महामारी लोगों के दिलों में निशान ज़रूर छोड़ जाएगी
सभी जानते हैं कि दुनिया में बार-बार महामारियाँ फैलती रहती हैं, लेकिन जब नीले आसमान को फाड़कर कोई महामारी हमारे ही सिर पर आ टूटती है तब, न जाने क्यों, हमें उस पर विश्वास करने में कठिनाई होती है।
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इस मामले में हमारे नगरवासी औरों की तरह ही थे—अपने-आप अपने में बंद। दूसरे शब्दों में वे मानववादी थे; वे महामारियों पर विश्वास नहीं करते थे।
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महामारियाँ मनुष्य के नाम से नहीं बनतीं। इसलिए हम अपने आपसे कहने लगते हैं कि महामारियाँ सिर्फ़ दिमाग़ी आतंक हैं, कि वे एक बुरे सपने की तरह गुज़र जाएँगी। लेकिन वे हमेशा आसानी से नहीं गुज़र जातीं और एक बुरे सपने के बाद दूसरे बुरे सपने का सिलसिला शुरू होने की तरह, मनुष्य गुज़र जाते हैं; उनमें से भी सबसे पहले मानववादी महामारी का शिकार होते हैं, क्योंकि वे अपने बचने के लिए सावधानी नहीं बरतते।
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हमारे नगरवासियों का दोष औरों से ज़्यादा नहीं था। वे सिर्फ़ मर्यादा भूलकर यह सोचने लगे थे कि अभी भी उनके लिए सब कुछ संभव हो सकेगा, जिसका मतलब था कि महामारियाँ असंभव हैं। वे अपने काम-धंधों में पूर्ववत् लगे रहे, अपनी यात्राओं की तैयारियाँ करते रहे और दुनिया में होने वाली घटनाओं पर अपनी राय क़ायम करते रहे। भला महामारी जैसी चीज़ के बारे में वे क्योंकर सोचते, जो भविष्य को मिटा देती है, यात्राओं को स्थगित कर देती है और विचार-विनिमय को ख़ामोश कर देती है! वे सोचते थे कि वे आज़ाद हैं; लेकिन जब तक महामारियाँ हैं, तब तक कोई कभी आज़ाद नहीं हो सकेगा।
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जब कोई व्यक्ति डॉक्टर बन जाता है, तब मानव-पीड़ा के बारे में उसके अपने विचार बन जाते हैं और साधारण लोगों की अपेक्षा, उसकी कल्पना का अधिक विस्तार हो जाता है।
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अगर जैसा कि संभव था, महामारी ख़त्म हो गई तो सब कुछ फिर ठीक हो जाएगा। अगर ख़त्म नहीं हुई, तो कम से कम लोगों को पता तो चल जाएगा कि महामारी क्या होती है और उसका मुक़ाबला करने और आख़िर में उस पर क़ाबू पाने के लिए क्या क़दम उठाने चाहिए।
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‘‘हर आदमी किसी महामारी की चर्चा कर रहा है। क्या इस बात में कुछ सचाई है, डॉक्टर?’’
‘‘लोग तो चर्चा करते ही रहते हैं। उनसे ऐसी ही उम्मीद की जाती है।’’ डॉक्टर ने उत्तर दिया।
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यह मत भूलो कि दो तरह के मरीज़ होते हैं—एक वे जो घबरा जाते हैं और दूसरे वे—जिनकी संख्या कहीं ज़्यादा होती है—जिन्हें घबराने का भी वक़्त नसीब नहीं होता।
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हममें से हर व्यक्ति ने महसूस किया कि अब हम सब एक ही नाव पर सवार हैं और हममें से हरेक को जीवन की नई परिस्थितियों के मुताबिक़ अपने को ढालना पड़ेगा। इस तरह, मिसाल के लिए अपने प्रियजनों से बिछुड़ने की पीड़ा जैसी एकदम निजी अनुभूति एकाएक एक ऐसी सार्वजनिक अनुभूति बन गई थी, जिसमें सभी सहभागी थे और भय के साथ-साथ यह निर्वासन के आने वाले लंबे काल-सी सबसे गहरी यंत्रणा देने वाली अनुभूति बन गई थी।
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‘विशेष प्रबंध’, ‘मेहरबानी’ और ‘तरजीह’ जैसे शब्द बिल्कुल बेमानी हो गए थे।
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दीर्घकालीन जीवन-संबंध या आवेगपूर्ण आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कुछ हल्के और टकसाली शब्दों तक ही सिमटकर रह गई, जैसे : ‘‘स्वस्थ हूँ। हमेशा तुम्हारे बारे में सोचता रहता हूँ। प्यार।’’
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ऐसे पति, जिनको अपनी पत्नियों पर पूरा विश्वास था, यह देखकर हैरान रह गए कि वे ख़ुद भी उतने ही वफ़ादार बन गए थे और प्रेमियों को भी ऐसा ही अनुभव हुआ। जो पुरुष डॉन जुआन बनने की कल्पना किया करते थे, वफ़ादारी की मिसाल बन गए थे। साथ रहते हुए जिन बेटों ने कभी अपनी माताओं के चेहरों की ओर आँख उठाकर देखना भी पसंद नहीं किया था, अब स्मृति-पटल पर उनके अनुपस्थित चेहरों की हर झुर्री को हार्दिक वेदना से याद करते थे। इस कठोर और बेरहम जुदाई ने और भविष्य में हमारे लिए क्या बदा है, इसकी अज्ञानता ने हमें अचानक ही पकड़कर हक्का-बक्का कर दिया था और हम उन लोगों की ख़ामोश आरज़ू-मिन्नतों के प्रति जो अभी तक इतने नज़दीक थे, लेकिन भौतिक रूप से इतने दूर थे और जिनकी याद हमें दिन-रात सताया करती थी, किस तरह व्यवहार करें, यह नहीं समझ पा रहे थे। दरअस्ल, हमारी यंत्रणा दोहरी थी; एक तो अपनी और दूसरी उन ग़ैर-मौजूद बेटों, माताओं, बीवियों या प्रेमिकाओं की कल्पित यंत्रणा।
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अन्य परिस्थितियों में हमारे नगरवासी शायद अपनी क्रियाशीलता बढ़ाकर, सामाजिक जीवन में अधिक सक्रिय भाग लेकर अपनी घुटन दूर कर लेते; लेकिन महामारी ने उनको निष्क्रिय बनने के लिए मजबूर कर दिया था, उनका घूमना-फिरना सिर्फ़ उस शहर की सीमा के भीतर ही बाँध दिया था और इस तरह उन्हें अपनी स्मृतियों के सहारे संतोष और राहत पाने के लिए विवश कर दिया। निरुद्देश्य सैर करते हुए वे बार-बार उन्हीं सड़कों पर पहुँच जाते थे, जहाँ से कुछ देर पहले गुज़रे थे…।
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महामारी ने हमें निर्वासन का दंड दिया।
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अगर यह निर्वासन था, तो हम अधिकांश लोग अपने घर के भीतर ही निर्वासित थे।
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जो ख़ुद को कल्पना के हवाले कर देते हैं, वे ज़ख़्मी हो जाते हैं।
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हमारी स्मृति समझौते के लिए तैयार नहीं होती। निश्चित रूप से इस मुसीबत ने जो बाहर से आकर सारे शहर पर छा गई थी, जिसकी वजह से हमें बहुत-सी तकलीफ़ें सहनी पड़ी थीं जो इतनी नाजायज़ थीं कि उन पर क्षुब्ध होना स्वाभाविक ही था। इसने हमें स्वयं अपने लिए यंत्रणा पैदा करने के लिए प्रेरित किया जिससे हम कुंठा को ही स्वाभाविक स्थिति समझने लगे। यह भी महामारी की एक चाल थी, जो उसने हमारा ध्यान असली समस्याओं से हटाने और हमारे दिमाग़ में उलझन पैदा करने के लिए चली थी।
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भय और विरह तो ऐसी भावनाएँ थीं, जिनमें सब लोग साझीदार हो सकते थे; लेकिन उनके विचारों में अभी भी व्यक्तिगत स्वार्थ ही प्रमुख थे।
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इस बीमारी का सचमुच क्या मतलब है, इस बात को कोई अपने आपसे क़बूल नहीं करना चाहता था। अधिकतर लोग सिर्फ़ उन बातों के बारे में ही सचेत थे, जिन्होंने उनके जीवन के साधारण कार्य-क्रम को भंग कर दिया था या जो उनके स्वार्थों को आघात पहुँचा रही थीं। वे या तो परेशान होते थे या नाराज—लेकिन इन भावनाओं से महामारी का मुक़ाबला तो नहीं किया जा सकता था। मिसाल के लिए, उनकी पहली प्रतिक्रिया यह हुई कि उन्होंने अधिकारियों को गालियाँ बकनी शुरू कर दीं।
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लोगों के दिल भी सख़्त हो गए थे, लोग कराहटों के पड़ोस में इस तरह से रहते थे और उनके नज़दीक से इस तरह गुज़र जाते थे जैसे आहें और कराहटें ही लोगों की साधारण और स्वाभाविक भाषा बन गई हों।
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[एक बूढ़े का जवाब :] ‘‘काश भूचाल ही आता। एक ज़ोर का धक्का लगता और क़िस्सा ख़त्म हो जाता। लाशों और ज़िंदा लोगों की गिनती की जाती, बस! लेकिन यह कमबख़्त बीमारी—जिन्हें इसकी छूत नहीं लगी, वे भी हर वक़्त इसके सिवा और कोई बात नहीं सोचते।
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शुरू के दिनों में जब लोगों का ख़याल था कि यह महामारी भी दूसरी महामारियों की तरह है, धर्म का काफ़ी जोर रहा; लेकिन ज्यों ही लोगों को तत्काल ख़तरा नज़र आया तो वे ऐयाशी की तरफ़ ध्यान देने लगे।
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प्रशंसनीय कामों को ज़रूरत से ज़्यादा महत्त्व देने का अर्थ है—इंसान की प्रकृति के सबसे बुरे पहलू को प्रच्छन्न और सशक्त रूप से श्रद्धांजलि अर्पण करना। इस दृष्टिकोण को अपनाने का अर्थ है कि ऐसे काम अनुपम और दुर्लभ हैं, जबकि क्रूरता और उदासीनता अधिक सहज और स्वाभाविक हैं। …और अगर नेकनीयती में विवेक नहीं है तो वह भी उतना ही नुक़सान पहुँचा सकती है, जितना कि मानव-द्रोह और दुर्भावना। अगर समूचे रूप से देखा जाए तो इंसानों में बुराई की बजाय अच्छाई ज़्यादा होती है, लेकिन असली बात यह नहीं है। इंसान कुछ हद तक अज्ञान के शिकार हैं, इसी को हम अच्छाई या बुराई कहते हैं। सबसे बड़ा पाप, जिसका प्रतिकार नहीं किया जा सकता, ऐसे क़िस्म का अज्ञान है जो सोचता है कि वह सब कुछ जानता है और इसलिए उसे हत्या का अधिकार है। हत्यारे की आत्मा अंधी होती है; सच्ची नेकी या सच्चा प्यार स्पष्टदर्शिता बग़ैर संभव नहीं है।
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उन दिनों बहुत से नए नैतिकतावादी पैदा हुए थे जो हमारे शहर में इस बात का प्रचार करते घूमते थे कि महामारी पर कोई बस नहीं चल सकता और हमें विधाता की मर्ज़ी के आगे सिर झुका देना चाहिए।
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ज़िंदा लोगों की सोहबत दिन-ब-दिन ख़तरनाक होती जा रही थी और मुर्दों की सोहबत में बदलती जा रही थी। यह तो ज़ाहिर ही था। इसमें शक नहीं कि अगर कोई चाहता तो हमेशा इस अप्रिय सचाई का सामना करने से इनकार कर सकता था, उस तरफ़ से अपनी आँखें मूँद सकता था या उसे अपने दिल से निकाल सकता था। लेकिन इस प्रत्यक्ष सचाई में एक भयंकर और अकाट्य तर्क है। अंत में यह तर्क तमाम बचाव के सभी साधनों को छिन्न-भिन्न कर देता है। मिसाल के लिए जिस दिन आपके किसी प्रियजन को दफ़नाने की ज़रूरत हो तो आप भला मुर्दों के दफ़न के प्रति कैसे लापरवाही दिखा सकते हैं!
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दरअस्ल, जिस रफ़्तार से मुर्दे दफ़नाए जाते थे उसे देखकर हैरानी होती थी। सारी औपचारिकताएँ धीरे-धीरे ख़त्म हो गई थीं और साधारण तौर पर यह कहा जा सकता है कि ऐसी तमाम रस्मों पर, जो जटिल और विस्तृत थीं, पाबंदी लगा दी गई थी। मरीज़ अपने परिवार के लोगों से दूर ही मर जाता था और रस्म के मुताबिक़ लाश की निगरानी करने पर भी पाबंदी लगा दी गई थी, जिसके परिणामस्वरूप अगर कोई आदमी शाम के वक़्त मरता था तो उसकी लाश रात भर अकेली ही रहती थी, जो दिन के वक़्त मरते थे, उन्हें फ़ौरन दफ़ना दिया जाता था। परिवार के लोगों को ख़बर तो दी ही जाती थी, लेकिन अधिकांश केसों में चूँकि मृतक मरीज़ मरने से पहले परिवार में रह चुका होता था, इसलिए परिवार के सभी लोग छूत के वार्ड में होते थे और उनकी सारी हलचलें ख़त्म हो जाती थीं। लेकिन अगर मृतक परिवार में नहीं रहा होता था तो परिवार के लोगों को सूचित किया जाता था…
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इस बार भी महामारी में उतने ही लोग मरते और दफ़नाए जाते हैं जितने कि पुराने ज़माने की महामारी में दफ़नाए जाते थे, लेकिन अब हम मौत के आँकड़े रखते हैं। आपको मानना पड़ेगा कि इसी का नाम प्रगति है।
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वे लोग भी जिन्हें अपने प्रियजनों से बिछुड़कर तीव्र वेदना हुई थी, प्रियजनों के बग़ैर रहने के आदी हो गए थे। एकदम ऐसा मान लेना सचाई के ख़िलाफ़ होगा। यह कहना ज़्यादा सही होगा कि उनकी भावनाएँ और शरीर दिनों-दिन शोक में घुलते जा रहे थे।
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परछाइयाँ भी क्षीण हो सकती हैं और ज़िंदगी के वे मद्धिम रंग, जो स्मृतियों से पैदा होते हैं, ख़त्म हो जाते हैं।
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सबके दिलों में क्षुद्र और नीरस भावनाएँ थीं। ‘‘अब तो इस मुसीबत को ख़त्म होना चाहिए।’’ लोग अक्सर कहते थे, क्योंकि मुसीबत के वक़्त सब यही चाहते हैं कि वह जल्द ख़त्म हो जाए और दरअस्ल सब यही चाहते थे। लेकिन इस तरह की बातें करते वक़्त हमारे दिल में वह तीव्र आकुलता या प्रचंड क्षोभ नहीं उठता था जो महामारी के पहले दौर में उठा करता था। हमारे दिमाग़ों की धुँधली रोशनी में अब भी कुछ स्पष्ट विचार बच रहे थे, हम दरअस्ल उन्हीं में से एक विचार को व्यक्त किया किरते थे। पहले हफ़्तों के क्षोभपूर्ण विद्रोह का स्थान एक विशाल निराशा ने ले लिया था, पाठक इसे असहायपन न समझें; हालाँकि इसमें एक निष्क्रियता और सामयिक समर्पण था।
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हमारे नागरिक साथियों ने हार मान ली थी और जैसा कहा जाता है, हमने परिस्थितियों के मुताबिक़ अपने को ढाल लिया था, क्योंकि इसके सिवा हमारे आगे कोई चारा नहीं था। उनके मन की उदासी और दुख अभी भी क़ायम थे, लेकिन अब उन्हें उनकी कसक नहीं महसूस होती थी। …यही चीज़ सबसे अधिक निराशाजनक मालूम होती थी…
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उदासी की आदत उदासी से कहीं बदतर है।
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अभी तक जो लोग अपने प्रियजनों से बिछुड़े थे, वे पूरी तरह से दुखी नहीं हुए थे। उनके दुःख की रात्रि में हमेशा आशा की एक किरण झलकती रहती थी, लेकिन अब वह किरण भी बुझ गई थी।
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हर आदमी में विनयशीलता आ गई थी।
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पहली बार लोग बिना किसी हिचकिचाहट के दिल खोलकर अपने प्रियजनों के बारे में बातें करने लगे। सब लोग एक ही तरह के शब्द इस्तेमाल करते थे और अपनी वंचना को एक ही दृष्टिकोण से देखते थे, जिससे वे महामारी के ताज़े आँकड़ों को देखते थे। यह परिवर्तन आश्चर्यजनक था, क्योंकि अब तक वे बड़े जतन से अपनी व्यक्तिगत पीड़ा को जनसाधारण की पीड़ा से अलग सँजोकर रखे हुए थे। अब उन्होंने उसे सर्वसाधारण की पीड़ा में शामिल करना स्वीकार कर लिया था। स्मृतियों और उम्मीदों के बग़ैर वे सिर्फ़ क्षण के लिए जीने लगे। ‘यहीं’ और ‘अब’ उनके लिए सब कुछ बन गए थे। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि महामारी ने धीरे-धीरे हम सबमें प्यार की बल्कि दोस्ती की क्षमता भी ख़त्म कर दी थी। यह स्वाभाविक ही था, क्योंकि प्यार भविष्य की माँग करता है और हमारे पास वर्तमान के क्षणों की पंक्ति के सिवा कुछ नहीं बच रहा था।
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बहुत लंबे इंतिज़ार के बाद इंसान इंतिज़ार करना ख़त्म कर देता है, इसलिए लोग इस तरह दिन काट रहे थे, जैसे उनका कोई भविष्य न हो।
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इंसान सब कुछ नहीं भूल सकता, चाहे उसके मन में भूलने की कितनी ही ज़्यादा ख़्वाहिश क्यों न हो।
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महामारी लोगों के दिलों में निशान ज़रूर छोड़ जाएगी।
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दिन और रात के समय ज़रूर एक ऐसा क्षण होता है, जब आदमी का साहस मंद पड़ जाता है।
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‘‘मैं कहता हूँ डॉक्टर क्या यह सच है कि उन लोगों का एक स्मारक बनाया जाएगा जो महामारी से मरे थे?’’
‘‘अखबार तो यही कहते हैं। स्मारक बनेगा या सिर्फ़ यादगार का पत्थर।’’
‘‘वह तो मैं पहले से ही जानता था और भाषण भी दिए जाएँगे।’’ बूढ़ा फिर पूरे गले से हँसा, ‘‘मैं अभी से बता सकता हूँ कि वे भाषणों में क्या कहेंगे, ‘हमारे प्यारे मृतक’ फिर वे जाकर शानदार दावत खाएँगे।’’
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हम महामारी के ज़माने में जो सबक़ सीखते हैं, उन्हें वह सरल भाषा में बयान करना चाहता था और बताना चाहता था कि इंसानों में घृणा करने योग्य बातों की अपेक्षा प्रशंसनीय गुण अधिक मात्रा में हैं।
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फिर भी उसे मालूम था कि वह जो कहानी बयान करने जा रहा है, वह अंतिम गीत की कहानी नहीं हो सकती। वह सिर्फ़ यादगार के लिए एक प्रमाण होगी कि अगर फिर इंसान को आतंक और उसके निष्ठुर हमलों के ख़िलाफ़ निरंतर संघर्ष करना पड़े तो क्या कुछ करना पड़ेगा और अतीत में क्या कुछ किया गया है। किस तरह अपनी व्यक्तिगत मुसीबतों के बावजूद वे सब लोग, जो संत बनने में असमर्थ हैं, लेकिन महामारियों के सामने सिर झुकाना मंज़ूर नहीं करते, लोगों को रोग से मुक्ति दिलाने की भरसक कोशिश करते हैं।
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जब उसने शहर से उठती हुई ख़ुशी की आवाज़ों को सुना तो उसे याद आया कि ऐसी ख़ुशी हमेशा ख़तरे का कारण होती है। उसे वह बात मालूम थी जिसे ख़ुशियाँ मनाने वाले नहीं जानते थे, लेकिन किताबें पढ़कर जान सकते थे। वह बात यह थी कि महामारी का कीटाणु न मरता है, न हमेशा के लिए लुप्त होता है। वह सालों तक फ़र्नीचर और कपड़े की अलमारियों में छिपकर सोया रह सकता है; वह शयनगृहों, तहख़ानों, संदूक़ों और किताबों की अलमारियों में छिपकर उपयुक्त अवसर की ताक में रहता है…
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यह प्रस्तुति संसारप्रसिद्ध फ़्रांसीसी साहित्यकार आल्बेयर कामू (1913–1960) के उपन्यास ‘प्लेग’ [मूल फ़्रेंच में La Peste (1947), अँग्रेज़ी में The Plague (1948)] के हिंदी अनुवाद (1961, अनुवादक : शिवदानसिंह चौहान, विजय चौहान; प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन) पर आधारित है। इसकी मानवीयता, मार्मिकता और संवेदनशीलता एक तत्कालिक अर्थ में और प्रासंगिक हो सके, इसलिए इस प्रस्तुति में कुछेक जगहों पर प्लेग शब्द की जगह महामारी शब्द का प्रयोग किया गया है।