उदासी जिनकी मातृभाषा है

उसने ऐसे समेटा था अपने मन में मेरा प्रेम
जैसे वृंत से गिर जाने से पहले अंतिम दफ़ा जवा कुसुम
अपनी पंखुड़ियाँ समेटता है।

सारे फूल अपने वृंत से एक ही तरह अलग नहीं होते। हरसिंगार शाम को खिलता है और भोर की शीतल मंद बयार में झड़ता है। कनेर की टहनियाँ अपने फूलों को छोड़ना नहीं चाहतीं, पवन द्वारा बलात् हिलाए जाने पर छोड़ती हैं और हर फूल के लिए दुद्धा आँसू टपकाती हैं। गुलदुपहरिया सूरज के तमतमाते मुखमंडल को देखने के लिए मध्याह्न में जागता है और असह्य वियोग में टपक पड़ता है। कई फूल डालियों पर सड़कर गिरते हैं। जीवन का यह चीमड़ लोभ वितृष्णा पैदा करती है। कुछ फूल पहले अपने रंग, रूप, सौरभ का दान करते हैं, फिर ओस, पवन,तितलियों, मधु मक्खियों, फुलचुस्की पंखियों की स्मृतियाँ लेकर संजीदगी से अपनी पंखुरियाँ समेटते हैं और धीरे से अनंत शून्य में चू पड़ते हैं। ऐसा ही फूल है—जवा कुसुम/गुड़हल। प्रेम हृदय का राग-महोत्सव है, जहाँ हृदय अपना राग-रंग-सौरभ लुटाकर गुड़हल की तरह दुर्वह विछोह के लिए प्रेम की स्मृतियाँ समेटता है। यह उदास परंतु उदात्त बिम्ब है। सबसे उल्लेखनीय है कवि द्वारा गुड़हल के खिलने और झड़ने का सूक्ष्म अवलोकन। कवि अपने अवलोकन से बहुवर्णी संसार के अछूते सौंदर्य को मनुष्य के सामूहिक संज्ञान में जोड़ता चलता है। मनुष्य सामान्यतः उपयोगी चीज़ों को ही याद रखता है। तथापि प्रकृति ने उसे सौंदर्य-प्रेमी भी बनाया है, इसलिए किसी चीज़ का सौंदर्यबोध होने पर वह सुंदर अनुपयोगी चीज़ों को भी याद कर लेता है। इस काव्यांश में गुड़हल के उपमान का बिम्ब-विधायक प्रयोग तो हुआ ही, साथ ही प्रकृति की नगण्य-सी घटना अपने सौंदर्य-उद्घाटन से हमारे अनुभव-संसार में शामिल हो गई। क्या पता इन पंक्तियों के पाठक अगली बार स्वयमेव फूलों के गिरने पर ध्यान दें।

आप जानते होंगे कि रोशनी हमेशा सरल-सीधी रेखा में चलती है, उस पर सिलवटें नहीं पड़ सकतीं, परंतु क्या आपने ध्यान से कभी लहरीले जल पर रोशनी को पड़ते देखा है? जल की जल की लहरियाँ रोशनी पर सिलवटें डालती हैं, उनके गोटे काढ़ती हैं, उनकी चुन्नटें बनाती हैं। रोशनी के बारे में सामान्य वैज्ञानिक तथ्य आप जानते होंगे, लेकिन उसका यह सौंदर्य पहली बार देखेंगे—

चकाचौंध से डरी मैं तुम्हें हर जगह ढूँढ़ रही हूँ
मन जानता है सिर्फ़ हिलोरें लेता पानी ही पैदा कर सकता है
चमचमाती रौशनी में सिलवटें।

कविताओं का सौंदर्यात्मक उद्भास दुनिया से हमारे नए संबंध-संयोजन को जन्म देता चलता है। अवलोकन बाह्य जगत के साथ अपनी अनुभूतियों और वृत्तियों का भी होता है। बाह्य जगत का अवलोकन फिर भी आसान है, आत्मावलोकन सबसे कठिन है। हम अपनी इच्छाओं की पूर्ति में ही इच्छाओं की सार्थकता समझते हैं। हमारे लिए अपूर्ण इच्छाएँ या अप्राप्य कामनाएँ सारहीन और निरर्थक हैं। परंतु आत्मावलोकन से पता पता चलता है कि हर इच्छा, चाहे वह पूर्ण हो या अपूर्ण, हमारे आत्मवृत्त को बड़ा करती है। इच्छाएँ प्राप्य हों या अप्राप्य मनुष्य की कल्पनाशीलता को उर्वर बनाती हैं। किशोर वय की इच्छाएँ ज़्यादा हरी-भरी और चंचल होती हैं। परंतु उनमें अपेक्षित टिकाऊपन नहीं होता कि वे पूर्णकाम हो सकें। तथापि अकाल झरीं किशोर इच्छाएँ भी हमारे मनोरथ को बलवान, वेगवान और गहन बनाती हैं।

इच्छाओं की जो हरी पत्तियाँ असमय झरीं
वे गलीं मन के भीतर, अपनी ही जड़ों के पास
खाद पाकर अबकी जो इच्छाएँ फलीं
वे अधिक घनेरी थीं, उनकी बाढ़ भी
गुज़िश्ता इच्छाओं से अधिक चीमड़ थी।

इच्छाएँ चाहें पूर्ण हों या अपूर्ण, वे सार्थक होती हैं। हमारी अपूर्ण इच्छाएँ भी मन के भीतर जहाँ गिरती हैं, उसे गहरा करती जाती हैं। मनोविद् कहेगा कि इच्छाओं का दमन कुंठाएँ पैदा करता है। लेकिन हिंदी की युवा कवयित्री कह रही है कि असमय झरी इच्छाएँ मन के लिए उर्वरक का काम करती हैं। यह किसी मनोविद् का पर्यवेक्षण नहीं है, एक युवा रचनाकार का आत्मावलोकन है, जो आपको अपनी हर इच्छा के बारे में सहज और सकारात्मक दृष्टि दे रहा है। यह आत्मावलोकन घुलकर सदुक्तियों में ढलने लगता है। ये सदुक्तियाँ पाठकों को किसी दोहे, श्लोक और अशआर की तरह याद हो जाती हैं।

उदासी मेरी मातृभाषा है │ स्रोत : वाणी प्रकाशन

पिछले दशकों में साहित्य में इतिहासबोध की बहस थम-सी गई है। इतिहासबोध को धकियाकर अब स्मृति ने माइक थाम लिया है। भोपाल से दिल्ली तक ख़ूब सभा-संगोष्ठियाँ हो रही हैं। यों तो लवली गोस्वामी भी इतिहासबोध के बजाय स्मृति पर ही बल देती हैं, और इस मामले में दिल्ली-भोपाल लाइन पर पड़ती हैं, लेकिन उनकी विरल अंतर्दृष्टि स्मृति को इतिहास-विरोधी चीज़ बनने से बचा लेती है। अगर कोई चाहे तो स्मृतियों के बहुविधि कार्यभार को समझने के लिए भी इस संग्रह को पढ़ सकता है। हमारा प्रेम सिर्फ़ कामनाओं से संभव नहीं होता, उसमें स्मृतियाँ भी हमारी मदद करती हैं। आप अपने प्रेमास्पद को छूते हैं तो शिशुकाल में माँ का स्पर्श, पंछी और गदबदे पशु शावकों को सहलाने की स्मृतियाँ आपकी मदद करती हैं। आप उसकी आँखों में देखते हैं तो झीने अँधेरे के पार अतीत में टिमटिमाती रोशनी आपका संबल बन जाती है। आप जब पहली बार प्रेम में उतरते हैं तो अछोर कुहरे में विविध दिशाओं से आतीं अनेक प्रकार की आवाज़ों और उस सफ़ेद अँधेरे में अपने पैरों को देखते हुए चलने की स्मृतियाँ आपकी कल्पना में शामिल हो जाती हैं। सुनसान जगह से गुज़रने का ख़ौफ़, बिच्छू के तने हुए डंक की बैचनी और कभी भी पलट कर डस लेने वाले साँपों की ‘हॉरर’ स्मृतियाँ, आपकी सबसे कोमल अनुभूति में शामिल हो जाती हैं। स्मृतियों की कई तहें और पहलू होते हैं। स्मृतियाँ आपके प्रेम के लिए, अपने पहलू और तहों को बदलती रहती हैं।

पौधे धूप देखकर अपनी शाखाओं की दिशा तय कर लेते हैं
प्रेम के समर्थन के लिए सुदूर अतीत में कहीं स्मृतियाँ
अपनी तहों में वाज़िब हेर-फेर कर लेती हैं।

स्मृतियाँ वाज़िब हेर-फेर ही करती हैं, क्योंकि प्रेम के क्षण में ग़ैर-वाज़िब स्मृतियाँ प्रेम के जादू को नष्ट कर देंगी। यहाँ स्मृतियों की गतिकी को रूपायित करने के लिए पौधों की प्रकाश-उन्मुखता का सटीक और सक्षम प्रयोग हुआ है। हमारी कामनाएँ हमारी स्मृतियों में रँगी हुई होती हैं। अगर स्मृतियाँ न हों तो काम्य चीज़ों का अभाव भी नहीं होगा। इस बात को लवली बहुत दुर्लभ सहजता से कह देती हैं—‘वांछित का अभाव सारांश है स्मृतियों की किताब का। तमाम स्मृतियाँ विदा के एक अकेले शब्द की वसीयत हैं।’ ‘विदा’ न हो तो स्मृतियाँ भी नहीं होंगी। लवली को प्रेम से ज़्यादा उसकी स्मृतियों से प्रेम है, बल्कि वे तो प्रेम करने को भी स्मृतियाँ बनाने का तरीक़ा मानती हैं। ऐसी कितनी ही सदुक्तियों की चर्चा मैं विस्तार-भय से छोड़ रहा हूँ।

यह लवली गोस्वामी का पहला संकलन है। कोई इसे प्रेम-कविताओं का संकलन कहना चाहे तो कह सकता है, स्वयं लवली भी यही कहती हैं, परंतु मैं इसे प्रेम के रूपक में अंतर्वाही अनुभूतियों का संकलन कहूँगा। इस संकलन में मैं, तुम, प्रेम, इच्छा, दुख, उदासी, अनुपस्थिति, स्मृति आदि शब्दों की बारंबारता है। ये आठ-दस शब्द इस संकलन का भाव-संसार रचते हैं। इन्हें खींचते ही पूरा संकलन भरभराकर ढह सकता है। इसमें भी ‘मैं—तुम—स्मृति’ का त्रिकोण ही इसकी काव्य-संवेदनात्मक गतिकी को तय कर रहा है। मेरे देखे इस संकलन में हम, वे और इतिहास शब्द का प्रयोग ही नहीं हुआ है। इससे लवली गोस्वामी के भावबोध के स्वरूप और परिधि का पता चलता हैं। वह अपनी निजी अनुभूतियों को सामाजिक अनुभूतियों के संदर्भ में देखने से पहले ही सूक्तियों में बदलने लगती हैं। वह अपने दुखों को मिटाने का कोई सहकारी रास्ता नहीं खोजतीं, बल्कि दुखों को ही जस्टीफ़ाई करने लगती हैं। ऐसा करने से सूक्तिपरकता चाहे जितनी आती हो, लेकिन कविता का संवेदनात्मक प्रभाव क्षीण हो जाता है। यहाँ अनावश्यक ही है, लेकिन कह दूँ, जब तक कवि अपनी निजी पीड़ा को व्यापक मानवीय पीड़ा से अर्थपूर्ण नहीं बनाता, तब तक लाख कौशल के बावजूद कविताएँ प्रभावहीन लगती हैं।

आप अगर प्रगीत-शैली की कविताओं की काव्य-संवेदना पर ध्यान दें तो ‘मैं—तुम—स्मृति’ का उक्त त्रिकोण सबसे साफ़ दिखाई पड़ेगा। प्रगीत का ‘मैं’ या कवि का ‘सेल्फ़’ समाज-निरपेक्ष, लेकिन ठोस लगता है। लवली का सेल्फ़ समाज-निरपेक्ष तो लगता है, लेकिन विखंडित और विकल है। इससे दो चीज़ें एक साथ हुई हैं। पहला तो यह कि प्रगीतों के सेल्फ़ में जो भावावेग था, वह लवली के विखंडित सेल्फ़ में संभव नहीं है। दूसरी तरफ़ इस विखंडित सेल्फ़ के पास अपने को समझने की व्यवस्थित वैचारिकी का अभाव है। इस सेल्फ़ ने उन सारे नक़्शों फाड़ दिया जो इसे इसका पता देते कि वह कहाँ है। शायद इसीलिए ‘मैं’ के मनोरथ में न तो वह तीव्र भावावेग है, जो उसकी स्मृतियों, कल्पनाओं और अंतर्दृष्टियों में संसक्ति पैदा करे, न वैचारिक अन्विति। फलतः इसकी काव्य-संवेदना विलग बिम्बों और सूक्तियों में फैलने लगती है। लवली इसे सुसंगत क्रम देने का प्रयास करती दिखाई पड़ती हैं, लेकिन उन्हें समझना होगा कि यह किसी कौशल से सधने वाली चीज़ नहीं है। यह उनकी जीवन-दृष्टि का संकट है। जो संकट उनकी जिंदगी में है, वही कविता में है। यह आत्म और जगत की अंतर्संबद्धता की खोज से ही संभव होगा। परंतु इस संकलन की कविताओं में ऐसी कोई बेचैनी दिखाई नहीं पड़ती।

प्रगीतों में एक केंद्रीय मनोभाव को व्यक्त करने के लिए बिंब पर बिंब लादे जाते हैं। इन कविताओं में केंद्रीय मनोभाव को संप्रेषित करने के लिए उदाहरण पर उदाहरण और अन्योक्तियों की तहदारी की गई है। जोध्यान तो खींचते हैं, लेकिन संवेदनात्मक प्रभाव को बाधित ही करते हैं। फलतः कुछ चमकदार बिंब और पंक्तियाँ तो हाथ लग जाती हैं, मुकम्मल संवेदनात्मक प्रभाव नहीं पैदा करतीं। यह संकट सिर्फ़ लवली गोस्वामी का नहीं है, यह सार्वजनीन परिघटना है। उत्तर आधुनिकता ने मनुष्य की संवेदनात्मक और वैचारिक अन्विति की रीढ़ तोड़कर उसे व्यक्तित्वहीन छलिया बना दिया है। पिछले दिनों आईं धारावाहिक और फ़िल्मों पर आप ग़ौर करें तो मिलेगा कि उनमें ‘वन लाइनर’ चमकदार संवादों पर अतिरिक्त ज़ोर है। जो दर्शक को याद रह जाएँगे और वह उन्हें कहीं भी चिपका सकता है। सटायर और उद्धरणीयता इसका गुण हो सकता है, लेकिन मूल बात तो यह है कि संवाद चरित्रों की आंतरिकता को कैसे रचते हैं, घटनाओं को कैसे प्रभावित करते हैं और फ़िल्म के प्रभाव को कैसे बढ़ाते हैं। ये संवाद अपनी चमक के लिए फ़िल्म की सारी संवेदनात्मक ऊर्जा को सोख लेते हैं। इसी को उलट कर कह लीजिए, संवेदनात्मक वैचारिक ऊर्जा की शून्यता को भरने के लिए चमकदार संवाद सजाए जाते हैं। और कला-माध्यमों के साथ हिंदी कविता को देखें तो यह परिघटना और साफ़ दीख पड़ेगी। कविता में इसका सबसे साफ़ प्रभाव लंबी कविताओं पर दिखाई पड़ता है। छोटी कविताएँ फिर भी किसी तरह बाँध ली जाती हैं। लंबी कविताएँ तो घूरे के लत्तों से सिला हुआ कनात लगती हैं। इस संकलन में भी चार-पाँच जो अपेक्षाकृत लंबी कविताएँ हैं, वे इसी कोटि की हैं।

हिंदी के मध्यवर्गी परिवृत्त की कविताओं में उदासी की अनुभूति तेज़ी से बढ़ रही है। पिछली पीढ़ी के कवियों का यह प्रधान अनुभव नहीं है। इसका मतलब है कि जीवन-स्थितियों और आकांक्षाओं में कोई बड़ा परिवर्तन हो रहा है। हिंदी कविता इसी परिवर्तन का संकेत दे रही है। यह व्यक्तिगत प्रतिक्रिया भर नहीं है, बल्कि सार्वजनीन परिघटना है। उत्पादन पद्धति से ज़्यादा तेज़ी से उपभोग की पद्धतियाँ बदल रही हैं : ‘सपने हिरन हो गए हैं और जीवन थाह-थाह कर क़दम रखता हाथी।’ जितनी तेज़ी से व्यक्ति-चेतना पर डिजिटल दुनिया का हमला बढ़ा है, उतनी ही तेज़ी से व्यक्ति अपने अहं में जबदता गया है। वह अपने मनोभावों को व्यक्तिगत प्रतिक्रिया भर समझता है और उसके सार्वजनीन सूत्रों से मुँह मोड़े रहता है। इन सूत्रों को समझने और बदलने की कोशिश के बजाय इसे अपनी नियति मान लेता है। इस संग्रह की दूसरी ही कविता है—‘तक़दीर जिसे कहिए’ :

रेल का काम चलना है
यह तो रेल को पता है लेकिन,
पटरियाँ हैं कि रेल से पूछे बग़ैर
रेल का रास्ता बदल देती हैं।

संसारप्रसिद्ध आलोचक आई. ए. रिचर्ड्स ने बताया कि रूपक हमारे विचारों की संरचना हैं। व्यक्ति और तक़दीर के लिए रेल और पटरियों के इस रूपक से रचनाकार का जीवन-दर्शन आसानी से समझा जा सकता है। क्या यह बताने की ज़रूरत है कि ये पटरियाँ ही हमारे समय-समाज की सत्ता-संरचना हैं! क्या इसे विश्लेषित करने की कोई अवश्यकता है कि यह बदली जा सकने वाली स्थितियाँ और परिघटनाएँ हैं। क्या यह बताऊँ कि ये परिस्थितियाँ हमारी तक़दीर नहीं हो सकतीं, हमारा साहस और परिवर्तन की आकांक्षा ही हमारी नियति तय करेगी। लेकिन व्यक्ति मन का कायर अहंभाव न अपने मन और मनोदशाओं के कारणभूत संरचनात्मक संदर्भों को समझता है, न इसे बदलने की कोशिश करता है। लवली गोस्वामी के इस संकलन में उदासी और अवसाद बहुप्रयुक्त शब्द है; संकलन का नाम ही है—‘उदासी मेरी मातृभाषा है’। परंतु बिना किसी उद्घोषणा के जैसा लिरिकल प्रभाव शैलजा पाठक की कविताएँ करती हैं और जैसी बेचैनी रश्मि भारद्वाज में है, वह इन कविताओं में नहीं है। ऐसा लगता है कि उदासी और अवसाद कविता में अपनी विकलता और तड़प छोड़कर चमकदार पंक्तियाँ बनकर धन्य हैं। सिर्फ़ ‘चोर देवता’ शीर्षक एक कविता में यह विकलता है। कारण कि इसमें कवि का दुख सार्वजनीन पीड़ा से जुड़ता है।

‘राग उदासी’ वाली ये कविताएँ बुद्धिगम्य चीज़ों का भी रहस्यकरण करती हैं। उनका यह रहस्यकरण अपने अहं भाव की निष्फल सुरक्षात्मक कोशिश भर होती है। ऐसा लगता है कि वह उस मनोभाव से निकलना ही नहीं चाहता प्रत्युत अपने ही ख़ून का स्वाद ले रहा है। यों ही नहीं यह संग्रह तार्किकता और बौद्धिकता के उपहास से शुरू होता है :

एक दिन मुझे एक अदम्य जिज्ञासु
तार्किक आदमी मिला,
वह हर बीज को फोड़कर देख रहा था
कि उसके अंदर क्या है
मैं उसे अंत तक समझा नहीं पाई
कि बीज के अंदर पेड़ होते हैं।

कई बार जो बात अपने दिमाग़ की उपज लगती है, वह हवा में तैरता सामान्य मुहावरा भर होती है। जैसे इस बीज और वृक्ष वाले उदाहरण को ही लीजिए। यह भारतीय दर्शन में ‘पोटेन्शियलिटी’ (क्षमता, शक्यता) को समझाने का सामान्य उदाहरण है। इसी तरह बुद्धि-विरोधी रूमान भी नया नहीं है। हाँ, यह ज़रूर है कि भारतीय-साहित्य-चिंतन में इसे कभी आदर नहीं मिला, क्योंकि भारतीय-साहित्य-चिंतन में तर्क और कवीत्व में कभी विरोध नहीं माना गया। हमारे आचार्यों ने कहा—‘तर्केषु कर्कशधियो वयमेव नान्ये, काव्येषु कोमलधियो वयमेव नान्ये।’ तर्क में कर्कश बुद्धि वाले भी हम ही हैं, कोई और नहीं। काव्य में कोमल बुद्धि वाले भी हम ही हैं, कोई और नहीं। कई बार बड़े धक्कामार ढंग से भी कहा गया—‘विद्वत्कवयः कवयःकेवलवयस्तु केवलं कपयः।’ केवल विद्वान कवि ही कवि है, बाक़ी सब कपि हैं! यह सिर्फ़ उनके अमर्ष को ही नहीं, उनके पक्ष को भी बताता है। इसलिए, जो कुछ दिमाग़ में चल रहा है, ज़रूरी नहीं है कि वह नया हो और न ही यह ज़रूरी है कि वह सही ही हो। जीवन में विवेक-विरोध साहित्य में आलोचना-विरोध बन जाता है। साहित्य में रचना के विश्लेषण और आस्वादन में विरोध नहीं, बल्कि अन्योन्याश्रित संबंध है। इस संग्रह की पहली और दूसरी कविता आप देख आए हैं, अब तीसरी भी देख लीजिए :

दुखों के कितने ही घाव जब एक साथ टीसते हैं
तब आँखों में अंजुरी भर खारा पानी बहता है
ढाई गज रेशम की चूनर कई इल्लियों की
जीवन भर की मेहनत का नतीजा है
फूलों की एक बड़ी माला में
पूरे बग़ीचे का वसंत क़ैद होता है
इसलिए किसी कवि से कभी यह मत पूछना
कि वह फिर से प्रेम कविता कब लिखेगा
प्रेम की एक कविता ताल्लुक़ के
कई सालों का दस्तावेज़ है।

यह कविता का एक लोकप्रिय प्रारूप है। इसमें विशिष्ट तथ्यों को जोड़ते हुए निगमनात्मक ढंग से एक सामान्य निष्कर्ष पर पहुँचते हुए दिखाया जाता है। ऐसी कविताओं को दो पंक्ति में ख़त्म किया जा सकता है और दो सौ पंक्तियों तक भी बढ़ाया जा सकता है। इन विशिष्ट तथ्यों का संबंध काव्य-संवेदना की ज़रूरतों से ज़्यादा पाठक पर प्रभाव पैदा करने की चाहत से होता है। इस संकलन में इस प्रारूप की कई कविताएँ हैं। उक्त उद्धृत कविता के पहले बंद में ‘अंजुरी भर आँसू’ का प्रयोग उसी चाहत का परिणाम है। आँसू के मूल्य का उसके परिमाण से कोई लेना-देना नहीं है। बल्कि आँसू के संदर्भ में उहात्मकता उसे हास्योत्पादक बना देता है। इसी बात को केदारनाथ सिंह इस तरह पूछते हैं :

“कितनी लाख चीख़ों
कितने करोड़ विलापों-चीत्कारों के बाद
किसी आँख से टपकी
एक बूँद को नाम मिला—
आँसू

कौन बताएगा
बूँद से आँसू
कितना भारी है।”

आँसू का भारीपन एक अंजुरी या लीटर भर होने में नहीं, उसके पीछे की व्यथा में है। पाठक स्वयं तय करें कि लवली गोस्वामी का एक अंजुरी आँसू ज़्यादा कलात्मक है या केदारनाथ सिंह का एक बूँद आँसू। दूसरे बंद में ‘ढाई आखर प्रेम’ के लिए ढाई गज़ रेशम का प्रयोग सार्थक है। परंतु माला में वसंत का क़ैद होना असंगत जान पड़ता है। इस कविता की समेकित संवेदना में प्रेम दुष्कर, लेकिन करणीय है। क़ैद दुष्कर नहीं, बल्कि अकरणीय और अमानवीय है। हर भाषा की सौंदर्यबोध की एक परंपरा होती है। पाठक उसी परंपरा में कविता का भाव ग्रहण करता है। फ़ारसी कविता में जो क़ैद, ख़ंजर, ख़ून वाला उपमान सहज व्यंजक लगता है,वही हिंदी में ‘एब्सर्ड’ लगेगा। आपको जिगर मुरादाबादी का लोकप्रिय शे’र याद होगा—‘ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे / इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।’ लवली की यह कविता इसी ज़मीन की कविता है। पूरी कविता इसी का पल्लवन है। लेकिन जो ‘आग का दरिया’ इस शे’र में इतना व्यंजक लगता है, अगर लवली की कविता में चला आता तो उहात्मक जान पड़ता। अंतिम बंद में आँसू, रेशम, फूलों की माला के बाद प्रेम-कविता को ‘दस्तावेज़’ कहना कविता के रहे-सहे कलात्मक प्रभाव को भी भोथरा कर देता है। इस पूरे संग्रह में लवली गोस्वामी जहाँ भी दूर की कौड़ी लाने का प्रयास करती हैं, वहाँ ऐसी दुर्घटनाएँ हुई हैं। परंतु जहाँ अपने भोगे संसार से कविता करती हैं, वहाँ अपनी काव्य-प्रतिभा से प्रभावित करती हैं। ‘कविता की असंख्य परिभाषाएँ हैं’ शीर्षक अंतिम कविता ऐसी ही कविता है। इसमें प्रेम और मातृत्व के बिम्ब पाठक के मन में कोमल-मृदुल प्रभाव पैदा करते हैं।

इस संकलन में स्त्री-मन की गहराई तो है, लेकिन स्त्री का संसार नहीं है। लिहाज़ा अनुभूतियों का काव्यांतरण किसी और संसार में होता है। यहीं से सब दिक़्क़त खड़ी होती है। हिंदी कविता में महादेवी वर्मा ने बताया कि स्त्री की अनुभूतियाँ उसके अपने संसार से ही रंग और आकार लेंगी। उन्होने हिंदी कविता को स्त्री-जीवन के शब्दों और उपमानों से भर दिया। उन्होंने स्त्री की विशिष्ट अनुभूतियों और उनके काव्यांतरण के बीच के अंतराल को भरने का तरीक़ा सुझाया। बाद में अनामिका ने इसका सबसे सफल उपयोग किया। स्त्री कविता इन प्रयोगों से बहुत कुछ सीख सकती है। इस संग्रह में ‘नींद के बारे में’ एक अच्छी कविता है। पहला बंद देखिए :

मैं उसके साथ सोती थी
जैसे दरारों में देह को दरार का ही आकार दिए जोंक सोती है
संकीर्ण दुछत्तियों में थककर चंचल बिल्लियाँ सोती हैं।

कवि का अवलोकन सटीक है। हम किसी के साथ सोते हुए हम उसके देह के अनुकूल अपनी देह को ढाल लेते हैं, लेकिन इसके लिए जोंक का उपमान औचित्यपूर्ण नहीं है। पहला तो इसलिए कि जोंक का दरार में सोना लोक-ज्ञान-संगत नहीं है। दूसरा, जनमानस में जोंक कुटिल, शोषक और जुगुप्साजनक है, अतः स्त्री को जोंक से रूपायित करना न्यायोचित नहीं कहा जाएगा। ‘सुंदरताओं की भी अपनी राजनीति होती है’— यह इसी संग्रह का वाक्य है। लवली ने मातृसत्ता और यौनिकता पर शोधकार्य किया है। सौंदर्य की राजनीति की सूक्ष्म समझदारी उनसे अपेक्षित ही है। उनके कथनों में यह समझदारी दिखाई भी पड़ती है, लेकिन भाषा की लैंगिक राजनीति समझने में वह बड़ी चूकें करती हैं। ‘आलाप’ शीर्षक कविता में कहती हैं कि “उपजाऊ होते हैं दुख और सुख अधिकतर बाँझ होते हैं।” यहाँ उपजाऊ के साथ ‘बाँझ’ के प्रयोग में सुंदरता की कैसी स्त्री-द्रोही राजनीति है, यह समझाने की आवश्यकता है? अगली पंक्ति में दुछत्ती के लिए ‘संकीर्ण’ विशेषण का प्रयोग हुआ है। यहाँ ‘सँकरी दुछत्तियों’ का प्रयोग ज़्यादा व्यंजक होता। कारण कि ‘संकीर्ण’ का प्रयोग विचार और मानसिकता के साथ ही रूढ़ है। संग्रह की शुरुआती कविताओं में से एक कविता है—उसका मन। यह सामूहिक लोक स्मृतियों से बना ख़ूबसूरत मौलिक बिम्ब है। इस तरह के बिम्ब हिंदी कविता में दुर्लभ होते गए हैं। परंतु इस पीढ़ी में ज्योति शोभा, अम्बर पांडेय जैसे कुछ क्षमतावान कवि इस दिशा में संतोषजनक प्रयोग कर रहे हैं।

हरे बाँस की बाँसुरी से नवयौवना दुर्गा
आश्विन की हवा के सुर फूँकती थी
तब सफ़ेद फूली कांसी के कुंज उसकी हँसी में लहलहाते थे।

इस बिम्ब को पढ़ते ही क्वार की प्राकृतिक-सांस्कृतिक स्मृतियाँ मन में कौंध जाती हैं। इस तरह के जीवंत बिम्बों को सेक्युलरिज़्म की मूलहीन समझ ने झाड़-पोंछकर कविता को स्मृतिहीन बना दिया। लेकिन नए कवि इसे अपनी तरह से समृद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं। तथापि लवली गोस्वामी जो ग़लतियाँ अपनी तमाम अच्छी कविताओं में करती हैं, वे यहाँ भी है। कांसी के झुरमुट होते हैं, कांसी के कुंज नहीं हुआ करते। कुंज एक वानस्पतिक वितान होता है जो कांसी में संभव नहीं है। पेड़ों से भी नहीं संभव है। ‘नदियाँ : एक’ शीर्षक कविता में ‘सघन पेड़ों से बने कुंज’ लिखती हैं। यह जानना चाहिए कि कुंज घास और पेड़ों से नहीं, झाड़ियों से बनता है। इसी तरह बाँसुरी, हवा व सुर के साथ लहलहाना नहीं लहराना शब्द का प्रयोग होना चाहिए, लहलहाना का प्रयोग रंग और चमक के लिए होता है। ‘जंगल’ कविता में इसका समुचित प्रयोग हुआ है। ऊपर उद्धृत कविता की अगली पंक्तियों में ‘स्याह राख’, ‘पीली सरसों’ आदि का प्रयोग किया गया है। यह विशेषण प्रेम के अतिरिक्त कुछ नहीं है, क्योंकि राख स्याह ही होती है और सरसों के फूल पीले। इससे अलगी कविता का शीर्षक है—प्रेम के शिल्प में नहीं। इसका पहला बंद देख लीजिए :

उस रोज ‘मेरे पिया गए रंगून’ सुनाते हुए तुम हँस पड़े थे
मुझे लगा धूल के उथले कुएँ में लोटपोट होती
ख़ुद के पंखों से झगड़ती गौरैया यकायक
पंख झाड़कर कई सारी कविताएँ टपका गई।

लोक में गौरैया का धूल में नहाना बारिश की पूर्व सूचना है। लेकिन चिड़ियों के नहाने से बने घुच्ची और गड़वा को उथला कुआँ कहना सारे लोकज्ञान और शब्द संपदा की पोल खोल जाता है। कविता में लोक-ज्ञान और शब्दों के समुचित प्रयोग से विश्वसनीयता और सुगढ़ता आती है। कवि को सिर्फ़ अपनी क्षमता ही नहीं सीमाएँ भी जानना चाहिए। जिस संसार की अनुभूतियाँ उसके पास न हों उधर जाने से बचना चाहिए। कविता का काम शब्दों में उपसर्ग, प्रत्यय और विशेषण जोड़ने से नहीं चलता। साथ ही अन्य सौंदर्य परंपराओं के उपमानों का प्रयोग करते हुए अतिरिक्त सजगता अपेक्षित होती है।

लवली गोस्वामी की कविताएँ इस बात की गवाह हैं कि ‘जब सब तेज़-तर्रार चौकन्ने झूठ सोते तब शर्मीली सच्चाइयाँ कविता में अंकुरती जागती हैं।’ लवली के लिए कविता कुछ बताने, सीखने या क्रांति भड़काने का माध्यम नहीं है, बल्कि वह उसे जीवन में सच्चाई के प्रवेश का दरवाज़ा समझती हैं। उनमें सूक्ष्म पर्यवेक्षण और आत्म-अन्वेषण का विरल धैर्य है। लेकिन चमत्कार का आकर्षण और शब्द-सजगता के अभाव से कविता पर बहुत चोट पड़ी है। कहना न होगा कि लवली गोस्वामी जैसी क्षमतावान कवयित्री के लिए दूसरे संग्रह तक जाते-जाते इसे समझ और सुधार लेना बहुत कठिन न होगा।

~•~

लवली गोस्वामी की प्रसिद्ध और प्रतिनिधि कविताएँ यहाँ पढ़िए : लवली गोस्वामी का रचना-संसार