‘दिव्य क़ैदख़ाने में’ रंजनदास

बच्चे अपनी कॉपी पर एक चित्र का अभ्यास करते हैं। उस चित्र के बीचोबीच पुरानी बनावट का एक घर होता है। पीछे पहाड़ और पहाड़ के पीछे से उगता हुआ सूरज होता है। पहाड़ से उतरती हुई निर्मल नदी होती है। नदी के किनारे हरे-भरे वृक्ष होते हैं। कोने में एक स्कूल होता है। घर से स्कूल जाती हुई एक पगडंडी होती है। पगडंडी के दोनों तरफ फूल-पौधे और उससे स्कूल जाते बाल-विद्यार्थी होते हैं। अगर किसी बच्चे से इस चित्र में एक धुआँ उगलता कारख़ाना बनाने को कहा जाए तो? आप जानते हैं कि वह अड़ जाएगा, इस मनोहर दृश्य में कारख़ाने की कल्पना उसे असंगत जान पड़ेगी। वैसे तो यह ‘एक बच्चे का प्रोजेक्ट’ शीर्षक राकेश रंजन की कविता का आख्यापन है, परंतु विचार करने पर यह संस्कृति का आदर्श प्रोजेक्ट भी लगता है।

संस्कृति आदर्श रूप में शुभ एवं सौंदर्य की पोषक समझी जाती है, परंतु इसके भीतर दमन भी लगातार बना रहता है। हमें जिस आदर्श संस्कृति का अभ्यास कराया जाता है, उसमें इन अंतर्विरोधों को छिपा लिया जाता है। हमारा देश जिस तेजी से देशी-विदेशी कंपनियों के हाथ में खिसक रहा है, उतना ही तीव्र राष्ट्रवादी उभार भी दिखाई पड़ रहा है। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि आज का राष्ट्रवाद इसी लूट को छिपाने में लगा है। बच्चा जिस चित्र का अभ्यास करता आया है, उस मनोरम भू-दृश्य को कारख़ानों ने निगल लिया है। इस अंतर्विरोध को देखकर कोई भी चिंतनशील व्यक्ति समझ सकता कि हमारी मुग्ध कल्पना और आदर्श से यथार्थ पर पर्दा डालने का काम लिया जा रहा है… और इस पर्देदारी से किसका हित सधता है, यह भी समझ सकता है।

दिव्य कैदखाने में │ स्रोत : राधाकृष्ण प्रकाशन

कुछ बच्चे वयस्क होकर भी किशोर चित्त में फँसे रहते हैं। उन्हें हर तरफ़ कोमलता, प्रेम, गुलाबी उदासी और सुरीला एकांत ही दिखाई पड़ता है। कैशोर्य में प्रशंसित चीज़ें वयस्क होने पर नाबदान में गिरे शराबी के ख़्वाब-सी जुगुप्साजनक लगती हैं। सच्चाई तो यह है कि वास्तविकता जितनी असुंदर होती जाती है, ख़्वाब-आवर नशे की माँग बढ़ती जाती है। जीवन स्थितियाँ जितनी त्रासद होती जाती है, ‘फ़ील गुड’ और ‘ऑल इज़ वेल’ का मंत्र-पाठ उतना ही तीव्र होता जाता है। ऐसे में रोंडा बर्न्स, शिव खेड़ा, संदीप माहेश्वरी जैसे महर्षि पैदा होते हैं और ‘लॉ ऑफ़ अट्रेक्शन’ का ज्ञान देते हैं! इसी प्रक्रिया में दुश्वारियों में गले तक डूबी जनता को गुलाबी दुनिया की पुड़िया बाँटने वाले कवि आते हैं। ये सब मिलकर ऐसी दिव्य दुनिया का निर्माण करते हैं, जहाँ आदमी सहर्ष आत्मक़ैद माँगने लगता है। जिन शक्तियों ने इसे बदलने का क़ौल लिया था, वे स्वयं इस घनेरी धुंध में भ्रमित होकर सुनहरी खाई के सामने हैं। लाल रंग के घोड़े पर चढ़कर आने वाला यह लड़ाका वही प्रगतिशील शक्तियाँ हैं और सुनहरी खाई भ्रम की वही दिव्य दुनिया :

एक लड़ाका लाल रंग का
घोड़ा चढ़कर आया
उसे देख दुख के मारों का
हारा मन हरखाया

***

मगर आज? उसकी आँखों पर
धुंध घनेरी छाई
और सामने आई उसके
एक सुनहरी खाई!

बक़ौल मुक्तिबोध :

हम सब क़ैद हैं उसके चमकते तामझाम में
शाही मुकाम में!!

परंतु कुछ कवि ग़रीब बच्चों की तरह समय से पहले ही सयाने हो जाते हैं। वे अपने अनुभवों से दिव्य दुनिया और यथार्थ दुनिया का अंतर देख लेते हैं। राकेश रंजन ऐसे ही कवि हैं। कहें तो दिव्य दुनिया और यथार्थ दुनिया के बीच के इसी अंतराल से उनका कवि जन्म लेता है। राकेश रंजन अपनी कविता में इन दोनों दुनियाओं को अगल-बग़ल रख भर देते हैं और पाठक स्वयमेव अपेक्षित दिशा में चला जाता है और कविता अपने उत्तर-जीवन की तरफ़। और भी कवि हैं, जो कविता में इस अंतराल को पकड़ते हैं। परंतु राकेश रंजन इन दोनों दुनियाओं के बीच का अंतराल बहुत अनौपचारिक और कौतुकपूर्ण ढंग से खोलते हैं। जब हिंदी कविता के परिदृश्य में अभिनय, अदा और गभीर काव्य-मुद्राएँ यथास्थितिवाद की गवाही में खड़ी हैं, तो ऐसे में व्यंग्य-विनोद, काव्यकौतुक, क्रीड़ाभाव कविता की विशिष्टता और क्षमता को बचाने का काम करने लगता है। इस संग्रह की एक कविता देखिए :

रंजनजी मुस्काय :
दफ़्तर जाने को तैयार हुए जब रंजनदास
नई-नवेली बीवी दौड़ी आई उनके पास
कंजकरों से लंचबॉक्स, कंजानन से मधुहास
मधुराधर से चुम्बन देकर विदा किया सविलास

निकल चले रंजन घर से फिर प्यार-मुहब्बत भूल
करते मन में याद ‘वर्क इज वर्शिप’ वाला रूल
रस्ते भर की कालिख पीकर और फाँककर धूल
ज्यों की दफ़्तर पहुँचे, बॉस बुलाकर बोले—फूल!

अरे! बॉस का मूड गरम था, गरजे परम सकोप
लगे उगलने आग दनादन, जैसे कोई तोप—
लेट आज भी आया इडियट! क्या है तेरी होप?
सॉरी सर-घिघियाए रंजन, तो सर चीख़े—चोप!

रात घिरे रंजन घर लौटे हारे-से असहाय
भोली-भाली बीवी दौड़ी आई लेकर चाय
माथ चूमकर लगी पूछने—मुख क्यों रहे सुखाय
रंजनजी मुसकाय, अचानक दृग उनके भर आय!

सावधानी से न पढ़ने पर यह संस्कृत-अंग्रेज़ी-मिश्रित सामान्य तुक्कड़ कविता लगेगी। सजग होकर पढ़ते हुए सबसे पहले ध्यान इसके नाटकीय कथा-वितान पर जाता है। तदुपरांत पाठक इसकी भाव-प्रक्रिया में जाता है तो कविता विडंबनात्मक होती जाती है और अंतिम पंक्ति तक पहुँचकर इतनी सच्ची और कारुणिक हो जाती है कि पाठक उसमें अपनी झलक पा लेता है। पहले बंद में रंजनदास, कंजकरों, कंजानन, मधुहास, मधुराधर, चुम्बन और सविलास के बाद वर्क इज वर्शिप, बॉस, फूल, इडियट, सॉरी… पढ़ते हुए पाठक दो विरोधी जीवन-स्थितियों और विपरीत मनोदशाओं में पहुँच जाता है।

नई सदी की कविताओं में दो तरह का विश्वबोध समझ में आता है। पहला, अनुभवशून्य, छिन्नमूल और घिसी हुई भाषा का गुलाबी संसार, जो कभी बिम्बों में तो कभी मसीहाई सूक्तियों में रचा जाता है। दूसरा, जहाँ वृहत्तर समाज का सुख-दुख, विकलता, संघर्ष, विडम्बना कविता में बार-बार लौटता है। यह कविता दोनों तरह के विश्वबोध को आमने-सामने रखकर अर्थ और व्यंजना की नई संभावनाएँ पैदा करती है। यहीं कहीं बीच से राकेश रंजन आत्मबल और भविष्य का संबल भी पाते हैं:

बरगद-सी उच्चता अचानक तुच्छ पत्र-सी झर जाती है
भेड़-बकरियों-सी जो रहती, सत्ताओं को चर जाती है
आहत जनता यों उठती है, ज्यों प्रचंड उठता है सागर—
दिग्विजयी जलयान बूड़ता, जैसे हो मिट्टी का गागर

जनता दिखती जड़ीभूत है, मगर अचानक करती धावा
जैसे ज्वालामुखी फूटता, औचक व्यापक होता लावा
सब हिसाब जनता करती है, नहीं किसी को देती माफ़ी
कांग्रेस हो या बीजेपी, हिटलर हो चाहे गद्दाफ़ी!

यह आत्मविश्वास इतिहासबोध से आता है। राकेश रंजन जानते हैं कि जनता कितने ही जंगलों, पहाड़ों और बर्बर सत्ताओं को समतल करती यहाँ तक पहुँची है। इसलिए इसे रोका नहीं जा सकता। यह इस घनेरी धुंध को भी पार करके आगे जाएगी। राकेश रंजन का यह इतिहासबोध ही उन्हें उच्छेदवाद और उदासी के युग-सामान्य भावबोध से बचा लेता है, परंतु अगर कोई कहना चाहे कि राकेश रंजन का रेडीमेड क़िस्म का इतिहासबोध उनके काव्यबोध को तलस्पर्शी चिंतन में उतरने से पहले ही संतुष्ट कर देता है, तो उसे रोक कौन पाएगा!

राकेश रंजन अपनी पीढ़ी के लोकप्रिय कवियों में से एक हैं। इसका कारण सामयिक विडंबनाबोध पर उनकी पकड़ और पठनीयता है। कुछ कवि अपनी उद्धरणीय और ‘इंस्टाग्रामेवल’ होने के नाते लोकप्रिय होते हैं। परंतु कविता के संवेदनशील पाठक के समक्ष पठनीयता और उद्धरणीयता में अंतर छिपा नहीं है। राकेश रंजन की यह पठनीयता कहन भंगिमा, नाटकीयता, भाषिक आत्मविश्वास, लय, सामयिकता और अनुभवगत नवीनता से आती है।

राकेश रंजन की कविताओं में सभी का ध्यान लय और छंद प्रयोग पर जाता है। हिंदी में छंदों को लेकर दो तरह के अतिवादी मत हैं। एक यह कि मुक्तछंद के कारण कविता सीमित होती गई है और छंद की वापसी से ही कविता का उद्धार होगा। दूसरा, जो छंद मात्र को ही प्रतिगामी मानता है और छंद की बात करते हुए लोग उसे मध्यकाल में लौटते हुए लगते हैं। दोनों मतों के लोग इस पर विचार नहीं कराते कि हिंदी कविता ने लय और छंदों में क्या प्रयोग किया है और उसे कैसे बदला है।

यदि ग़ौर करें तो मिलेगा कि हिंदी कविता में छंद प्रयोग क्षीण भले हो गया हो, लेकिन अदृश्य कभी नहीं रहा। स्वाधीनता के बाद सबसे ज्यादा छंद और लय का प्रयोग प्रगतिशील और प्रतिरोध की कविता ने किया है। कारण कि कविता घरेलू गोष्ठी में पढ़ी जाने वाली चीज़ से ज्यादा बड़ी योजना का हिस्सेदार थी। प्रगतिशील कवियों ने मध्यकालीनबोध को वहन करने वाले छंदों को आधुनिकबोध, विडम्बनाबोध और व्यंग्य से भर दिया। जिसके लिए उन्होंने उसे तरह-तरह से तोड़ा और ढाला। छंद की उपयोगिता और निरर्थकता पर बहस के बजाय हिंदी में उसके नवीन प्रयोगों पर ध्यान देना ज़्यादा सार्थक होगा। ध्यान से देखें तो आज जो भी कवि कविता में छंद और लय का उपयोग करते हैं, वे सब विडम्बनाबोध के कवि हैं। वरिष्ठों में दिनेश कुमार शुक्ल, अष्टभुजा शुक्ल, देवेंद्र आर्य, महेश कटारे ‘सुगम’ का नाम लिया जा सकता है। तथा नए कवियों में चेतनक्रांति, प्रदीप शुक्ल, आशाराम जागरथ, मृत्युंजय, शैलेन्द्र शुक्ल, संदीप तिवारी आदि का नाम ले सकते हैं। ये सभी मूलतः व्यंग्य, प्रतिरोध और विडम्बनाबोध के कवि है। ‘जंगल और ख़रगोश’ कविता की इन पंक्तियों की लय कविता के वाह्य विन्यास से आगे बढ़कर खोजने और पाने की तीव्र प्रत्याशा रचती है :

जंगल ने
झील की ख़ामोशी से पूछा
झरने की तेज़ गर्मजोशी से पूछा
नदी से, समंदर से
गर्त से, पहाड़ से पूछा
जंगल ने
सारे संसार से पूछा

कि कहाँ गया
कहाँ गया प्राणों से प्यारा ख़रगोश?

हिंदी कविता में भाषा का सबसे आत्मविश्वासपूर्ण प्रयोग अष्टभुजा शुक्ल करते हैं। बाद की पीढ़ी में इस कैंड़े का आत्मविश्वास राकेश रंजन में ही है। हिंदी कविता में तीन तरह का भाषिक प्रयोग दिखाई पड़ता है। पहले तरह के कवि सामान्य बोलचाल की भाषा का उपयोग करते हैं और करुणा, व्यंग्य तथा मुहावरे आदि गढ़ते हैं। दूसरे तरह का भाषिक प्रयोग गाँव उद्दीपन लेकर आती हुई लोकोन्मुखी भाषा है। यह भाषा अतीत-राग पैदा करती है। तीसरे तरह की भाषा बहुत तात्स्मिक है। जिसमें संस्कृत के शब्दों के द्वारा नितांत परिचित विषयों और अंतर्वस्तु को फिर से अपरिचय के रैपर में लपेटकर विशिष्ट छविमयता पैदा करने की कोशिश की जाती है। इन तीनों भाषिक प्रयोगों से अलग अष्टभुजा और राकेश रंजन सरिस कवि लोक-भाषा के शब्दों से लेकर ठेठ तत्सम और अँग्रेज़ी तक के शब्दों का आत्मविश्वास से प्रयोग करते हैं। यहाँ न शब्द अपनी दुनिया में खींच पाते हैं, न निर्जीव ढंग से टाँके हुए नज़र आते हैं, बल्कि कविताओं में आकार फिर से रीचार्ज़ हो उठते हैं। मैं आशा करता हूँ कि पाठक राकेश रंजन का यह संग्रह पढ़कर मेरी बातों की गवाही देंगे।