्व में अन्विति नहीं है तो कविता में अन्विति असंभव है। आज कवि-व्यक्तित्व पर यह संकट ज़्यादा गहरा है। यह संकट सिर्फ़ कवि गीत चतुर्वेदी की कविताओं के साथ नहीं है, यह आज कवि मात्र का संकट बन रहा है। उत्तर-आधुनिक का सबसे ज़बर हमला व्यक्तित्व की इस ‘इंटेग्रिटी’ पर ही हुआ है। यह विचार, इतिहास, तर्कशीलता और जन-पक्षधर संकल्पों को दमनात्मक बताकर मनुष्यता के ख़ित्ते से हँकाल देने पर आमादा है। इसने मनुष्य की वैचारिकता और ऐतिहासिकता छीनकर उसे क्षणिक भावुक उत्तेजना में झोंक दिया है। इसने मनुष्य को इतिहास, विचारधारा और भविष्य के संकल्पों से काटकर हल्का और स्वायत्त कर दिया है। इसलिए इस भावबोध से जो कविताएँ पैदा हो रही हैं, वे न तो हमारे दिमाग़ को झकझोर पाती हैं, न कुंद होती जा रही संवेदना को प्रदीप्त कर पाती हैं और न ही शैलीगत मुकम्मल सुगढ़ता से मोह पाती हैं। वे ज़्यादा से ज़्यादा सूक्ति और बिम्ब बनकर धन्य हुई जा रही हैं।

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आशीष मिश्र हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध सुपरिचित आलोचक हैं। ‘हिन्दवी’ के लिए ‘व्यक्ति-विवेक’ स्तंभ के अंतर्गत वह हिंदी की नई रचनाशीलता और नए कविता-संग्रहों पर लिख रहे हैं। गीत चतुर्वेदी की कुछ कविताएँ पढ़ने के लिए देखें : गीत चतुर्वेदी का रचना-संसार