दो दीमकें लो, एक पंख दो

मैं आभार व्यक्त करना चाहता हूँ, इस कार्यक्रम के आयोजकों और नियामकों का जिन्होंने मुझे आपके रूबरू होने का, कुछ बातें कर पाने का मौक़ा दिया। मेरे लिए यह मौक़ा असाधारण तो नहीं, लेकिन कुछ दुर्लभ ज़रूर है। लिखना बहुत अकेलेपन की चीज़ है… एक ख़ास तरह का अकेलापन। लिखने के क्षणों में लेखक जब एक ख़ाली पन्ने के सामने होता है, यह एक इनफ़िनिटी या अनंतता का सामना करने की तरह होता है, और यह उसे अकेले ही करना होता है। इस तरह लोगों और दुनिया के सामने आना, यह कभी-कभी ही हो पाता है। मैं लिखित शब्दों की दुनिया का आदमी हूँ। बोले जाने वाले शब्दों पर, स्पोकन वर्ड्स पर मेरा भरोसा कम है, हालाँकि दुनिया का, हम सबका, मेरा भी काम स्पोकन वर्ड्स से ही ज़्यादा चलता है, लिखित शब्दों से कम। हेमिंग्वे का कहना था कि बोलना, ज़रूरत से ज़्यादा बोलना एक लेखक के लिए अवैध है, निषिद्ध है, गुनाह है। एक अय्याशी है यह, जो औरों के लिए है, राइटर के लिए नहीं। उसे जो कुछ कहना है, वह उसे लिखकर कहना चाहिए, बोले जाने वाले शब्दों से उसे परहेज़ करना चाहिए। दूसरी ओर स्पोकन वर्ड्स के बारे में हिटलर ने कहा था—अपनी किताब ‘मीन काम्फ़’ में, लिखित शब्दों के लिए हिक़ारत के साथ—कि दुनिया स्पोकन वर्ड्स से जीती जाती है, लिखित शब्दों से नहीं। ग़ौर करें कि हर तानाशाह धुआँधार बोलता है और हर तानाशाह जिस चीज़ से सबसे ज्यादा डरता है—वो होते हैं लिखित शब्द, छपे हुए शब्द। यह अकारण नहीं है कि हर तानाशाही निज़ाम के निशाने पर सबसे पहले लेखक होते हैं, और हर तानाशाह लेखकों को नियंत्रित करने के लिए, और यह मुमकिन न हो तो उन्हें नेस्तनाबूद कर देने के लिए, इतनी ताक़त लगाता है, इतनी तरकीबें करता है।

मगर मैं यह भी मानता हूँ कि जब बोलना ही हो तो अपना दिल पूरी तरह खोल देना चाहिए, अपने को पूरी तरह उड़ेल देना चाहिए। मैं यही करने की कोशिश करूँगा। मेरे पास कहने या बताने के लिए ऐसा कुछ नहीं जो आप पहले से नहीं जानते। एक ऊँचे मंच से ज्ञान बघारता लेखक मुझे न समझें, मैं आपको कुछ नया बता या सिखा नहीं सकता। शायद मैं ही आपसे कुछ जान सकूँगा। मैं और आप जिस दुनिया के बाशिंदे हैं, साहित्य की, कलाओं की, ज्ञान की, बौद्धिकता की, कल्चर की दुनिया, वहाँ जूनियर और सीनियर कुछ नहीं होता। लेकिन मानना ही हो तो मेरा मानना है कि जो बाद में आते हैं वही सीनियर होते हैं। इसलिए कि अब तक की सारी विरासत तो उन्हें हासिल होती ही है और उसमें वो अपने ख़्याल, अपनी कल्पनाएँ जोड़ते हैं। इस तरह आप सब मेरे सीनियर्स हैं। गुज़ारिश है कि मैं जो कुछ कहूँगा, उसकी कमियों को आप नज़रअंदाज़ करेंगे।

मैं एक ऐसे कथाकार की कहानियों के बारे में कुछ कहना चाहता हूँ जिनके बारे में बहुतों को संदेह हो सकता है कि क्या वह कथाकार था भी? मुझे भी है। प्रथमतः, अंततः वह एक कवि था, हमारी भाषा में पिछले पचास वर्षों की सबसे तेजस्वी प्रतिभा। उसकी संवेदना कविताओं में व्यक्त होती थी और उनकी कविताओं में बेशुमार ऐसी हैं जिनकी पवित्रता और शक्ति की विपुल संपदा देखकर हमारी साँस रुकने लगती है। लेकिन कविताओं के हाशिए पर, किनारे, बीच के अंतरालों में वह जीवन भर कहानियाँ भी लगातार लिखता रहा—बहुत सी अधूरी छूट गई, विशृंखल कहानियाँ, कहानियों के टुकड़े या नोट्स। उनकी कहानियों की संख्या कम नहीं है। बहुत से विशुद्ध कहानीकार भी अपने जीवन में इतनी ही कहानियाँ लिख पाते हैं। उनके बाद बहुत-सी अधूरी कहानियाँ उनके काग़ज़ों में मिलीं जिनमें से कुछ के तो आख़िरी वाक्य भी अधूरे थे। जैसे एक चलती हुई फ़िल्म अचानक रुक जाए, अचानक अंधकार छा जाए।

हमारी भाषा में कहानी ने एक बहुत लंबा सफ़र तय किया है। जो कहानियों के नियमित पाठक हैं, जानते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में हिंदी में कहानी का जैसे पुनर्जन्म हुआ है। हिंदी की कहानी अब विश्वस्तरीय है और इतनी विविधता उसमें है कि जो पाना चाहें वह आज की कहानियों में मिल सकता है—कहन का अनूठा अंदाज़, दृश्यों का रचाव, कहानी का नैसर्गिक ताना-बाना, सधा हुआ, संतुलित, निर्दोष शिल्प और इन सबके संग जीवन की एक मर्मी आलोचना। इस समय भी कहानीकारों की कम से कम तीन पीढ़ियाँ एक साथ सक्रिय हैं, लगातार बेशुमार कहानियाँ लिखी जा रही हैं और ऐसी कहानियों की कमी नहीं जो अपने नवाचार से या गठन से या कथ्य से हमें मुग्ध करती हैं। लेकिन मैं उन सबको छोड़कर, नामचीन, स्टार, चमकते हुए लेखकों को छोड़कर उस कथाकार की बहुत पुरानी कहानियों, ऐसी नाकाम कहानियों के बारे में बात करना चाहता हूँ, जो संभवतः कहानी कला के मानदंडों पर भी पूरा नहीं उतरतीं और जिनके कहानी होने में भी संदेह है। इसकी वजह यह है कि बेशक वो हों प्रचलित अर्थों में नाकाम, फिर भी आपका पीछा नहीं छोड़तीं। उन्हें भुला पाना या नज़रअंदाज़ या दरकिनार कर पाना मुमकिन नहीं हो पाता—और अनायास, कई बार चुपके से वो जो कुछ कह जाती हैं, वह आपकी चेतना का हिस्सा बनकर हमेशा साथ रहता है। मगर सिर्फ़ इतना ही नहीं। मेरा एक अपना, निजी अनुभव यह भी है, ज़रूरी नहीं कि वह औरों का भी हो, कि आपकी ज़िंदगी के कुछ नाज़ुक, कमज़ोर, निर्णायक, अँधेरे क्षणों में उन कहानियों का कोई हिस्सा, कोई वाक्य तड़ित की तरह कौंध जाता है और बहुत दूर तक आगे का रास्ता आलोकित कर देता है।

उन कहानियों के बारे में कुछ कहने से पहले मुझे इजाज़त दीजिए एक और कहानी, उसका आख़िरी हिस्सा, आख़िरी दृश्य, आख़िरी पैराग्राफ़ सुनाने की। हर लेखक या कवि काग़ज़ पर जो लिखता है या लिखने की आकांक्षा रखता है या नहीं लिख पाता, उसके अलावा भी उसके जीवन में हर पल, अपने आप, अनभिप्रेत एक अदृश्य टेक्स्ट लिखा जाता रहता है। एक इनविजिबिल, अदृश्य, अलिखित कहानी। यह वही अदृश्य, अलिखित कहानी है, उसका आख़िरी हिस्सा… अपने में बहुत हृदयविदारक, मगर रोमांचक भी। वह भी कोई नई कहानी नहीं, आप सब जानते हैं। यह 9 या 10 सितम्बर 1964 की रात है। दिल्ली के एम्स के कमरा नंबर 208 के दरवाज़े के शीशे में से एक उम्रदराज़, 53 साल का कवि बेबस निगाहों से भीतर देख रहा है। वहाँ नीम अँधेरे में एक बेहोश जिस्म है, जिसकी साँस धीरे-धीरे उठती और गिरती है। पास में ऑक्सीजन सिलिंडर हैं, मशीनें। वह कवि स्वीकार नहीं करना चाहता, लेकिन भीतर कहीं उसे एहसास है कि वह शख़्स जो भीतर है, धीरे-धीरे मर रहा है और उसके संग बाहर खड़े उस शख़्स के भीतर भी कुछ मरता जा रहा है। उसकी बेहोशी उसके अपने होश का पैमाना बन गई है। ढाई महीने पहले जून में रघुवीर सहाय ने तत्कालीन प्रधानमंत्री शास्त्री जी के कक्ष से एक बदहवास टेलीफ़ोन किया था : कट थ्रू, दिस इज प्राइम मिनिस्टर्स ऑफ़िस, और उसके एक दिन के बाद नई दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर उनके चिंतित कवि-मित्रों ने उनके आने का इंतज़ार किया था। 26 जून 1964 को नई दिल्ली के प्लेटफ़ॉर्म पर एक ट्रेन से वह शरीर, टर्मिनल कोमा में, सावधानी से नीचे उतारा गया था। पीछे-पीछे एक स्टैंड पर ग्लूकोज़ की एक बोतल, हिलती-डुलती। वह बेहोश था, चेहरे पर जीवन भर की अस्थिरताओं का तनाव था। उसकी नकसीर फूटी थी। एक एंबुलेंस में वह वहाँ से सीधे एम्स ले जाया गया था।

बाहर बरामदे की धुँधली रोशनी में वह शख़्स, उम्रदराज़ कवि, बहुत देर इंतज़ार करता है—फिर जैसे किसी दुःस्वप्न में चलता हुआ बस पकड़कर एम्स से मॉडल टाउन अपने घर जाता है। उस काली, गाढ़ी रात के बीतने का इंतज़ार करते हुए, अपनी बेचैनी को अभिव्यक्ति देने के लिए वह चंद शे’र लिखता है, कुछ इस तरह :

ज़माने भर का कोई इस क़दर अपना न हो जाए
कि अपनी ज़िंदगी ख़ुद आपको बेगाना हो जाए

और :

सहर होगी, ये शब बीतेगी और ऐसी सहर होगी
कि बेहोशी हमारे होश का पैमाना हो जाए

कमरा नंबर 208 में जो शख़्स भीतर बेहोश है, उसने कभी लिखा था : ”साहित्य हमेशा अन्य से संवाद है, इसलिए एक सर्जक की, उसके कर्म की पहली और बुनियादी ज़रूरत है ‘स्व’ की घेरेबंदी तोड़ पाना।” लेकिन बाहर बरामदे में जो शख़्स बेचैन खड़ा है, वह तो इसके भी आगे जाकर, केवल अपने ‘स्व’ के परे उस अन्य तक पहुँचना भर नहीं चाहता, वह तो जैसे उस अन्य में अपने को विलीन कर देना चाहता है। देखिए वह क्या लिखता है :

इधर मैं हूँ, उधर मैं हूँ, अजल, तू बीच में क्या है
फ़क़त एक नाम है, ये नाम भी धोका न हो जाए

उसी रात मुक्तिबोध का देहांत हो गया। उनकी शवयात्रा में एक युवा चित्रकार ने, जिसकी उम्र उस वक़्त 45 के आस-पास थी, कंधा दिया था। वह उस शवयात्रा में नंगे पाँवों क्या चला, फिर हमेशा या अधिकतर वैसे ही चलता रहा। उस चित्रकार का नाम था मक़बूल फ़िदा हुसैन और उस कवि का शमशेर बहादुर सिंह। यह वह कहानी है, उसका आख़िरी हिस्सा, जो मुक्तिबोध जीवन भर प्राणों और ख़ून से लिखते रहे। इसमें न जाने कितनी अर्थव्याप्ति, कितने रहस्योद्घाटन हैं। जो दूसरी कहानियाँ उन्होंने लिखीं, वो इसी कहानी के हिस्से थे। मगर लिटरेचर की दुनिया बेमुरव्वत होती है। जब हमारे सामने रचना होती है तो सिर्फ़ रचना सामने होती है। रचनाकार का कितना ही कष्टप्रद जीवन रहा हो, रचना के मूल्यांकन में किसी सहानुभूति का लाभ उसे नहीं मिलता, न दिया जाना चाहिए। तो आइए, उनकी कहानियों के बारे में हम बात करें जो वो जीवन भर कविताओं के किनारे लिखते रहे।

‘अंधेरे में’ …शायद आपको लगे कि मैं उस बहुत लंबी कविता के बारे में बात करना चाहता हूँ जो इतनी चर्चित, इतनी ज्यादा उद्धरित है, जिसकी बेशुमार आलोचनाएँ मौजूद हैं और जो हिंदी कविता में अब एक आधुनिक क्लासिक का दर्जा हासिल कर चुकी है। पता नहीं, किसी को याद भी है या नहीं कि इसी शीर्षक की उनकी एक कहानी भी है। मैं उस कहानी के बारे में बात करना चाहता हूँ। (प्रसंगवश इसी शीर्षक की एक कहानी निर्मल वर्मा की भी है)। क्या है इस कहानी में? रात को 12 बजे ट्रेन से 25 साल का एक युवक उतरता है। वहाँ लोग हैं, शोरगुल, प्लेटफ़ॉर्म का परिचित दृश्य। ठंडी हवाएँ, गर्म धुआँ, चाय की बास। पाँच साल पहले वह यहीं रहता था।

बाहर ताँगे, दुकानें, सराय, अफ़ीम का गोदाम, म्युनिसिपल पार्क, चौराहे, कॉलेज। युवक को रात का यह वातावरण अत्यंत प्रिय मालूम हुआ। रेल की पटरियों के पार मध्यवर्गीय नौकरों के क्वार्टर हैं। एक आँगन में दो खाटें बिछी हैं। एक खाट पर एक पुरुष टेबल लैंप की रोशनी में कुछ पढ़ रहा है। यकायक उसके मन में एक प्यार उमड़ आया। वे घर उसे अत्यंत आत्मीय जैसे लगे, मानो वे उसके अभिन्न अंग हों। मगर अपने ही मन की यह भावना उसे समझ में नहीं आई। लेखक लिखता है, वह अब भावनाओं का इतना अभ्यस्त नहीं रह गया कि उनका आदर्शीकरण कर सके। यह युवक करता क्या है? बस कहानी के बीच में एक लाइन में संकेत है कि वह मज़दूरों की चालों में नित्य जाया करता है। उनके बीच काम करता है, लेकिन शायद ख़ुद मज़दूर नहीं। अमीर दोस्तों के स्वच्छ, सुंदर मकानों में भी जाता, चंदा इकट्ठा करता, चाय पीता, वाद-विवाद करता है। रोज़ का कठिन, शुष्क, दृढ़ जीवन उसे एक विशेष तरह का आत्मविश्वास देता था। परंतु आज… पता नहीं क्या, वह तरल और भावुक और कुछ कमज़ोर हो रहा है। वह परिचित शहर की गलियों में चलता जाता है। वह अपना लक्ष्यस्थान भूल चुका है। उसे अपने घर की, माता-पिता की, बहन की याद आती है। दूर एक दुकान पर कुछ लोग हैं, एक ताँगे वाला, एक मुसलमान सज्जन, एक मौलवी साहब। पुलिस का एक गश्तवान सिपाही जो चेहरे से मुसीबतज़दा लगता है। युवक वहाँ जाकर चाय माँगता है। वे आपस में बातें कर रहे हैं। पुराने ज़माने की बातें, नए ज़माने का चलन। होटल वाला जो एक सैयद मुसलमान है, बातचीत के बीच में कहता है—मैं आपको एक क़िस्सा सुनाता हूँ। दुनिया में बदमाशी है, बदतमीजी है। है, पर करना क्या। मौलवी साब मेरा दिल एक सच्चे सैयद का दिल है। एक दफ़ा क्या हुआ कि हज़रत अली अपने महल में बैठे हुए थे। वह हज़रत अली का क़िस्सा सुनाता है। वो ग़रीबों के हिमायती हैं, महल में रहते हैं, मगर कोई नहीं जानता कि वो बाज़ार में अनाज के बोरे भी उठाते हैं। रेशम का शाही लबादा सिर्फ़ ऊपरी लिबास है, अंदर वो मोटे बोरे के कपड़े पहनते हैं। क़िस्सा सुनाते हुए सैयद होटल वाले की आँखों में आँसू आ जाते हैं। मौलवी साब जिनकी चिंता बस एक चाय या बिस्कुट मुफ़्त या उधार लेने की थी, का सिर नीचा हो जाता है। उन्हें लगता है जैसे वो हार गए हों, उनकी विद्वत्ता भी हार गई हो। युवक बातचीत में कोई शिरकत नहीं करता। वह मौलवी साहब उसके साथ चलने लगते हैं। वह अपने बारे में बताने लगते हैं कि वह मस्जिद में रहते हैं। दस साल पहले शादी हुई थी, मगर उनकी बीवी गहने समेट कर चंपत हो गई। …और तमाम बातें होती हैं। युवक बूढ़े की सूरत से ही कई बातें जान लेता है—वही दुख जो किसी न किसी रूप में प्रत्येक कुचले मध्यवर्गीय के जीवन में मुँह फाड़े खड़ा हुआ है। वह 40 का है। उसके दिल में सूनापन है, बेचैनी है। एक असंतुष्ट जीवन है। उस वक़्त लड़ाई चल रही है, यानी दूसरी जंग-ए-अज़ीम। मौलवी साहब अख़बार पढ़ते हैं, रेडियो भी सुनते हैं। अपनी तरह से दुनिया को, उस वक़्त की राजनीति को और ज़माने की चाल को समझने की कोशिश करते हैं। ये बातें मामूली हैं, मगर उनके आस-पास भावना का आलोकवलय है। युवक को उनकी बातें अच्छी लगती हैं।

मौलवी जब गली में मुड़कर गया तो युवक की आँखें उस पर थीं। मौलवी का लंबा, दुबला और श्वेतवस्त्रावृत्त सारा शरीर उसे एक चलता-फिरता इतिहास मालूम हुआ।

रात काफ़ी हो चुकी है। युवक को अब सोना है। कहाँ सोए। फिर वह स्टेशन चल पड़ता है। वह वहीं सोना चाहता है। रास्ता अँधेरे से ढँका है। नींद के झोंकों में पैरों में कुछ नरम-नरम लगता है। वहाँ मानव शरीर है, पता नहीं बच्चे का, स्त्री का, जवान का या बूढ़े का। वह भागने लगा किनारे की ओर। लेकिन वहाँ तक आदमी सोए हैं। सोते हुए मनुष्यों का एक समुद्र है।

युवक के मन में एक प्रश्न, बिजली के नृत्य की तरह, घूमने लगा—क्यों नहीं इतने सब भूखे भिखारी जगकर, जागृत होकर उसको डंडे मारकर चूर-चूर कर देते हैं? क्यों उसे अब तक जीवित रहने दिया गया? एक विस्तृत, शांत खुलापन युवक को ढँक रहा था और उसे सिर्फ़ अपनी आवाज़ सुनाई दे रही थी—पाप, हमारा पाप, हम ढीले-ढाले, सुस्त, मध्यवर्गीय, आत्म-संतोषियों का घोर पाप। बंगाल की भूख हमारे चरित्र विनाश का सबसे बड़ा सबूत। उसकी याद आते ही, जिसको भुलाने की तीव्र चेष्टा कर रहा था, उसका हृदय काँपने लगता था और विवेक-भावना हाँफने लगती थी।

उस लंबी सुदीर्घ सड़क पर वह युवक एक छोटी-सी नगण्य छाया होकर चला जा रहा था। बस इतनी ही है कहानी जो 1948 के आस-पास लिखी गई थी, जब दूसरी बड़ी लड़ाई और बंगाल का अकाल अभी हाल की चीज़ थे। आइए हम इसका विश्लेषण करें। इस छोटी-सी कहानी में जैसे मुक्तिबोध की सारी बाहरी और आंतरिक दुनिया सिमट आई है। सारे मुक्तिबोधीय तत्त्व यहाँ हैं और वह ख़ास मुक्तिबोधीय आवाज़ तो है ही—गंभीर, भारी, दुर्धर्ष, कभी ग्लानि से भरी, कभी ग़ुस्से से, और कुछ-कुछ शोकाकुल जो उनकी हर रचना में हमें सुनाई देती है। एक अतिपरिचित रोज़मर्रा का हिंदुस्तानी दृश्य जिसे हम सब अपने हाथ की रेखाओं की तरह जानते-पहचानते हैं। कहानी का पात्र, युवक जो उसे देख रहा है, वह भी इस दृश्य का ही एक हिस्सा है, मगर फिर भी उससे बाहर है। उसके पास एक सचेत, जागृत, संवेदनशील, विश्लेषणपरक आँख है और सबसे बढ़कर, एक विशाल हृदय है। वह कष्ट से दबे लोगों के लिए सिर्फ़ सहानुभूति नहीं रखता, वह उन्हें गले लगा लेना चाहता है। उनसे अलग उसका अपना कोई जीवन हो, यह कल्पना उसके लिए नामुमकिन है। उसकी जो भी नियति या नसीब है, उन्हीं के साथ है। सड़क पर सो रहे लोगों को देखकर उसे अपना पाप याद आता है। वह शख़्स जैसे ख़ुद मुक्तिबोध ही हैं। कहानी एक ओर एक प्राचीन मिथक को छू आती है। हज़रत अली का, उनकी ग़रीबनवाज़ी का ज़िक्र। दूसरी ओर उस वक़्त की वैश्विक परिस्थिति… दूसरी बड़ी लड़ाई, बंगाल का अकाल।

मगर इसमें कहानी कहाँ है। इसमें तो इतने रिक्त स्थान हैं। तर्क का तार जहाँ-तहाँ टूटा हुआ है। वह युवक जहाँ जाने के लिए आया है, वहाँ जाता क्यों नहीं? जिस काम से आया है, वह काम क्यों नहीं करता। वह सिर्फ़ चाय पीने, बातें सुनने तो इतनी रात ट्रेन से नहीं आया होगा। वह इतना संवेदनशील है, लेकिन उसकी संवेदना मन ही में रहती है। वह किसी तरह का कोई हस्तक्षेप नहीं करता, बातचीत में भी अपनी ओर से कोई हिस्सा नहीं लेता, सिर्फ़ सुनता है और अंत में ग्लानि से भर जाता है। यह कहानी कहाँ है, यह तो सिर्फ़ एक स्केच, एक दृश्य है।

कहानी के सारे तत्त्व यहाँ मौजूद हैं, मगर जैसे के तैसे, जड़ित, जमी हुई, मूर्च्छित अवस्था में पड़े रहते हैं। कहानी में गतिमयता का संचार नहीं होता। कहानी के अभाव की कुछ पूर्ति उनका विशाल हृदय करता है। बेशक, यह एक विशाल हृदय से उत्प्लावित कहानी है। कुछ हद तक उनकी भाषा उसकी क्षतिपूर्ति करती है। वह ख़ास मुक्तिबोधीय मानवीय आवाज़ भी, जिसका मैंने अभी ज़िक्र किया। मगर ये सब मिलकर भी, लगता है, कहानी में कहानी के अभाव की पूर्ति नहीं कर पाते।

आइए, उनकी एक दूसरी कहानी के बारे में बात करें। उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘क्लाड ईथरली’। कहानी का नैरेटर, ‘मैं’, पीली धूप से चमकती हुई एक ऊँची भीत के सामने है। काँच के रोशनदान दूर से दीखते हैं। एक अहाता है, उसके पीछे एक आदमक़द दीवार। एक बिजली का ऊँचा खंभा। वह देखता है कि दुमंज़िला मकानों पर चढ़ने की एक ऊँची नसैनी, जिसका अर्थ शायद सीढ़ी होगा, उसी से टिकी हुई है। सहज जिज्ञासावश, अंदर का दृश्य देखने के लिए वह उस नसैनी पर चढ़ जाता है। सामने वाली ऊँची भीत के रोशनदान में से उसकी निगाहें पार निकल जाती हैं। वह जो देखता है, उससे स्तब्ध हो जाता है। दूर ढिलाई से गोल-गोल घूमते पंखे के नीचे दो पीली स्फटिक-सी तेज़ आँखें, एक सलवटों भरा चेहरा, बाहर देख रहा है। आँखों से आँखें लड़ पडती हैं। एक दूसरे को भेदती दो स्तब्ध, एकाग्र आँखें।

वह नीचे उतर पड़ता है। सुनसान रास्ता। कम से कम दो फर्लांग दूरी पर उसे एक आदमी मिलता है। सिर्फ़ एक आदमी। उसका चेहरा खुरदुरा, पंजाबी कहला सकता है, मगर जिस्म लचकदार है। एक नारीतुल्य, जनाना आदमी। उनमें परिचय होता है, बातें होने लगती हैं। वह शख़्स बताता है कि वह सी.आई.डी. है। नैरेटर कहता है—बड़ी अच्छी बात है। मुझे भी इस धंधे में दिलचस्पी है। हम लेखकों का पेशा इससे कुछ मिलता-जुलता है। पान की दुकान पर चार-पाँच आदमी और एक औरत उसे घेर लेते हैं। वे निचले तबके में पुलिस के इन्फ़ॉर्मर्स होंगे। फिर वे आगे बढ़ते हैं। नैरेटर उस शख़्स के जनानेपन में कोई अर्थ, कोई एक्स्प्लेनेशन ढूँढ़ने की कोशिश करता है। वह शख़्स उस बिल्डिंग के बारे में बताता है कि वह एक पागलख़ाना है। अपने बारे में वह बताता है, ‘‘मेरा क़िस्सा मुख़्तसर यों है। तुम मेरे दोस्त हो, इसलिए कह रहा हूँ। मैं एक बहुत बड़े करोड़पति सेठ का बेटा हूँ। उनके घर में जो काम करने वालियाँ हुआ करती थीं, उनमें से एक मेरी माँ है जो अब भी वहीं है। मैं घर से दूर पाला-पोसा गया, पिता के ख़र्चे से। माँ मिलने आती। बमुश्किल तमाम मैट्रिक किया, फिर किसी की सिफ़ारिश से सी.आई.डी. की ट्रेनिंग में चला गया। बाद में पता चला कि वहाँ का ख़र्च भी वही सेठ देता रहा। तुम लेखक-वेखक भी हो। बहुत से लेखक और पत्रकार इन्फ़ॉर्मर हैं। इसलिए मैंने सोचा, चलो अच्छा हुआ, एक साथी मिल गया।

वह शख़्स बातचीत के बीच कहता है कि जो आदमी आत्मा की आवाज़ कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उनसे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है। जो लगातार सुनता मगर कुछ कहता नहीं है, वह भोला-भाला सीधा-सादा बेवकूफ़ है। जो उसकी आवाज़ बहुत ज़्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्त्वों में शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदमी आत्मा की आवाज़ ज़रूरत से ज़्यादा सुनकर हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है, वह निहायत पागल है।

बातचीत के बीच में वह शख़्स लेखक को प्रस्ताव भी दे देता है—तुम क्यों नहीं यह धंधा करते? यह सुनकर लेखक को बहुत कुछ सोचना होता है, धंधा शब्द पर भी वह ठिठक जाता है। आगे बातें होती हैं। वह बताता है कि वहाँ पागलख़ाने में जो है उसका नाम है क्लाड ईथरली।

नैरेटर को आश्चर्य का धक्का लगता है। वह सोचता है कि यह कौन शख़्स है जो मुझसे इस तरह बात कर रहा है। लगा कि मैं सचमुच इस दुनिया में नहीं रह रहा हूँ। दो सौ मील ऊपर आ गया हूँ। पृथ्वी एक चौड़े नीले गोल जगत-सी दिखाई दे रही है। मन में एक भयानक उद्वेगपूर्ण भारहीन चंचलता है—एक घनघोर, भयावह, संदिग्ध पल—तो क्या हिरोशिमा वाला क्लाड ईथरली इस पागलख़ाने में है?

वह कहता है—हां, वह क्लाड ईथरली ही है ।

—तो क्या यह हिंदुस्तान नहीं है? हम अमेरिका में रह रहे हैं?

कौन था यह क्लाड ईथरली। कहानी उसके बारे में बताती है, मगर वहाँ एकाध ब्योरा ग़लत भी है। वह हिरोशिमा मिशन में भाग लेने वाले ग्रुप में पायलट था। इस मिशन में सात बी-29 विमान लगाए गए थे जिनमें से एक का, जिसका नाम था स्टेट फ़्लश, वह पायलट था। कहानी में है कि उसके गिराए बम से हिरोशिमा नष्ट हुआ था। लेकिन नहीं, उसने बम नहीं गिराया था। वह उस विमान का चालक नहीं था, जिसने अस्ल में बम गिराया था। 6 अगस्त 1945 को टिनियन आइलैंड से वह उड़ा था रात को 1 बजकर 37 मिनट पर। बम गिराने वाले विमान जिसका नाम था एनोला गे उससे एक घंटा पहले। क्लाड ईथरली का काम सिर्फ़ इतना था कि वह हिरोशिमा के आसमान में जाए, वहाँ से मौसम का हाल बताए। न उसने बम गिराया था, न बम का गिरना या विस्फोट या हिरोशिमा शहर का विनाश अपनी आँखों से देखा था। लेकिन बहरहाल, इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता, उस मिशन का हिस्सा तो वह था ही। 1947 में उसने एयर फ़ोर्स छोड़ दी। इसके बाद उसका जीवन नरक सरीखा था। ग्लानि और पश्चाताप से भरकर एक या दो बार उसने आत्महत्या की नाकाम कोशिशें कीं। मानसिक चिकित्सालय में उसे डाल दिया गया। वहाँ वह चार साल रहा, लेकिन उसकी हालत बिगड़ती गई। अमेरिकी सरकार ने उसे ‘वार हीरो’ का ख़िताब दिया था। लेकिन वह तो अपने को मानवता का एक घोर अपराधी मानता था। ‘वार हीरो’ का मिथ तोड़ने के लिए वह गुंडों के साथ मिलकर छोटे-मोटे अपराध, चोरियाँ करने लगा। ऐसे अपराध जिनसे उसे कुछ फ़ायदा नहीं होता था। वह डाकघरों पर, बैंकों पर धावा मारता था। हिरोशिमा के मेयर को छोटी-मोटी धनराशियाँ भेजता था। जब वह अस्पताल में था तो ऑस्ट्रिया के शांतिवादी विचारक गुंथर एंडर्स से उसका पत्राचार शुरू हुआ। उनके पत्र प्रकाशित भी हुए हैं। उसने लिखा है कि हम ऐसे भयानक संकट के रूबरू हैं जो माँग करता है कि हम अपनी पूरी मूल्य व्यवस्था और वफ़ादारियों पर पुनर्विचार करें। इस गुनाह में जो दूसरे लोग शामिल थे, वे अपनी अंतरात्मा को धोखा देते रहे—यह कहकर कि वो तो एक बहुत बड़ी मशीन या तंत्र का महज़ एक पुर्जा थे। उनका फ़र्ज़ था आज्ञापालन करना और वही उन्होंने किया। मगर यह क्लाड ईथरली के लिए नहीं मुमकिन हुआ। वह मानता था कि हम अपने विचारों और कामों के लिए ख़ुद ज़िम्मेदार हैं। यह ज़िम्मेदारी आप किसी राजनीतिक दल, ट्रेड यूनियन या संस्था या चर्च या राज्य पर नहीं डाल सकते। इनमें से किसी के पास आपसे उच्चतर नैतिकता नहीं, इसलिए किसी को नैतिक हक़ नहीं कि वो आपको कोई निर्देश दे सके। क्लाड ईथरली अपने आप में इतना बड़ा विषय है, उसके जीवन में कई महान उपन्यासों और फ़िल्मों की सामग्री है। दिलचस्प है कि जिस विमान ने सचमुच बम गिराया था, उसका चालक, जिसका नाम था कर्नल पाल टिबेट्स, वह बिना किसी ग्लानि या पश्चाताप या कचोट के एक सुखी संतुष्ट जीवन जीता रहा और क्लाड ईथरली की परेशानी उसे कभी समझ में नहीं आई।

मगर मुक्तिबोध की यह कहानी सिर्फ़ क्लाड ईथरली की कहानी नहीं है। वह यहाँ एक वास्तविक, ऐतिहासिक व्यक्ति तो है, मगर एक रूपक भी है। वह शख़्स कहता है कि भारत के हर बड़े नगर में एक-एक अमेरिका है। वहाँ की संस्कृति और आत्मा का संकट हमारी संस्कृति और आत्मा का संकट है। यही कारण है कि आजकल के लेखक और कवि अमेरिकी, ब्रिटिश तथा पश्चिमी यूरोपीय साहित्य तथा विचारधाराओं में गोते लगाते हैं, वहाँ से अपनी आत्मा को शिक्षा और संस्कृति प्रदान करते हैं। क्या यह झूठ है? क्या हमने इंडोनेशियाई या चीनी या अफ्रीकी साहित्य से प्रेरणा ली है या लुमुंबा के काव्य से? छिः छिः वह तो जानवरों का, चौपायों का साहित्य है।

अगर वहाँ की संस्कृति हमारी संस्कृति है, उनकी आत्मा हमारी आत्मा और उनका संकट हमारा संकट है—जैसा कि सिद्ध है कि है, ज़रा पढ़ो अख़बार, करो बातचीत अँग्रेज़ीदाँ फर्राटेबाज़ लोगों से—तो हमारे यहाँ भी हिरोशिमा पर बम गिराने वाला विमानचालक क्यों नहीं हो सकता और हमारे यहाँ भी साम्राज्यवादी, युद्धवादी लोग क्यों नहीं हो सकते! मुख़्तसर क़िस्सा यह है कि हिंदुस्तान भी अमेरिका ही है।

क्लाड ईथरली अणुयुद्ध का और सारे युद्धों का विरोध करने वाली आत्मा की आवाज़ का दूसरा नाम है। वह मानसिक रोगी नहीं है। आध्यात्मिक अशांति का, आध्यात्मिक उद्धिग्नता का ज्वलंत प्रतीक है। पुराने ज़माने में हमारे बहुतेरे विद्रोही संतों को भी इसी तरह पागल कहा गया। इसके आगे वह शख़्स कहता है कि हमारे अपने मन-हृदय-मस्तिष्क में भी ऐसा ही एक पागलख़ाना है, जहाँ हम अपने उच्च, पवित्र और विद्रोही भावों और विचारों को फेंक देते हैं… जिससे धीरे-धीरे या तो वे ख़ुद बदल कर समझौतावादी पोशाक पहनकर सभ्य, भद्र हो जाएँ यानी दुरुस्त हो जाएँ या उसी पागलख़ाने में पड़े रहें।

कहानी का अंत यहाँ होता है। वह शख़्स कहता है कि व्यापक अन्याय का अनुभव करने वाले मगर उसका विरोध न करने वाले लोगों के अंतःकरण में पाप भावना रहती है, रहनी चाहिए। ईथरली में और उनमें यह बुनियादी एकता और अभेद है। उससे सिद्ध हुआ कि तुम सरीखे सचेत जागरूक संवेदनशील जन क्लाड ईथरली हैं।

उसने मेरे दिल में ख़ंजर मार दिया। लेखक कहता है, हाँ यह तो सच है। अवचेतन के तहख़ाने में पड़ी हुई आत्मा विद्रोह करती है। पापाचारों के लिए अपने को ज़िम्मेदार मानती है। यह मेरा भी तो रोग है।

”लेकिन यह सब तुम मुझसे क्यों कह रहे हो ?’

”इसलिए कि मैं सी.आई.डी. हूं और तुम्हारी स्क्रीनिंग कर रहा हूं ।”

आइए इस कहानी का विश्लेषण करें। कहानी में बाहरी दुनिया और मनुष्य की आंतरिक दुनिया के बारे में इतनी चिंताएँ हैं कि लगता है कि वे कहानी में सिमट ही नहीं पातीं। इसमें आधुनिक मनुष्य के अंतःकरण की स्क्रीनिंग है, उसके अवचेतन की पड़ताल है, उसका एक सटीक मनोविश्लेषण है। साम्राज्यवाद के, युद्ध के, अणुबम के लिए नफ़रत है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जो नैतिक सवाल और संकट मनुष्य के सामने खड़े हो गए थे, उनका ज़िक्र है। कहानी में एक तरह की सभ्यता-समीक्षा है। आज की कहानी के बारे में कभी-कभी कहा जाता है कि उसमें विवरणों की बहुतायत है—इसके विपरीत इस कहानी में जैसे सत्यों की बहुतायत है। कुछ रोज़मर्रा के आमफ़हम सत्य, कुछ दार्शनिक सत्य। लेकिन बहुत सारे अनुत्तरित सवाल इस कहानी में भी हैं। वह जो सी.आई.डी. है उसका जिस्म जनाना क्यों है। अगर वह मर्दाना होता तो क्या कहानी में कुछ फ़र्क़ पड़ता? वह एक करोड़पति सेठ की नाजायज़ संतान बताया गया है, कहानी के सत्य से इसका क्या संबंध है। थोड़ी ही देर की मुलाक़ात में ही वह कैसे अपनी निजी, गुप्त बातें उसे बता देता है, बिना किसी उकसावे के। ये बातें कहानी के कथ्य से, या उसके अभिप्रेत से असंबद्ध लगती हैं मगर वो इतनी जीवंत हैं, इस क़दर मानीख़ेज़, कि हम उन्हें महज़ पृष्ठभूमि मानकर, नज़रअंदाज़ करके आगे नहीं बढ़ पाते। फिर वह मैट्रिक पास शख़्स क्या इतनी सटीक सभ्यता-समीक्षा, ऐसी राजनीतिक टिप्पणी, और ऐसा गहन मनोविश्लेषण कर सकता है। …और वह शिकायत तो अपनी जगह रहती ही है कि कहानी में कुछ घटित नहीं होता। अंत तक बस कुछ घटित होने का इतंज़ार रहता है। कहानी में कोई वाक़्या, घटना या दुर्घटना नहीं, सिर्फ़ बात होती है या तो दूसरों से या अपने से—लेकिन क्या केवल वार्तालाप से कहानी बनती है? निर्मल वर्मा मुक्तिबोध की कहानियों के बारे में लिखते हैं कि उनकी कहानियों में सब कुछ स्थिर है, सिर्फ़ बात चलती है। यहाँ घटनाएँ स्थगित हैं, वक़्त और चीज़ें फ़्रीज्ड हैं। उनके बीच मुक्तिबोध के पात्र अपने या दूसरों से बातें करते हुए निकल जाते हैं। वह लिखते हैं कि ऐसा लगता है कि वह चीज़ों के संचारी जीवन को इसलिए फ़्रीज करते हैं कि मन की प्रयोगशाला में उन तत्त्वों का एक-एक कर परीक्षण कर सकें जिनके सम्मिश्रण से वेदना बनती है। कैसी वेदना, किस तरह की वेदना? ‘वेदना’ तो अपने में एक अमूर्त लफ़्ज़ है। क्या कोई जन्मजात, जैविक वेदना जो इंसान के मन में पैदा होती है या उसके होने से, उसके वजूद से जुड़ी होती है। या वह जिसके स्रोत इंसान के मन में नहीं, उसके बाहर कहीं समाज-व्यवस्था में, जीवन-स्थितियों में, अर्थतंत्र में होते हैं। निर्मल वर्मा इसके बारे में कुछ नहीं कहते। वह इस बात को नज़रअंदाज़ करते हैं कि मुक्तिबोध मार्क्सवादी थे, और मार्क्सवाद में उनकी एक प्रबल, जिद्दी आस्था थी। मार्क्सवाद उनके लिए आजीविका का साधन नहीं था, वह जीने-मरने का प्रश्न था।

निर्मल वर्मा की ‘वेदना’ वाली बात को याद रखते हुए हम उनकी एक और कहानी देखते हैं—’भूत का उपचार’। मुक्तिबोध कहानी लिखने की कोशिश कर रहे हैं, मगर नहीं लिख पाते। कहानी आगे बढ़ने से इंकार कर देती है। फिर लेखक, जैसा कि उसका स्वभाव है, आत्मविश्लेषण करने लगता है। वह बताते हैं कि उसका पात्र ऐसी आबोहवा में रहता है जो उसके आत्मविकास के विरुद्ध है। वह व्यक्ति जब घर में समय नहीं मिलता तो ऑफ़िस में डिफ़रिंशयल कैलकुलस में सिर खपाता है। वह गणित के नशे में, साहित्य और संगीत की दुनिया में रहता है, हालाँकि वह न साहित्यकार है, न संगीतज्ञ, न गणितज्ञ। इन सबमें पारंगत होने का उसे अवकाश नहीं मिला। उसका कठिन जीवन है। वह तंगी में रहता है, नया क़र्ज़ लेकर पुराना चुकाता है। मुक्तिबोध शायद उसकी इसी दुर्वस्था को, उसकी दीन-हीन हालत को, उसके दबे-कुचले होने को कहानी का विषय बनाना चाहते हैं।

वह पात्र लेखक के सामने आ धमकता है। उनमें वार्तालाप होने लगता है। पात्र कहता है—मुझे इतना निकम्मा न समझो। मैंने भी एक नया धंधा सीख लिया है।

मुझे आश्चर्य का धक्का लगा। यह क्या करने वाला है। सट्टा या जुआ। दफ़्तरी राजनीति से शुरू होकर बातें फिर वहाँ आ जाती हैं, जहाँ वह लाना चाहता है। मैंने कहा—मिस्टर, जिंदगी मैथेमेटिक्स नहीं है। वह ज़िंदा चीज़ है, सस्पंद। क्या समझे।

पात्र लेखक को देखकर हँसता है, मानो वह सिर्फ़ एक शब्द तत्पर मूर्ख हो।

यकायक मुझे महसूस हुआ कि पात्र का मस्तक दीप्त हो उठा है। वह कुछ कहना चाहता था। उस दिक् के बारे में जो काल का ही एक विस्तार है। ऋण एक यानी माइनस एक का वर्गमूल एक काल्पनिक संख्या है। माइनस एक का वर्गमूल यानी स्क्वायर रूट ऑफ़ माइनस वन इसे याद रखिएगा। इसका ज़िक्र उनकी एक अन्य कहानी में भी आता है। पात्र की धारणा है कि सृष्टि यानी प्रकृति इस संख्या को मानती है और उसके गणितशास्त्रीय नियमों के अनुसार बरताव करती है। इसी कारण गणित-विद्या विज्ञान की रानी है। शुद्ध तार्किक भावों में भी प्रतीक होते हैं। यहाँ ये संख्या के प्रतीक हैं। पात्र पूछता है—एक जमा एक क्या होता है। दो। क्या यह सार्वभौम सत्य है? क्या ऐसा हमेशा होता है? वह उदाहरण देता है। एक नदी इधर से आई एक उधर से। दोनों एकाकार हो गईं। जब नदी एक हो गई तो उसे दो नहीं कहा जा सकता। जड़ गणित के नियम हमेशा प्रकृति नहीं मानती। उसमें अपनी एक स्वयं गति है। फिर वह पूछता है—लकीर की क्या परिभाषा है। वह आइंस्टाइन, तारा बिंदुओं, ब्रह्मांड, स्पेस के, समय के बारे में बातें करता, सवाल पूछता है। लेखक की घिग्घी बँध जाती है। वह जो कुछ भी कहता है, पात्र उसकी धज्जियाँ उड़ाता चला जाता है। फिर वह कहता है—क्षमा करें आप मेरे सृष्टा हैं। लेकिन आपमें ऑब्जेक्टिव इमेजिनेशन नहीं है। आप नहीं जानते कि शुद्ध तार्किक भावों में भी एक भारी रोमांस होता है।

लेखक चिढ़कर कहता है—आप मुझे अपना पांडित्य क्यों बता रहे हैं।

इसके जवाब में पात्र जो कहता है, उसे साहित्य के पंडित किस तरह लेते हैं, मुझे नहीं पता, लेकिन वह मेरी नज़र में तो हिंदी लिटरेचर का एक जैम है। इसे बार-बार पढ़ा जाना चाहिए। वह कहता है—मेरे भीतर का जीवन आप क्या जानो। जो भीतर है वह धुआँ या कुहरा है, यह ग़लत है। आप मुझे ऐसा पेंट करना चाहते हैं जैसे मैं दुख के, असंगति के, कष्ट के एक गटर का कीड़ा यानी निम्न-मध्यवर्गीय हूँ। जी नहीं सृष्टा महोदय, मैं इतना आधुनिक नहीं हूँ। मेरी आत्मा आधी क्लासिकल है, आधी रोमांटिक। ईश्वर के लिए आप मुझे ग़लत चित्रित न कीजिए। ठीक है कि मैं तंग गलियों में रहता हूँ और बच्चे को कपड़े नहीं हैं, या कि मैं फटेहाल हूँ। किंतु मुझ पर दया करने की कुचेष्टा न कीजिए।

वह आगे कहता है—क्षमा कीजिए, लेकिन यह सच है कि आप लोग मन की कुछ विशेष अवस्थाओं को ही अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानकर चलते हैं—विशेषकर उन अवस्थाओं को जहाँ वह अवसन्न है, और बाहरी पीड़ाओं से दुखी है। मैं उस अवसन्नता और पीड़ा का समर्थक नहीं, भयानक विरोधी हूँ। ये पीड़ाएँ दूर होनी चाहिए। लेकिन उन्हें अलग हटाने के लिए मन में एक भव्यता लानी होती है—चाहे वो भव्यता पीड़ा दूर करने संबंधी हो या गणितशास्त्रीय कल्पना की एक नई अभिव्यक्ति! उस भव्य भावना को यदि उतारा जाए तो क्या कहना!

इसलिए, जनाब-ए-आली, मैं इस बात का विरोध करता हूँ कि आप निम्न-मध्यवर्गीय कहकर मुझे ज़लील करें, मेरे फटेहाल कपड़ों की तरफ़ जानबूझकर लोगों का ध्यान इस उद्देश्य से खिंचवाएँ कि वे मुझ पर दया करें। उन सालों की ऐसी-तैसी!

निर्मल वर्मा ने मुक्तिबोध की कहानियों में वेदना की बात की थी। मुक्तिबोध उसकी वेदना को उसकी अंदरूनी मस्ती या भव्यता से पृथक कर अपनी कहानी का विषय बनाना चाहते थे, और इस बात पर लड़ने-झगड़ने के लिए ख़ुद उनका पात्र उनके सामने चला आया।

यह कहानी बहुत महत्त्वपूर्ण है। लेकिन कहानी के रूप में नहीं, इस कहानी में साहित्य के बारे में जो सिद्धांत निरूपण है, उसके कारण। कहानी तो यह है ही नहीं। कहानी को भूल जाइए, साहित्य को भी भूल जाइए। लिटरेचर के अलावा और उसके बाहर भी तो एक दुनिया है। मुझे तो इन लफ़्ज़ों ने इंसान को देखने का एक नज़रिया दिया। मुझे उसके चेहरे की लकीरों के पार देखना, उसकी अंतरात्मा में झाँकना सिखाया। मुझे बताया कि फटेहाली, फ़ाक़ाकशी, भूख, दारिद्रय, दुख, अपमान… बेशक ये सब घृणित चीज़ें हैं, उन्हें सबसे पहले दूर करना ज़रूरी है और लिटरेचर का एक उद्देश्य है कि उन्हें दूर करने के लिए जो हज़ारहा लड़ाइयाँ चल रही हैं, उनमें वह भी शामिल हो। मगर फटेहाली और दारिद्रय मनुष्य की पूरी परिभाषा नहीं है, यहाँ तक कि फटेहाल और दरिद्र की भी पूरी परिभाषा वह नहीं है। फटेहाली के भीतर भी खज़ाने छुपे हो सकते हैं, होते हैं। हर मनुष्य के भीतर एक भव्यता, एक कल्पनाशीलता, सौंदर्यबोध होता है। हर मनुष्य अपने में एक विश्व होता है। इस धरती पर जितने मनुष्य हैं, उतने विश्व हैं। उसमें असीम सौंदर्य, अनंत संभावनाएँ होती हैं, जिनसे निगाह हटनी नहीं चाहिए। साहित्य का संबंध सिर्फ़ मनुष्य की ऊपरी दरिद्रता से नहीं, उसकी अंदरूनी भव्यता से भी है। सिर्फ़ उसकी वेदना से नहीं, उसकी मस्ती से भी। अदब महज़ ज़िंदगी के वाक़्यात की मुसव्वरी नहीं है, वह ज़िंदगी के बुलंद मक़ासिद की मुसव्वरी है। यह बात मार्क्सवादियों की बात से थोड़ा अलग या दूर की महसूस हो सकती है, मगर यह बात मार्क्स के क़रीब है। यहाँ इस बात को विस्तार देने का अवकाश नहीं है, लेकिन जान लें कि मार्क्स बेशक अपने ज़माने के तरक़्क़ीपंसद अदीबों के साथ थे, मगर जिन पर वह फ़िदा थे, वह थे शेक्सपियर।

‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ …आप जानते हैं कि ‘ब्रह्मराक्षस’ शीर्षक की उनकी एक प्रसिद्ध कविता भी है। उसमें शहर के बाहर एक खंडहर में एक परित्यक्त सूनी बावड़ी के ठंडे अँधेरे में जल की गहराइयाँ हैं। वहाँ न जाने कब से जमे पुराने पानी में बावड़ी की अनेक सीढ़ियाँ डूबी हुई हैं। उस बावड़ी को बहुत सारी उलझी शाखाओं ने घेर रखा है। शाखों पर लटकते घुग्घु के घोंसले हैं। बावड़ी की उन घनी गहराइयों में एक ब्रह्मराक्षस पैठा है। इस कविता में मुक्तिबोध स्वयं को उस ब्रह्मराक्षस का सजल-उर-शिष्य होने और उसके अधूरे कार्यों को पूरा करने की इच्छा जाहिर करते हैं। कविता लंबी है। उसकी आख़िरी पंक्तियाँ मैं आपको याद दिलाता हूँ :

पिस गया वह भीतरी
औ, बाहरी दो कठिन पाटों बीच
ऐसी ट्रेजडी है नीच!!

बावड़ी में वह स्वयं
पागल प्रतीकों में निरंतर कह रहा
वह कोठरी में किस तरह
अपना गणित करता रहा
औ, मर गया…
वह सघन झाड़ी के कंटीले
तम-विवर में
मरे पक्षी-सा
विदा ही हो गया

वह ज्योति अनजानी सदा को सो गई
यह क्यों हुआ
क्यों यह हुआ
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर-शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
उसकी वेदना का स्रोत
संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुँचा सकूँ।

जब वह यह कविता लिख रहे थे, उसी समय, उसी के दौरान, इसी कविता के हाशिए पर उन्होंने वह कहानी भी लिखी थी—‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’। ये दोनों रचनाएँ 1957 में साथ-साथ लिखी गई थीं, जैसे उन्होंने एक ही रचना को दो तरह से लिखा हो, या वो एक ही रचना के दो हिस्से हों। ग़ौर करें कि कविता में वह जो इच्छा ज़ाहिर करते हैं—उस ब्रह्मराक्षस का शिष्य होने की, उसे जैसे इस कहानी में पूरा करते हैं। इस कहानी में वह ‘ब्रह्मराक्षस’ किसी खंडहर की सूनी बावड़ी के अँधेरे जल में नहीं, एक बहुमंज़िला भव्य भवन में रहता है। कहानी की शुरुआत दिलचस्प है, माहौलसाज़ी ज़बरदस्त। उस महाभव्य भवन की आठवीं मंज़िल के जीने से सातवीं मंज़िल के जीने की सूनी-सूनी सीढ़ियाँ उतरता हुआ एक विद्यार्थी है। अभी-अभी उसने एक चमत्कार देखा है। तीन कमरे पार करता हुआ एक विशाल वज्रबाहु हाथ। वह बारह साल के बाद इस भवन से बाहर आ रहा है। जब वह चिड़ियों के घोंसलों और बर्रो के छत्तों भरे ऊँचे सिंहद्वार के बाहर निकला तो यकायक राह से गुज़रते हुए लोग भूत-भूत कहकर भाग खड़े हुए। आज तक उस भवन में कोई नहीं गया था। बारह साल पहले दक्षिण के एक देहात से वह लड़का भूखा-प्यासा वहाँ आया था। पढ़ने-लिखने से बैर रखने के कारण उसके विद्वान पिता ने उसे घर से निकाल दिया था। जंगल-जंगल घूमता, राह पूछता वह वहाँ पहुँचा। उसे गुरु की तलाश थी। दो विद्यार्थी उसकी बात सुनकर ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। एक ने कहा—देख बे, सामने सिंहद्वार है। उसमें घुस जा, तुझे गुरु मिल जाएगा। उन विद्यार्थियों को पता है कि उस भवन में एक ब्रह्मराक्षस रहता है।

वह भूखा-प्यासा मासूम लड़का भीतर जाकर देखता है कि वहाँ आठ मंज़िलों का एक विशाल भवन है। हर मंज़िल पर विशाल, भव्य, सूने बरामदे, जैसे अभी-अभी कोई साफ़ करके गया हो। चादर लगी गद्दियाँ, वाद्ययंत्र, फ़ानूस, अगरबत्तियाँ। मगर इतनी प्रबंध व्यवस्था के बाद भी उसे कहीं किसी मनुष्य के दर्शन नहीं होते। वह मंज़िलें चढ़ता जाता है। उसे डर भी लगता है। आठवीं मंज़िल पर फिर एक भव्य बरामदा मिलता है जहाँ एक ऋषि-मनीषी ध्यान मुद्रा में बैठे हैं।

तुमने यहाँ आने का साहस कैसे किया? यहाँ कैसे आए?
लड़का आतंकित हो गया। मुँह से कोई बात नहीं निकली।
कैसे आए? क्यों आए? एक ग़रज़ जैसी आवाज़ में वह कहता है।
मैं मूढ़ हूँ, निरक्षर हूँ। ज्ञानार्जन के लिए आया हूँ।

वह उसे तरह-तरह से आज़माता है, उसके संकल्प की हर तरह से परीक्षा लेता है। फिर गुरु बनना स्वीकार करता है। वह एक दिल दहलाने वाली, मगर धीमी आवाज़ में कहता है—बारह वर्ष के भीतर तू वेद, शास्त्र, पुराण, गणित, आयुर्वेद, साहित्य, संगीत, समस्त शास्त्र और कलाओं में पारंगत हो जाएगा। केवल भवन त्यागकर बाहर जाने की इजाज़त नहीं होगी।

बारह वर्ष तक वह वहीं रहता है, आठवीं मंजिल पर। उस भयानक निःसंग, शून्य, वीरान भवन में विद्याध्ययन की गूँजें उठती रहती हैं। दोनों में कोई इस दौरान सातवीं मंज़िल तक भी नहीं उतरता। केवल एक ही बात वह नहीं जान सका, न जानने का प्रयास किया कि वहाँ यदि और कोई व्यक्ति नहीं है तो यह सारा मामला चलता कैसे है? निश्चित समय पर उन्हें भोजन मिल जाता है। भोजन के समय वे विवादग्रस्त विषयों पर बहसें करते हैं। वहाँ आठवीं मंज़िल पर एक नई दुनिया बस गई।

बारह वर्ष के बाद अध्ययन समाप्त होता है। गुरु शिष्य से कहता है—बेटा! आज से तेरा अध्ययन समाप्त हो गया है। आज ही तुझे घर जाना है। बारहवें वर्ष का आज आख़िरी दिन है। स्नानादि से निवृत्त होकर आओ और अपना अंतिम पाठ लो।

पाठ के समय वे दोनों उदास, गंभीर हैं। उनका दिल भर रहा है।

अंतिम पाठ के बाद वे भोजन के लिए तैयार हैं। गुरु कहता है—बेटे खिचड़ी में घी नहीं डाला है?

शिष्य उठने वाला है कि गुरु कहते हैं—नहीं नहीं उठो मत। वह अपना हाथ इतना बढ़ा देता है कि वह कक्ष पार करता हुआ, दूसरे कक्ष में प्रवेश कर, एक क्षण में घी की लुटिया ले आता है। शिष्य काँपकर स्तंभित रह गया। गुरु बताता है—मैं एक ब्रह्मराक्षस हूँ, फिर भी तुम्हारा गुरु हूँ। अपने मानव जीवन में मैंने विश्व की समस्त विद्या को मथ डाला। दुर्भाग्य से मुझे कोई योग्य शिष्य न मिला जिसे मैं अपना समस्त ज्ञान दे पाता। इसीलिए मेरी आत्मा संसार में अटकी रह गई और मैं ब्रह्मराक्षस के रूप में यहाँ विद्यमान हूँ। तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मुझे मुक्ति दिला दी। यह उत्तरदायित्व अब तुम पर आ गया। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे, तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।

यह कहानी जो आधुनिक यथार्थवादी कथाओं के शिल्प में नहीं है, एक फैंटेसी है और पुरानी नीति कथाओं, बोध कथाओं के, फेबल के शिल्प में है। इस वक़्त की कहानी, आधुनिक कहानी इस शिल्प में नहीं लिखी जाती। हमारे वक़्त की जटिलता और बहुआयामिता शायद इस शिल्प में नहीं समा सकती। यह शिल्प आज हमें एकायामी लगता है, उसे हम कब का छोड़ आए हैं। यह कहानी कहानी के रूप में कितनी महत्त्वपूर्ण है, मुझे नहीं मालूम। मगर उसमें जो ज्ञानमीमांसात्मक अवधारणा है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। ज्ञान किसी की पर्सनल प्रॉपर्टी नहीं है। वह परंपरा की, सामाजिक व्यवहार की उपज है, उनकी आपसी अंत:र्क्रिया का परिणाम। इस तरह वह हमेशा एक सामाजिक उत्पाद है और उसे समाज को वापस लौटा देना, यह उसके साथ जुड़ी एक आवश्यक ज़िम्मेदारी है। इस तरह यह हमारे समय की, पूँजीवादी ज्ञान धारणा का विरोध करती है। इस वक़्त तो ज्ञान पर क़ब्ज़ा जमाने की और इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स की बातें होती हैं। ज्ञान के मायने भी अब सीमित हैं—उपयोगितापरक या तकनीकी ज्ञान या महज सूचनाएँ या जानकारियाँ। ज्ञान पर क़ब्ज़ा ज़माने की चाहना ज्ञान की प्रकृति से बेमेल है। इस कहानी को पढ़कर हम समझ पाते हैं कि क्यों मुक्तिबोध ब्रह्मराक्षस को इतने स्नेह से याद करते हैं, उनका सजल-उर-शिष्य होना चाहते हैं। क्यों चाहते हैं कि उसका अधूरा कार्य, उसकी वेदना का स्रोत संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक पहुँचा सकें। कहानी में वह लिखते हैं—भाग्यवान है वह जिसे ऐसा गुरु मिले। जब मैं इस कहानी के बारे में सोचता हूँ तो मुझे उनकी दूसरी कहानी ‘मैं फिलॉसफर नहीं हूँ’ भी अनिवार्यतः याद आती है। यह 1939 में लिखी गई एक छोटी-सी कहानी है, और उनकी शायद ऐसी अकेली कहानी जिसमें उनका स्वर तंज़ से भरा है। तंज़ या व्यंग्य मुक्तिबोध की मूल आवाज़ नहीं है। उस कहानी में भी एक गुरु हैं, एक आधुनिक गुरु। एक डॉक्टर ऑफ़ फिलॉसफी, विद्वान माने-जाने वाले प्रोफ़ेसर साहब जो विद्यार्थियों को मेटाफिजिक्स पढ़ाते हैं। वो दार्शनिक, क्रांतिकारी, साम्यवादी, मैटीरियलिस्ट, एथीस्ट, प्रैगमेटिस्ट सब कुछ एक साथ हैं। उनके दिमाग़ में बहुत बारीक ख़्याल आते हैं—मगर सब ख़्यालों के पीछे जो ख़्याल आता है वह यह कि वो बिल्कुल कोरे हैं। टैब्यूला रासा।

वे सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते जाते हैं। हर सफलता पर अपने आपसे पूछते हैं—कहो भाई, अब तो तुम पढ़-लिख गए हो?

फिर आवाज़ आती है—मैं बिल्कुल कोरा हूँ। टैब्यूला रासा।

वह कहते हैं—पढ़ाते-पढ़ाते ऐसा जी होता है कि कप भर चाय पी लूँ और उनसे साफ़-साफ़ कह दूँ कि मुझे कुछ नहीं आता है। मुझ पर विश्वास मत करो। मेरी विद्वत्ता इंद्रजाल है। इसके साथ फँसोगे तो जीवन भर धोखा खाओगे और मुझे नहीं भूलोगे। तब मुझे ऐसा लगता है मानो मेरे दिल से ख़ून बह रहा हो।

‘टैब्यूला रासा’ लैटिन शब्द है जिसके माने हैं—ख़ाली स्लेट। यह एक पारिभाषिक शब्द भी है, एक ज्ञानमीमांसीय अवधारणा जिसके अनुसार जन्म के साथ मनुष्य कोई पूर्वज्ञान, पूर्व संस्कार लेकर नहीं आता। इस अवधारणा के अनुसार जन्म के समय उसका मस्तिष्क एक ख़ाली स्लेट की तरह होता है। सारा ज्ञान अनुभव और अवबोध सामाजिक व्यवहार से आता है। उस ब्रह्मराक्षस जैसे गुरु का मिलना सौभाग्य है… और ज्ञान की प्राप्ति के रास्ते में इस टैब्यूला रासा से टकरा जाना घोरतम दुर्भाग्य।

‘पक्षी और दीमक’ मेरी एक और प्रिय कहानी है। इसे तक़रीबन तीन दशक पहले, तीस साल पहले पहली बार पढ़ा था और तब से उसे भूलना मेरे लिए संभव नहीं हो पाया। दरअस्ल, इस कहानी ने ही अपने को भुलाने नहीं दिया। वह बार-बार मेरे सामने आती रही।

इस कहानी में भी, पहले पाठ में, लगता है कि कुछ घटित नहीं होता, सिर्फ़ बात होती है। मगर सतह से थोड़ा नीचे उतरें, तली तक जाएँ तो हम जान पाते हैं कि यहाँ बहुत कुछ घटित हो रहा है। इस कहानी में नायक या कहानी का मुख्य पात्र अपनी आजीविका के लिए किसी संस्था से जुड़ा है। यह कोई एन.जी.ओ. जैसी संस्था है। उसका सर्वेसर्वा एक साँवले नाटे क़द का भगवा खद्दर कुर्ता पहनने वाला शख़्स है। वह शेवरलेट चलाता है। संस्था को कुछ शिक्षा संबंधी कामों के लिए सरकार से कुछ ग्रांट मिला करती है। एक पूरा, सुव्यवस्थित तंत्र है—झूठी रसीदें पेश कर ग्रांट हड़प कर जाने का। नायक इसका हिस्सा नहीं है, मगर उसमें प्रतिरोध की इच्छाशक्ति भी नहीं है। वह सिर्फ़ ख़ामोश देखता रहता है। उसके दिल के किसी कोने में एक अंधियारा गटर बहता है—आत्मालोचना, दुख और ग्लानि का, उसे लगता है कि वह एक जाल में, बुराई की अनेक चक्रों वाली दैत्याकार मशीन में फँसा है। मगर वह यह महसूस करने के अलावा, दुखी होते रहने के अलावा कुछ नहीं कर पाता। एक श्यामला नाम की नारी है जिससे उसे प्रेम है। वह उसकी उदासीनता पर कुछ वक्र वाक्य कहती है। उस संस्था में उसकी क्या स्थिति है, यह स्पष्ट करने के लिए वह उसे एक कहानी सुनाता है। दरअस्ल, यह वह उसे नहीं अपने आपको ही सुना रहा है। उसके बहाने यह उसका ख़ुद अपने से ही एक वार्तालाप है। एक प्रकार का आत्मस्वीकार या कन्फेशन।

एक पक्षी था। नीले आसमान में ख़ूब ऊँचाई पर उड़ता जा रहा था। एक दिन वह नौजवान पक्षी ज़मीन पर चलती हुई एक बैलगाड़ी देखता है। उसमे बड़े-बड़े बोरे भरे हैं। गाड़ी वाला चिल्ला कर कहता है—दो दीमकें लो, एक पंख दो। उस पक्षी को दीमकों का शौक़ था। वे हवा में या ऊँचाई पर नहीं, सिर्फ़ ज़मीन पर मिलती थीं। नौजवान पक्षी को लगता है कि यह तो बड़ी सुविधा है। दोनों का सौदा तय हो जाता है। अपनी चोंच से एक पर को खींचकर तोड़ने में उसे पीड़ा भी होती है।

मगर बदले में बड़े स्वाद के साथ दो दीमकें दबाकर वह उड़ जाता है। अब उसे गाड़ी वाले से रोज़ एक पंख के बदले दो दीमकें ख़रीदने की लत लग जाती है। एक दिन उसका पिता देख लेता है। वह समझाता है कि बेटे, दीमकें हमारा स्वाभाविक आहार नहीं हैं। …और उनके लिए पंख तो हर्गिज़ नहीं दिए जा सकते। मगर नौजवान पक्षी को लत लग गई थी। उसके पंखों की संख्या घटती गई। अब वह ऊँचाइयों पर पहले की तरह उड़ान नहीं भर पाता, अपना संतुलन नहीं साध पाता। धीरे-धीरे उसकी हालत यह हो गई कि वह आकाश में उड़ ही नहीं सकता था। वह सिर्फ़ एक पेड़ से दूसरे पेड़ तक उड़ पाता। फिर यह भी कम होता गया। अब वह केवल एक डाल से दूसरी डाल तक फुदक पाता था। मगर उसका दीमकें खाने का शौक़ नहीं छूटता। कभी-कभी वह गाड़ी वाला आता ही नहीं था। तब उसे अपने भीतर एक भयानक ख़ालीपन महसूस होता था। उसने सोचा मैं ख़ुद दीमकें ढूँढूँगा। वह पेड़ से उतर कर ज़मीन पर आ गया। फिर एक दिन उसके मन में न जाने क्या आया। वह ख़ूब मेहनत से ज़मीन में से दीमकें चुनकर खाने के बजाय उन्हें जमा करने लगा।

अगली बार वह गाड़ी वाला नज़र आता है तो वह कहता है—देखो मैंने कितनी दीमकें जमा कर ली हैं।

—तो मैं क्या करूँ?

—ये दीमकें ले लो और मेरे पंख मुझे वापस दे दो।

गाड़ी वाला ठठा कर हँस पड़ा—बेवकूफ़, मैं दीमक के बदले पंख लेता हूँ। पंख के बदले दीमक नहीं।

गाड़ी वाला चला गया। वह पक्षी छटपटाकर रह गया। एक दिन एक काली बिल्ली आई और मुँह में उसें दबाकर चली गई। पक्षी का ख़ून टपक-टपक कर ज़मीन पर बूँदों की लकीर बना रहा था।

लेखक लिखता है—श्यामला ध्यान से मुझे देख रही है। कहानी कह चुकने के बाद मुझे एक झटका लगा। हर व्यक्ति के जीवन में एक निर्णायक क्षण आता है, जब उसकी सारी शक्तियों को एक साथ जागृत होना होता है। उसके जीवन में यह वही मूमेंट है। एक संकल्प, एक निश्चय उसके भीतर जागता है। मैं उस पक्षी जैसा नहीं मरूँगा। मैं अभी भी बच सकता हूँ। मुझमें उड़ने की ताक़त अभी बाक़ी है। वह फ़ैसला करता है कि उसका जितना क्षरण होना था, हो चुका। वह अपने आपको वापस पाएगा। वह मुश्किल जीवन जिएगा, कष्ट उठाएगा, संघर्ष करेगा। कहानी में सिर्फ़ इतना ही नहीं, इसके अलावा और भी बहुत कुछ है। कहानी इतनी सरलीकृत नहीं है, उसमें बहुत सारी गुत्थियाँ और जटिलताएँ हैं। शुरुआत में एक खिड़की का ज़िक्र आता है जिसे बंद रखना होता है। खिड़की के पार झाड़ियाँ हैं। वहाँ पक्षी रहते हैं और अंडे देते हैं। कभी-कभी रात-बिरात उनकी चीख़ती आवाज़ें सुनाई देती हैं। वहाँ शिकार की खोज में एक साँप आता है। उन झाड़ियों में रेंगता फिरता है। एक रात उस खिड़की से कथा-नायक के कमरे में भी चला आया था। उसे मुश्किल से किस तरह मारा गया, इसकी बारीक डिटेल्स कहानी में हैं। कहानी के अंत में भी एक मरा साँप आता है। कथा-नायक श्यामला से प्रेम करता है, मगर उसे अपने प्रेम पर ख़ुद ही शंका है।

श्यामला भी गीले सपनों की दुनिया में रहने वाली नहीं, वह बहस करने वाली एक आधुनिक, सचेत नारी है, उसमें एक पथरीलापन है। इन सबकी अपनी व्यंजनाएँ हैं जिनकी वजह से कहानी सघन और अनेकार्थी और बहुआयामी है। मगर कहानी पढ़ने के बाद याद रह जाता है वही पक्षी।

मैंने कहा था कि यह कहानी बार-बार मेरे सामने आती रही है। सबके जीवन में कभी या अक्सर ऐसा मौक़ा आता है, कोई आपको दो दीमकों का ऑफ़र देता है और चुपके से एक पंख ले लेता है। ऐसे मौक़ों पर आपको दृढ़ता से, बिना किसी शंका के, एक साफ़ और निष्चयात्मक तरीक़े से कहना होता है—’नहीं’। जब भी ऐसे पल मेरे जीवन में आए, जैसे वे सबके जीवन में आते हैं और आपके जीवन में भी आते रहेंगे, तब यह कहानी मुझे हमेशा याद आई। दो दीमकें लो, एक पंख दो। इस कहानी ने मुझे ऐसे पलों में याद दिलाया कि क्या कहना है, और वह कह पाने की ताक़त भी दी।

मुक्तिबोध की केवल एक कहानी का ज़िक्र और करूँगा। यह कहानी है ‘जलना’ जो उनकी अंतिम नहीं तो अंतिम कहानियों में है। यह उन्होंने अपने अंतिम वर्षों में लिखी थी और उनके जीवन-काल में प्रकाशित न हो सकी। यह 1960 में लिखी गई थी यानी ‘नई कहानी’ के दौर में, उस वक़्त जब मोहन राकेश, कमलेश्वर, निर्मल वर्मा इत्यादि की शुरू की रचनाएँ सामने आ चुकी थीं। प्रकाशित यह हुई थी उनकी मृत्यु के बाद, 1968 में। यह कहानी कहानी कला के मापदंडों पर भी मुकम्मिल कहानी है।

कहानी में जो घटनाक्रम है, वह इतना साधारण, इतना मामूली है कि आश्चर्य होता है—और उसका वक़्फ़ा इतना छोटा है कि कहानी बस आधे या अधिक से अधिक एक घंटे के अंतराल में पूरी हो जाती है। एक निम्न-मध्यवर्गीय परिवार में सुबह का एक परिचित दृश्य है। परिवार के लोग अभी पूरी तरह जगे नहीं हैं। बाहर आड़ी-तिरछी बारिश हो रही है। चुन्नीलाल वर्मा उर्फ़ चुन्नू, एम.एस.सी., असिस्टेंट टीचर परिवार के लोगों के लिए चाय बना रहा है। आप चुन्नीलाल वर्मा उर्फ़ चुन्नू से पहले मिल चुके हैं। अगर आपको याद नहीं आया तो मैं याद दिलाता हूँ। यह वही तो है, जो भूत का उपचार कहानी में लेखक से, अपने सृष्टा से बहस करने, लड़ाई करने चला आया था। जी हाँ, बिल्कुल वही। जिसकी शिकायत थी कि आप केवल मेरी दुर्वस्था का ज़िक्र करते हैं, मेरे भीतर की भव्यता का नहीं। जिसने कहा था कि जो लोग मुझ पर तरस खाते या दया करते हैं, उनकी ऐसी की तैसी।

वह एक विचारशील, कल्पनाशील व्यक्ति है। वह गणित के नशे में, साहित्य और संगीत की दुनिया में, विचारों की दुनिया में रहता है। यह मुक्तिबोध के पात्रों की ख़ासियत है, वे जिन जीवन-स्थितियों में रहते हैं, उन तक महदूद नहीं रहते, उनके द्वारा कुचले नहीं जा पाते। उनका एक हिस्सा यहाँ होता है, बहुत कष्टकारी जीवन-स्थितियों में, मगर दूसरा हिस्सा इतिहास, भूगोल, फिलासफी, दिक् और काल… कहाँ-कहाँ उड़ान भरता है। मैं इसे कहता हूँ—‘मुक्तिबोधीय उड़ान’। यह उड़ान वह अंत तक भरते रह सके, तो इसका कारण यह था कि जब भी कोई उनके सामने यह प्रस्ताव लेकर आया ‘दो दीमकें लो, एक पंख दो’ तो हर बार उन्होंने एक मज़बूत आवाज़ में कहा—बिना किसी दुविधा के—नहीं।

उसकी स्त्री की आँख खुलती है, वह पाती है कि छाती का उसका दबाव अभी दूर नहीं हुआ है।

सपने में वह न मालूम वह किस-किस पर चिड़चिड़ा रही थी। बाहर पानी बरस रहा है, आड़ा-तिरछा। वह अपने पति को देखती है। उसके मन में तेज़ाबी काला गटर बहने लगा। यह वह आदमी था जिस पर एक ज़माने में वह जान देती थी। लेकिन अब वह बदल गया है। वह उसका पति है। उसके ग़ुस्से का, विक्षोभ का कोई तात्कालिक कारण नहीं है। वह बरसों से उसके भीतर बूँद-बूँद जमा होता आया है। वह तड़ से एकदम उठी। दिल में ज़हर भर कर उसने अपने बग़ल में सोए हुए बच्चे को इस तरह झकझोर कर जगा दिया कि जिससे वह ख़ूब रो उठे, चीख़े, इतना तीखा शोर करे जिससे सब लोग, सास-ससुर, पति, बड़ा लड़का, छोटे चिल्लर-पिल्लर, सब उस कर्कश क्रंदन को सुनकर अशांत और बेचैन हो उठें, हाय-हाय करने लगें। घर भर पर यह उसका प्रतिशोध है। वह सबसे बदला लेना चाहती थी, उस आक्रोश के द्वारा जो ख़ुद उसका अपना नहीं था। पति अस्त-व्यस्त बालों वाली अपनी पत्नी को देखता है और सन्न रह जाता है। वह चुपचाप चाय बना रहा है। जान लेता है कि आज हालात पेचीदा हैं।

चुन्नीलाल वर्मा उर्फ़ चुन्नू का कठिन जीवन है। वह तंगी में रहता है। नया क़र्ज़ लेकर पुराना चुकाता है। इस कहानी में भी दिक् का, काल का ज़िक्र आता है। आपको ध्यान होगा कि ‘भूत का उपचार’ कहानी में ऋण एक यानी माइनस एक के वर्गमूल का ज़िक्र आता है। वह यहाँ भी आता है।

मुक्तिबोध इससे अभिभूत जान पड़ते हैं और क्यों, इसे हम लोग गणितज्ञ नहीं हैं, फिर भी समझ सकते हैं। आप जानते हैं कि किसी संख्या का वर्गमूल होता है, वह संख्या जिसे उसी से गुणा करें तो तो परिणाम वह आए। जैसे चार का वर्गमूल दो। दो गुणा दो बराबर चार। माइनस एक का वर्गमूल एक असंभव, एक काल्पनिक संख्या है। वह एक तार्किक असंभावना है। ऐसी कोई संख्या संभव नहीं है जिसे उसी से गुणा करें तो परिणाम माइनस एक आए। प्लस एक को प्लस एक से गुणा करें तो परिणाम आता है प्लस एक। माइनस एक को माइनस एक से गुणा करें तो भी परिणाम आता है प्लस एक। इस तरह माइनस एक का वर्गमूल एक तार्किक असंभावना है। उसका जीवन में, प्रकृति में कोई वजूद नहीं है। आप कहेंगे कि उसमें अभिभूत होने वाली क्या बात है। वह बात यह है कि एक असंभव संख्या होने के बावजूद गणित में उसका इस्तेमाल वास्तविक कैलकुलेशंस में किया जाता है। गणित जो तर्क का, लॉजिक का शुद्धतम, उच्चतम रूप है, उसमें एक तार्किक असंगति का सहारा लिया जाता है। उसे गणित में अँग्रेज़ी के ‘आई’ से डीनोट करते हैं। अगर गणित में हर संख्या, या सिंबल नेचर की किसी वास्तविक घटना या परिघटना का प्रतीक है, तो इस ‘आई’ का नेचर में कोई वजूद नहीं है। वह सिर्फ़ एक कल्पना है। फिर भी उसकी मदद से विज्ञान की वास्तविक गुत्थियाँ सुलझाई जाती हैं, एक झूठ की उँगली पकड़कर सच तक पहुँचा जाता है। इसमें जो कविता या भव्यता है, वह मुक्तिबोध से अलक्षित कैसे रह सकती थी।

हम उस कहानी पर वापस लौटें। बालों का उलझा जंगल लिए माँ का खाँसता हाँफता बदन, रक्तहीनता के कारण काला और विद्रूप, गिड़गिड़ाकर कहता है—मुझे एक गरम चाय और दे, चुन्नू।

चुन्नू का मन उस आर्त वाणी को सुनकर दुखी हो गया। कहाँ गई माँ की वह पुरानी शान, जब वह घर भर पर शासन करती थी। किंतु आज वह निश्चित संख्या से अधिक एक कप चाय के लिए गिड़गिड़ा रही है। नहीं, उसका कर्तव्य है कि दमे से जर्जर इस देह के लिए व्यवस्था की जाए। अवश्य। अवश्य।

मगर दूध तो ख़त्म हो चका है। सिर्फ़ दो चम्मच गिना-गिनाया उसकी पत्नी के लिए रखा है। अब क्या किया जाए। उसने माँ की तरफ़ देखा और यकायक ज़ोर से हँस पड़ा। माँ को अपनी बाँहों में भर लिया। माँ को तकलीफ़ होने लगी। वह चीख़ उठी—अरे छोड़, छोड़। उसने माँ को जबरदस्ती हाथों से उठा लिया और उसको लेकर लगा नाचने गोल-गोल।

पति कुछ रद्दी काग़ज़ बेच कर दूध लाने के लिए गया है। उसके पीछे पत्नी उस बचे-खुचे दूध से अपने लिए चाय बनाती है। चूल्हे के लाल अंगारों पर उसकी दृष्टि स्थिर है। वह लकड़ियों को आगे सरकाती जा रही है। उनका प्रकाश और गरमी बढ़ते जा रहे हैं। वह याद करती है कल क्या हुआ था, क्यों वह इतनी विक्षुब्ध थी। उसे ऐसी कोई घटना याद नहीं आती। संभवतः ऐसी कोई घटना हुई ही नहीं थी। बस एक विक्षोभ था जिसने उसके मन में आत्मनाशक सपने और भाव तैरा दिए थे। वह सोच रही है। उसके दिल में अभाव का, हानि का दुख भरता गया। हर तीसरे साल बच्चे, जन्म और मृत्यु, क़र्ज़ और अपमान, बढ़ती हुई ज़िम्मेदारियां, और काम, काम, काम। वह चूल्हे के सामने अपने इन्हीं ख़्यालों में गिरफ़्तार है। चूल्हे में से एक चिंगारी तड़ाक से साड़ी के किसी कोने में दुबक कर बैठ जाती है। पति जब लौटता है तो पाता है कि वहाँ कुहराम मचा हुआ है। बच्चे रो रहे हैं। बूढ़ी माँ रोती हुई काँप रही है। बूढ़े बाप के चेहरे पर शमशान की छाया है। उसकी पत्नी नीचे औंधी पड़ी है, पानी में तर। सारा फ़र्श गीला है। शुक्र है आग ज़्यादा नहीं फैली। स्त्री अब भी चुप है, निश्चेष्ट है। वह फटी-फटी आँखों से न जाने क्या सोच रही है। उसका दारिद्रय और भयानक हो उठा है।

…और अकस्मात चुन्नीलाल को लगा कि अब वह अपने एकांत की रक्षा नहीं कर सकेगा। उसे लड़ाई में कूद पड़ना होगा, उसे मुठभेड़ करनी ही होगी। उसे अपने सपने भूल जाने होंगे, परिस्थितियों को वश में करने के कार्य में उसे दक्ष और समर्थ होना होगा। इसके बाद कहानी सिर्फ़ इतनी है कि उसे बरनाल की व्यवस्था करनी है।

कहानी में जो कथा है वह इतनी मामूली है। मगर यह मुक्तिबोध के समर्थ और जादुई हाथ हैं कि कहानी ऐसी बन पड़ती है कि उसके टेक्सचर को जहाँ छुओ, वहाँ अर्थों का विस्फोट होता है। पत्नी का यह चिड़चिड़ापन, उसका ग़ुस्सा, विक्षोभ, उसका लड़ाकूपन… हमें पता चलता है कि यह तो उसके प्रेम की अभिव्यक्तियाँ हैं। वह अपने पति से बेहद प्रेम करती है। यह तो उनका तंगी और अभाव का जीवन है जिसने उनके सहज मनोवेगों को उलट दिया है।

मुक्तिबोध बार-बार वह उड़ान लेते हैं जिसे मैंने कहा है—मुक्तिबोधीय उड़ान, और एक से अधिक बार—और ऐसे स्थलों पर उनका गद्य भी ऐसी ऊँचाई हासिल करता है कि मानवीय और कलात्मक सच्चाई की एक मिसाल बन जाता है। उसे मैं अपने शब्दों में नहीं कह सकता। मुझे इजाज़त दें एक हिस्सा पढ़ने की।

”…और अकस्मात उसे भान हुआ कि मनुष्य अपने इतिहास से जुदा नहीं है, वह कभी भी अपने इतिहास से जुदा नहीं हो सकता। न अपने बाह्य जीवन के इतिहास से, न अपने अंतर्जीवन के इतिहास से। उसका अंतर्जीवन अपने स्वप्नों में, अपने तर्कों और विश्लेषणों में, डूबता आ रहा है। उसे अधिकार है कि वह उसमें डूबता रहे, अपने से बाहर निकलने की उसे ज़रूरत नहीं है। अपने से बाहर वे निकलें, जिनका बाह्य से कोई विरोध हो।

क्या यह सच नहीं है कि गणितशास्त्र में, जिसका उसने एम.एस.सी. तक अध्ययन किया था, एक काल्पनिक संख्या भी होती है? क्या यह काल्पनिक संख्या फ़िज़ूल है? क्या प्रकृति की सूक्ष्म क्रियाआएँ इसी संख्या का अनुसरण नहीं करतीं? क्या ऋण एक राशि का वर्गमूल एक भ्रामक वस्तु है? क्या सीधी रेखा वक्र रेखा का ही एक विशिष्ट रूप नहीं है? क्या यह झूठ है कि एक समय वह भी आएगा, जब वैज्ञानिक विधि-शिल्प इतना बढ़ जाएगा कि मानव जीवन प्रकृति की शक्तियों का आज से अधिक दोहन करके, अधिक विकसित होते हुए, अपने आपको बदल डालेगा? कि आज के प्रश्न और समस्याएँ इतिहास की वस्तु होकर बहुत बार हास्यास्पद भी प्रतीत होती होंगी, उसी प्रकार हास्यास्पद जिस प्रकार बुंदेला नरेश राणा धंग के युद्ध! क्या यह सच नहीं है कि आज से सौ साल बाद सामान्य मनुष्य इतना सुविज्ञ हो जायेगा कि विज्ञान प्राप्त नई सुविधाओं के कारण, वह फिलासफी और पोएट्री के प्रश्नों पर बहस करने लगेगा? अजी, दुनिया और समाज की ज़िंदगी में सौ साल बहुत थोड़े होते हैं। इतिहास की एक पलक गिरती और उठती है कि एक सौ साल हो जाते हैं। उसमें धरा क्या है? मेरे बच्चे के बच्चे उस नई आभा को अवश्य देखेंगे। अजी उसके पहले भी यह संभव है। I don’t care. I will live in my dreams, this is my private world, and I am entitled to live in it, I am not prepared to let others destroy it.”

मुक्तिबोध की कहानियों पर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं हुआ है। उनके कवि, आलोचक, साहित्य चिंतक ने उनके कथाकार पक्ष को आच्छादित किए रखा। फिर ये कहानियाँ अपने रूप और गठन में इस क़दर जुदा हैं कि कहानियों जैसी लगती ही नहीं। यही मानकर चला गया कि वे महज़ उनकी कविताओं के किनारे यूँ ही दर्ज कर दी गई एंट्रीज हैं और उनके मानियों को खोल पाने की कुंजी भी वहीं कहीं होगी—उनकी कविताओं के भीतर। निर्मल वर्मा ने लिखा है—”वे अधूरी और प्रतीक्षारत कहानियाँ हैं। उनमें पहले वाक्य से अंतिम पूर्णविराम तक सब कुछ सपाट, निश्चित, पूर्वनिर्धारित जान पड़ता है। किंतु किस बात की प्रतीक्षा?” इसका जो उत्तर वे देते हैं वह यह है—यह होने वाली घटना कोई और नहीं, कविता है—कहानियों में कविता होने की संभाव्य घटना। कहानी के कथ्यस्थल मे कहीं कविता का टाइमबम है। उसके विस्फोट की प्रतीक्षा में पेड़, झाड़ियाँ, चट्टानें, सरोवर, तालाब, अँधेरी गलियाँ, बर्फ़ से जमे, सहमे और स्तब्ध खड़े रहते हैं। वे स्थिर, बिना हिले-डुले खड़े रहते हैं और हम समझ नहीं पाते वे वहाँ क्यों हैं क्योंकि वे इतने जीवंत और प्राणवान हैं कि केवल कहानी की पृष्ठभूमि नहीं जान पड़ते, लेकिन वे इतने स्थिर, मूक और तटस्थ भी हैं कि कहानी में कहीं भी प्रत्यक्ष रूप से दखल नहीं देते। वे मुक्तिबोध के अजन्मे रूपक हैं—कहानी के ठहरे उपादान—जो होने वाली कविता में सहसा अँधेरी गुफाओं और रहस्यमय सरोवरों में अपना दूसरा जीवन ग्रहण करते हैं।

यह अपने में एक बहुत गहन बात है—शायद कुछ ज़्यादा ही गहन… कुछ-कुछ रहस्यमय। क्या कविता के लिए यह आवश्यक होता है कि पहले कहानी लिखी जाए और फिर उनके कविता होने का इतंज़ार किया जाए। निर्मल वर्मा हमारे बहुत आदरणीय हैं… लेकिन कहे बिना नहीं रहा जाता कि ऐसी रहस्यवादी आलोचना, वह रचना का रहस्य नहीं उजागर करती, उसे भी अपनी तरह रहस्यमय बना देती है। हम यह क्यों न मानें कि इन कहानियों में वह कुछ है जो कविता के तंग कलेवर में नहीं अट सका, जिसने कविता होने से इंकार कर दिया। बहरहाल, मुक्तिबोध की कहानियाँ उनकी कविताओं की तैयारी हैं या उनका विस्तार, कविताओं की तलछट हैं या उनके ऊपर जम आई पपड़ी, इस तरह के सवाल मैं विद्वान आलोचकों के लिए छोड़ देता हूँ। मुझ सरीखे ग़ैरअकादमिक, साधारण पाठक समीक्षा-पद्धतियों और सिद्धांतों से परिचित नहीं होते। पढ़ने के दौरान कुछ सीधी-सादी कसौटियाँ या मानदंड अचेतन रूप से अपने आप बन जाते हैं। वे शायद औरों के लिए बहुत काम के न हों, फिर भी मैं उनमें से कुछ का ज़िक्र करूँगा क्योंकि वादा कर चुका हूँ अपने आपको पूरी तरह उड़ेल देने का।

यह तो एक बुनियादी शर्त है ही कि भाषा के भीतर के दृश्यों का भाषा के बाहर की दुनिया से मिलान होना चाहिए। यह आवश्यक नहीं कि बाहर की दुनिया यथावत भाषा में चली आए, लेकिन उसमें हमारे वक़्त के सचों, रहस्यों, द्वंद्वों और तनावों को समझने के संकेत ज़रूर होने चाहिए। रचना से शायद बाहर की दुनिया में कुछ न बदलता हो, मगर हमारे भीतर तो कुछ बदलना चाहिए। उसे पढ़ने के बाद हम वह न रह जाएँ जो पहले थे। दूसरी कसौटी यह है कि बेशक लेखक को सचाई को तथ्यपरक और निर्मम तरीक़े से रखना चाहिए, लेकिन हताशा फैलाते हुए नहीं। उनमें कोई सपना या उम्मीद ज़रूर होनी चाहिए, चाहे वह प्रच्छन्न हो, थोड़ी-सी हो, धुँधली हो। ऐसी कहानी लिखना गुनाह है जिसमें कोई उम्मीद न हो। एक मायूस कहानी लिखना कुफ़्र है जिसके लिए कोई भी सज़ा काफ़ी नहीं।

लेकिन लोग दुनिया में टूटते, हारते, हताश भी तो होते हैं… तो क्या उनकी कहानी न लिखी जाए, या लिखा जाए तो आख़िर में कोई नक़ली, झूठी उम्मीद दे दी जाए। यह भी नहीं। इसीलिए तो रचना करना एक तनी हुई रस्सी पर चलना है, वह इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी है। राइटर का लाडला संबोधन ऐसे ही नहीं मिलता। टूटना-बिखरना या पराजय हमेशा शर्मनाक नहीं होते। टूटने-बिखरने से भी एक उम्मीद पैदा होती है, लेकिन उसे पहचानने की आवश्यकता होती है। दरअस्ल, मैं जो कहना चाहता हूँ, वह मुक्तिबोध ने ही अपने शब्दों में बहुत अच्छी तरह कहा है :

ओ दृशद आत्मन्
कट जाओ, टूट जाओ
टूटने से विस्फोट—शब्द जो होगा
गूँजेगा जग भर।
किंतु अकेले की, तुम्हारी ही वह सिर्फ़
नहीं होगी कहानी।

इस कविता का आसान भावानुवाद अपने शब्दों में करूँ जो वह कुछ इस तरह होगा : जिस तरह दो अकेलेपन मिल कर एक ‘साथ’ बन जाते हैं, उसी तरह दो मायूसियाँ मिलकर एक उम्मीद बन जाती हैं।

मुक्तिबोध की कहानियों के बीच में कुछ डराने वाले वाक्य अनायास चले आते हैं। ‘क्लाड ईथरली’ कहानी में एक वाक्य आता है—बहुत से लेखक और पत्रकार इन्फ़ॉर्मर हैं। कौन हैं ये लोग? क्या इन्फ़ॉर्म करते हैं और किसे? हमें एहसास होता है कि इस शख़्स को इस दुनिया की रग-रग का पता है। वह तहख़ानों से लेकर आसमानों तक सब कुछ जानता है—इंसान का मन, मानव जाति का अतीत, इतिहास… क्लाड ईथरली, माइनस एक का वर्गमूल, आइंस्टाइन, जगत की रचना, टाइम, स्पेस, तारामंडल और टेब्यूला रासा। वह इर्द-गिर्द से लेकर क्लाड ईथरली तक के बारे में सब कुछ जानता है। वह अनंत दूरियों के पास किसी असंभव तक पहुँचना चाहता है। वह सिर्फ़ एक सचेत, संवेदनशील लेखक नहीं, एक बेचैन, प्रश्नाकुल लेखक है। वह विश्वचेता है। उसका एक हिस्सा आज और यहाँ रहता है, मगर उसमें पूरा समा नहीं पाता। दूसरा हिस्सा… वह शमशेर के शब्दों में पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता है, पूरब से पश्चिम को एक क़दम से नापता है, शताब्दियों के आर-पार आता जाता है। एक निगाह ज़मीन पर रहती है, एक निगाह सितारों की ओर। सिर्फ़ सुबह को शाम से नहीं, वह ज़मीन को आकाश से मिलाता है, टाइम और स्पेस मापता और नापता है। मगर कहानियों में इतना कुछ सिमट नहीं पाता। शायद इतनी विराट सच्चाइयों के लिए कहानी की विधा ही कुछ छोटी हो जाती है। उनकी कहानियाँ किसी अनगढ़ थरथराते विश्व में ले जाती हैं और भाषा भी काँपती, थरथराती-सी जान पड़ती है। भाषा की थरथराहट से रचना श्रेष्ठ या महत्त्वपूर्ण तो हो सकती है, मगर महान रचना तब होती है जब यह थरथराहट थमती है, जब वह एक तवाज़ुन या संतुलन हासिल करती है। इसलिए कहानी विधा के मानदंडों पर वे कहानियाँ, विशुद्ध अकादमिक आलोचना के मानदंडों पर, कुछ कमज़ोर जान पड़ सकती हैं।

मगर इतना होते हुए भी मुक्तिबोध की कहानियाँ हमें इतना कुछ देती हैं। अगर वे असफल हैं तो वह एक भव्य, महान असफलता है। उनकी यह महान नाकामी मुझमें रश्क जगाती है और उसके आगे सारी सफलताएँ निस्तेज जान पड़ती हैं। पता नहीं यह किसने कहा था—कलाकार होने का अर्थ है असफल रहना, और कला असफलता के प्रति वफ़ादारी है। यह वफ़ादारी मुक्तिबोध जीवन भर निभाते रहे।

बस एक आख़िरी बात। निर्मल वर्मा ने यह तो सही लिखा है कि मुक्तिबोध की कहानियाँ अधूरी और इंतज़ार करती हुई कहानियाँ हैं। मगर किस चीज़ का इंतज़ार, इसका जवाब ढूँढ़ने की कोशिश में वे पता नहीं किस मुश्किल, रहस्यवादी रास्ते पर चले गए। मेरे ख़्याल में इसका उत्तर बहुत सीधा-सादा है। एक कहानी की आत्यंतिक आकांक्षा क्या हो सकती है। हर कहानी पूरा होना चाहती है, कहीं पहुँचना चाहती है। वे किसी और चीज़ का नहीं, पूरा होने का, पूरा किए जाने का इंतज़ार कर रही हैं। जो उन्हें पूरा करेंगे, वे कहीं और से, किसी दूसरी दुनिया से, कहीं आसमानों के परे से नहीं आएँगे। वे आपमें से ही तो कुछ होंगे। अब हमें इस सवाल का जवाब मिल गया है कि वो किसका इंतज़ार कर रही हैं। दोस्तो, आपका, आप सबका।

[साल 2014 के किसी महीने में जामिया मिलिया इस्लामिया में दिया गया वक्तव्य।]

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योगेंद्र आहूजा से एक बातचीत यहाँ पढ़ें : ‘सारी मानवीयता दाँव पर लगी है’ और मुक्तिबोध पर एक आलेख और उनके उद्धरण यहाँ : ‘मैं ऊँचा होता चलता हूँ’| ‘झूठ से सच्चाई और गहरी हो जाती है’