इस दौर में हँस पाना एक वरदान है
आज सुबह उठते ही देखता हूँ, बारिश-बदली वाले दो दिन ख़त्म हुए। आसमान साफ़ है। सूरज दादा घर की दीवारों पर रंग भर रहे हैं। चिड़ियाँ चहक रही हैं। बच्चे गली में घर के सामने खेल रहे हैं। पापा उन्हें डाँट रहे हैं। दरअस्ल, पूरी गली में एक ही पेड़ है, चमेली का। पापा झाड़ू लगाते हैं। बच्चे पेड़ हिलाकर भाग जाते हैं। फिर से फूलों की चादर बिछ जाती है। यही क्रम चलता रहता है।
आजकल यह चहल-पहल सबको नसीब नहीं होती। चूँकि मैं शहर से दूर हूँ। यहाँ कोविड का प्रकोप कम है। इसीलिए इतना सुंदर वृत्त घट रहा है। अन्यथा महामारी ने सब नीरस कर दिया है। चारों तरफ़ भय है और सन्नाटा।
सोचता हूँ, एक दिन सुबह उठूँ। महामारी के बादल छँट गए हों। सब पहले जैसा हो। बिना मुसक्कों के चेहरे (मेरी बुआ मास्क को मज़ाक़ मुसक्का कहती हैं)। बिना हिचक अमीनाबाद की भीड़ में घूम-घूमकर मोल-भाव। रगड़ खाते कंधों के बीच चौक में अज़हर भाई का पान। निःसंकोच ‘चार मिले चौंसठ खिले, बीस रहे कर जोड़’।
कोरोना न जाने कब जाएगा और कब सब सामान्य होगा?
दिमाग़ में सोशल डिस्टेंसिंग इस क़दर घर कर गई है। मूवी में भीड़ दिख जाए तो एक क्षण को लगता है, इनको अपने जान की परवाह नहीं क्या? ख़ैर, जान की परवाह किसे है? जिन्हें है, वे असहाय हैं। और जिन्हें होनी चाहिए, वे अंधे हैं।
हमारे गाँव के एक चचा कहते हैं, ‘‘कौनौ हेलीकप्टर ते कोरोना छिरकवाय दिहिस। भैया, हम देखेन। अपने गाँवक ऊपर आएक हेलीकप्टर तनिक धीम भा औ काम कैगा अपन। याक-द्वि छिट्टा तौ हमरयो ऊपर परे रहैं।’’ चचा गंभीर थे। बाक़ी सब हँस रहे थे। इस दौर में हँस पाना एक वरदान है।
यह दौर, मौतों का दौर है। इस दौर में संवेदनशीलता बचा ले जाना सबसे कठिन है। हर दिन कोई न कोई जा रहा है। हर जाने वाला थोड़ी संवेदनशीलता ले जा रहा है। मैं देख पा रहा हूँ : वह मुझसे मेरा कुछ छीन रहा है। मैं उसे रोक नहीं रहा। रोकना नहीं चाहता या शायद रोक नहीं सकता।
यह ऐसा दौर है जहाँ आँसू सूख गए हैं। इंसान के रोने की भी सीमा होती है। आख़िर वह कितना रोएगा। क्या हर घंटे रोएगा? इंसान के दुःखी होने की भी एक सीमा है। वह हर क्षण दुःखी नहीं रह सकता। पूरे दिन कैसे दुःखी रहा जाए? ये मौतें दुःख छीने लिए जा रही हैं।
अकेला होता हूँ, लगता है : यह मेरे लिए बिल्कुल नया नहीं है। बस कुछ दिनों की बाधा और फिर से वही संवेदनहीनता। मेरे साथ यह पहले भी हो चुका है। मैं पहले ही संवेदनहीन हो चुका हूँ। पहले-पहल जब न्यूज़-डेस्क पर मौत या एक्सीडेंट की ख़बरें आती थीं। मन दहल जाता था। लेकिन कुछ दिनों बाद ऐसा समय आया, जब एक तरफ़ चेहरे पर हँसी रहती थी और दूसरी तरफ़ मौत की ख़बर बना रहे होते थे। ख़ैर!
लोग जा रहे हैं। पीछे याद छोड़ जा रहे हैं। किसे याद नहीं आती। कौन लोग हैं, जो कहते हैं कि उन्हें याद नहीं आती। याद का तो ऐसा है, जब नहीं आती; तब भी आ ही रही होती है।
मन बाँध देती है। जब आती है, मन में और कुछ नहीं आता। सिर्फ़ याद आती है। पहले मन के कोरे काग़ज़ पर याद का एक काला बिंदु उभरता है। धीरे-धीरे काग़ज़ बिंदुओं से भरता जाता है। एक समय बिंदुओं की सघनता में पहला बिंदु खोजना मुश्किल हो जाता है। जिस याद ने सैकड़ों यादों को जन्म दिया, वही कहीं खो जाती है। जननी का खो जाना कितना कष्टप्रद है!
मन यादों की माँ की खोज में निकलता है। किंतु पहली याद से जुड़ी सैकड़ों यादें जननी को सोख लेती हैं। यह तक खो जाता है कि जननी याद कौन-सी थी? किसी व्यक्ति की, वस्तु की या किसी स्थान की याद। अगर मन में उभरी यादों के नोट्स बनाए जाएँ, और बिंदुवार अलग-अलग यादों को लिखा जाए। शायद संभव है, पहली याद तक पहुँचा जा सके।
लेकिन इसमें एक ख़तरा है, रातें ख़राब होने का। क्योंकि सिर्फ़ अच्छी यादों के नोट्स बनाए जाएँगे, इसका आश्वासन देना संभव नहीं है। अब नोट्स बनेंगे तो मन का मैल भी उसमें शामिल होगा। इसलिए भावनात्मक रूप से यह बहुत कठिन, थकाऊ और निचोड़ने वाला होगा।
अब बात आती है कि यादों के उद्गम तक पहुँचा कैसे जाए? अगर जल्दबाज़ी न की जाए और मन को उसके हाल पर छोड़ दिया जाए। तब कुछ दिनों में मन ख़ुद उस पहली याद को फ़िल्टर करके आप तक पहुँचाएगा। इसके लिए धैर्य चाहिए।
क्या ऐसा संभव है कि मन को उसके हाल पर छोड़ दिया जाए। थोड़ा मुश्किल है। ऐसा एक बार में नहीं होगा। इसके लिए कई महीने-कई साल लग सकते हैं। क्या हम इस भागदौड़ में, जीवन का इतना समय ख़ुद को परिष्कृत करने के लिए दे सकते हैं? बिल्कुल, ख़ासकर आजकल तो दे ही सकते हैं। जब चारों तरफ़ मारे गए लोग व उनकी यादें बिछी पड़ी हैं। और हम घर में क़ैद हैं।
जब कोरोना दुनिया में तबाही मचा रहा था। तब मन में आता था, भारत में ऐसा हुआ तो क्या होगा? हमारे आस-पास ऐसा हुआ तो क्या होगा? कैसे सँभलेंगे हम? कैसे फिर से खड़े होंगे? इतना सब कैसे बर्दाश्त करेंगे? लेकिन अब लगता है, वास्तव में आदमी किसी भी परिस्थिति का आदी हो सकता है।
हे ईश्वर! अब यह सब ख़त्म करो, अभी और कितना? क्या मानव को पत्थर बनाकर ही छोड़ोगे?