हमने चाहा था एक देश

आदरणीय माता जी,

आपकी हालत मालूम हुई। पैसे भी मिल गए। फ़ारूक़ के यहाँ से भी चिट्ठी आई थी और अप्पू के घर से भी। शायद तुम मुझे लेकर बहुत चिंतित हो। एडमिशन अभी नहीं मिल सकता है, क्योंकि क्लास चालू हो चुके हैं, इसके बावजूद मैं पूरी कोशिश कर रहा हूँ। यहाँ पर काफ़ी लड़कों से और लोगों से जान-पहचान हो गई है। पटना कॉलेज का वातावरण अन्य कॉलेजों से अच्छा है, इसीलिए उसी में एडमीशन की कोशिश है।

चूँकि आपको मेरे NDA छोड़ने से दुःख हुआ, क्योंकि बाहर में पैसा लगेगा इसीलिए मैंने ट्यूशन पढ़ाना भी शुरू कर दिया है। 150/- के दो ट्यूशन जो मेरे महीने भर के ख़र्चे के लिए काफ़ी है। आपको अब आर्थिक चिंता से शायद कुछ मुक्ति मिले।

जहाँ तक सामाजिक व्यवस्था के चिंता की बात है, यानी अपने अगल-बग़ल के वातावरण के बारे में तो फ़िलहाल मैंने गाँव की स्थिति को अंदर से निकाल फेंका है। शायद भविष्य में भी मेरी कोई ऐसी चेष्टा नहीं रहेगी जिसका कोई भयंकर दुष्परिणाम निकले। व्यक्ति ख़राब नहीं होता, बल्कि ख़राब होती है हमारी सामाजिक व्यवस्था और चेतना जोकि आर्थिक व्यवस्था के स्तंभ पर टिकी हुई है। हमारी सारी चेतनाएँ और व्यक्ति विशेष के अस्तित्व के मूल में है—आर्थिक स्थिति, अगर हमें किसी व्यक्ति के किसी काम से हानि पहुँचती है तो हमें उसके भूत में जाना होगा और भीतर झाँकना होगा।

समाज में उत्पन्न त्रुटियों का बड़ा ही वैज्ञानिक विकास हुआ है और इसे समझ लेने पर ही हम अपनी ओर से अपने मानव बंधुओं की मानसिकता को समझने में कामयाब हो सकते हैं, क्योंकि हमारी बुर्जुआ व्यवस्था हमें इस आर्थिक तंगी से निकाल नहीं सकती; इसीलिए इसे कोई हक़ नहीं है कि अपनी राजनैतिक व्यवस्था क़ायम रखे।

माँ अगर तुममें ज़रा भी मानवीय चेतना होगी और तुम मेरी बात समझ पाओगी, तब मेरी ही विचारधारा से मिलता-जुलता तुम्हारा भी सोचने का तरीक़ा होगा। हालाँकि यह सब बातें चिट्ठी से नहीं कहीं जा सकतीं, लेकिन डॉक्टर चाचा इसे सिम्पलिफ़ाइ करके तुम्हें समझा देंगे।

मुझे इस सामाजिक व्यवस्था से आंतरिक दुश्मनी है, क्योंकि मैंने इसकी दी हुई प्रताड़नाओं को भोगा है और तुम्हें भी—अपनी माँ को भी—घुटते देख रहा हूँ।

इस व्यवस्था ने हमें 35 साल में कुछ भी नहीं दिया सिवाय एक मज़बूत बुर्जुआ वर्ग के जो हमें और भी नोच-खचोट रहा है। हमको किसी भी प्रकार की सामाजिक आर्थिक राजनैतिक सुरक्षा नहीं दी गई है। अगर कोई कमज़ोर को मार देता है तो सब आँख मूँद लेते हैं, परंतु किसी मज़बूत आदमी को मार देने पर हंगामा हो जाता है। आख़िर हमें अपना संवैधनिक अधिकार भी तो नहीं मिल रहा। आज़ादी के लिए हम यूँ ही नहीं लड़े थे। हमने चाहा था एक देश, जहाँ सब सुखी हों। क्या यही वो सुख है? मामला बहुत पेचीदा है, लिखने पर पन्नों की गिनती नहीं रहेगी। चिंता की कोई ज़रूरत नहीं एडमिशन तो लेना ही है। काम भी होगा। शायद तुम भी किसी दिन गोर्की के उपन्यास ‘माँ’ की कैरेक्टर बनो और मैं तुम्हारा बेटा उसका नायक जो कभी भी सड़ी हुई व्यवस्था से समझौता नहीं करता।

लाल सलाम!

तुम्हारा बेटा
चंद्रशेखर

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‘नई पीढ़ी’ (आइसा का केंद्रीय मुखपत्र, मार्च-2008) से साभार। चंद्रशेखर पर बनी डॉक्यूमेंट्री ‘एक मिनट का मौन’ यहाँ देखें :