रामवृक्ष बेनीपुरी के साथ एक सेलिब्रेशन

रामवृक्ष बेनीपुरी │ स्रोत : गूगल

वे उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दिन थे। बर्फ़ की तरह बहुत तेज़ी से पिघलते हुए अंतिम दिन। वे उस सदी की आख़िरी रातें थीं। मोम की तरह धीरे-धीरे घुलती हुई आख़िरी रातें। वे किसी के आने के इंतज़ार में पलक-पाँवड़े बिछाए हुए गोधूलि और ओस से बहुत भारी दिन और रातें थीं। वे रातें और वे दिन बीसवीं शताब्दी के ताज़े और टटके भोर की अंगराई के तुरंत पहले के थे। मुज़फ़्फ़रपुर में बेनीपुर की धरती पर एक शिशु ने जन्म लिया था। 1899 को 23 दिसंबर के दिन। शिशु ने अभी ठीक से किलकारी भरी भी नहीं कि देखते-देखते वह शताब्दी बीत गई। वह किलकारी मारता रहा और जब थोड़ा होश हुआ तो उसने पाया कि वह सहसा ही एक नई सदी के आँगन में आ गया है। दो सदियों की संधि-वेला में जन्म लेने वाला वह शिशु कालांतर में अपनी कला से देश-देशांतर में छाने लगा। वह मिट्टी की साँस लेता था और हवाओं को सूँघता था। वह लोक में जीता और शताब्दियों के आर-पार सुन लेता था। अपनी नन्हीं-नन्हीं आँखों से वह समूची दुनिया को देख लेने का हौसला भी रखता था। इतना होने पर भी वह अलौकिक या दिव्य बिल्कुल नहीं था। वह माटी की एक ऐसी मूरत था जिसने और भी कई मूरतों में संजीवनी छिड़क दी थी। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि जब वह गया तो उसके साथ यह कला भी जाती रही। उसका नाम था रामवृक्ष, जो कालांतर में बेनीपुरी के नाम से जाना गया।

रामवृक्ष बेनीपुरी का जीवन और साहित्य एक ऐसे सतरंगी इंद्रधनुष की तरह है जिसमें मानव और मानवेतर संवेदनाओं का गाढ़ापन है, रूढ़ियों और जीर्ण परंपराओं से विद्रोह का तीखा रंग है, धार्मिक और सांप्रदायिक दुर्भावनाओं का प्रत्याख्यान है और समाजवाद और मानववाद का अद्भुत सहमेल है। उनकी हरेक कृति जाति और धर्म के सीखचों पर हथौड़े की तरह प्रहार करती है। वह रूढ़ि की ज़ंजीरों और सड़ी-गली परंपरा की दीवारों पर बार-बार चोटें मारती है। रवींद्रनाथ की तरह बेनीपुरी भी शोषण और भय से मुक्त समाज का सपना देखते थे। इसलिए राजनीति में रहते हुए भी हमेशा ज़मीन पर जाकर काम करते थे। भारतेंदु की तरह साहित्य की तमाम विधाओं में मार्के का लिख करके छा जाना चाहते थे। प्रेमचंद की तरह वह इस बात के लिए आज भी प्रेरित करते हैं कि हम लोग राजनीति के पिछलगुए न बनें, बल्कि साहित्य को हमेशा राजनीति के आगे चलने वाली मशाल के रूप में जलाए रखें। बेनीपुरी को पढ़ते हुए बराबर यह एहसास पक्का होता जाता है कि एक लेखक या संवेदनशील व्यक्ति के लिए मानवता के उच्च मूल्यों की प्राप्ति ही सबसे बड़ा लक्ष्य होना चाहिए जिसके लिए जाति, धर्म और संप्रदाय जैसी क्षुद्र भावनाओं का त्याग सबसे पहली शर्त है। इन भावनाओं से चिपका रहकर कोई भी न तो संवेदनशील व्यक्ति बन सकता है और न ही बड़ा लेखक। बेनीपुरी जैसा बनना तो बहुत दूर की बात है। क्योंकि बेनीपुरी का जीवन और साहित्य एक दूसरे का पर्याय है, क्योंकि उनके लिए सिद्धांत और व्यवहार में, कथनी और करनी में कोई फाँक नहीं है, क्योंकि उन्होंने प्रेय की जगह श्रेय मार्ग का चुनाव किया था; इसलिए आज की दिखावे और संपर्क-साधन वाली जटिल संस्कृति में किसी भी सूरत में उनकी नक़ल नहीं की जा सकती। हाँ, उनसे कुछ सीखा ज़रूर जा सकता है।

इसलिए इस बार होली के दिन रामवृक्ष बेनीपुरी का ध्यान आया और ध्यान में आया उनका निबंध ‘तोरी फुलाइल : होरी आइल!’ यूँ तो वह ज़ेहन में हमेशा रहते हैं, लेकिन इस बार उन पर कुछ लिखने का मन हुआ इसलिए यह होली विशेष हो गई। निबंध यों शुरू होता है :
“झुनिया ज़रा-सी गुनगुनाई—“तोरी फुलाइल”; कि झूमक गरज उठा—“होरी आइल!” झुनिया सहम गई; झूमक ने हाथ बढ़ाकर उसके चाँदी के झुमके को झुला दिया!

“अरे, ज़रा लोगबाग देख लिया करो!”

“फागुन में भी झुन्नो!” कहकर हो-हो करता हुआ,वह मतवाला-सा गा उठा—

“फागुन है दिन रस के,
बोल! बोल! हो पिया हँस-हँसके!”

“दोनों हँस पड़े; दोनों लिपट पड़े, फिर दोनों सरसों के खेत में धँसकर घास जुगाने लगे!”

दूसरे निबंधों की तरह यहाँ भी बेनीपुरी पहले एक दृश्य खींचते हैं और उसके बहाने धीरे-धीरे लोक में धँसते हैं। आगे तोरी और होरी के साथ चंदर और चमेली की जोड़ी है। कौवे और कोयल हैं, मोर और पपीहा हैं। बेनीपुरी अकेलेपन या एकांत के रचनाकार नहीं हैं। वह अखिल सृष्टि में युगल भाव की खोज करते हैं। इस युगल भाव में कहीं राग और प्रेम है, कहीं वात्सल्य और ममता है और कहीं बालपन का साहचर्य है। हीरा नाम का एक चपल बालक है जो अपनी बकरियों के पीछे भाग रहा है। उसे एक आवाज़ सुनाई पड़ती है—“ओ,हिरबा,सुन रे!” वह पलटकर दूसरी आवाज़ में कहता है—“सीबू की बेटी, पैर तोड़ दूँगा, जो इस तरह फिर बोली! हीरा कह, हीरा!” वह अपनी लकुटिया से उसे पीटने का इशारा करता है। वह फिर ताने मारती है और सरसों के डंठल दिखलाती हुई कहती है कि इसे मेरे कानों में लगा दो। हीरा ऐसा ही करता है। फिर सोना-हीरा की एक जोड़ी बनती है। बन-चर और बन-देवी की जोड़ी। बेनीपुरी फिर लिख देते हैं—“फागुन है दिन रस के…” और सोना की भवें तिनगने लगती हैं।

आगे वह गाँव की होली में जाते हैं, जहाँ बच्चे-बूढ़े और जवान की कई टोलियाँ बन जाती हैं। एक जगह परिंदों का संवाद है। बाँस की फुनगी पर कबूतर का जोड़ा बैठा है। उजली कबूतरी अपने रँगे हुए पंखों को चोंच से सहलाती हुई कह रही है—“देखो, मुझे भी रँग दिया! वह ललन बड़ा बदमाश लड़का है!” (ललन शायद लेखक का पौत्र है) और ललन तो इतना बदमाश था कि वह कबूतर को ही खोज रहा था। ज्यों ही उसे मौक़ा मिला उसने कबूतर के धूसर पंख भी लाल-लाल कर दिए और “अपने रंगीन गीले पंखों से हवा पर तैरते कबूतर का जोड़ा उड़ा जा रहा था—गटरगूँ, गटरगूँ, गटरगूँ!” इसी तरह सेमल और महुवे की मार्मिक बातें हैं। भौंरे के प्रति तितली का उलाहना है—“बदतमीज़, क्या इस तरह सर्वस्व लूटा जाता है!”

ये हैं बेनीपुरी। शब्दों के चितेरे और क़लम के जादूगर। ये इस निबंध की कुछ झाँकियाँ हैं। परिचय मात्र। इस निबंध में और अन्यत्र भी इस बात पर ध्यान जाता है कि बेनीपुरी के यहाँ ऐसे पात्रों की कमी नहीं है जिनके लिए सरसों के डंठल ही झुमके हैं, गेंदे के फूल ही जूड़ों की शोभा हैं। आभूषण के नाम पर भी चाँदी से आगे कुछ नहीं है। ‘रजिया’ के पाठकों के सामने आज भी बार-बार उसका चाँदी का हैकल चमक उठता है। फूलों और सस्ते आभूषणों के रंग होली के रंग से मिलकर एक हो जाते हैं। बेनीपुरी किसी त्यौहार को सेलिब्रेट करते हुए जीवन के उत्सव को कभी नहीं भूलते। वह त्यौहार पर लिखते हैं और पूरे जीवन को सेलिब्रेट करते हैं। उनके साथ समूचा गाँव और जवार शामिल हो जाता है। वह पहले सामूहिकता की पहचान करते हैं फिर उसे अपनी आवाज़ देते हैं। इसके लिए संवादों को अचूक हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं। उनकी भाषा को कुछ लोग कैशोर्य गद्य कहते हैं। लेकिन मुझे यह बात ठीक नहीं जँचती। इस निबंध में भी हम देख सकते हैं कि परिंदे जब बेनीपुरी के शब्द बोलने लगते हैं तो हम बेनीपुरी को भूल जाते हैं। हम लेखक की उपस्थिति को भूल जाते हैं और उसके कथ्य में खो जाते हैं। किसी भी वर्णन की इससे बड़ी और कोई सफलता नहीं कही जा सकती। बेनीपुरी मानव और मानवेतर के बीच, मनुष्य और शेष सृष्टि के बीच एक संवाद रचते हैं। यह संवाद ‘प्रेज़ेंट कंटीन्यूअस’ शैली में होता है, जो इंटेंसिटी पैदा करता है। वह पूरे दृश्य या घटना को एक अखंड मानवीय चेतना के रूप में ग्रहण करते हैं और हमारे लिए संवेदना के तंतुओं को बिल्कुल ढीला छोड़ देते हैं। इसलिए हम रचनाकार को भूल जाते हैं और सीधे रचना से अपना नाता बना लेते हैं। इस निबंध के अलावा उनका बाक़ी साहित्य भी जातीय चेतना के रंग से सराबोर है।

यह देखकर बहुत ताज्जुब होता है कि (कुछ शोध-ग्रंथों को छोड़ दें तो) हिंदी में रामवृक्ष बेनीपुरी के मूल्यांकन से संबंधित क़ायदे की एक भी किताब नहीं है। हालाँकि हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना ने हमारे महान साहित्यकारों की जातीय चेतना का विश्लेषण करने की ज़िम्मेदारी उठा रखी है, लेकिन रामवृक्ष बेनीपुरी के नाम पर वहाँ भी एक वैक्यूम है। भला हो रामविलास शर्मा का कि उन्होंने जाते-जाते बेनीपुरी के एक चयन की अच्छी भूमिका लिख दी। लेकिन यदि दूसरे लोग भी यही सोचें कि जाते-जाते ही ऐसा कोई काम करना चाहिए तो यह बेहद चिंताजनक होगा।

बेनीपुरी एक महान रचनाकार हैं। इसलिए नहीं कि उन्होंने बहुत अधिक लिखा है, बल्कि इसलिए कि जिन विषयों पर लिखा उन्हें अपना पारस-स्पर्श देकर महान बना दिया। उन्होंने माटी पर लिखा, माटी की मूरतों पर लिखा और उन्हें सोना बना दिया। इस अर्थ में सच में उन्हें एक कीमियागर या अल्केमिस्ट कहा जा सकता है। उनको पढ़ते हुए बार-बार लगता है कि वह अपने शब्दों से समूची सृष्टि को मुखरित कर देना चाहते थे। ‘मुझे याद है’ जैसा आत्मकथ्य, ‘कहीं धूप, कहीं छाया’ जैसी कहानियाँ, ‘माटी की मूरतें’, ‘गेंहूँ और गुलाब’ और ‘ज़ंजीरें और दीवारें’ जैसे शब्दचित्र, ‘अम्बपाली’ जैसा नाटक, ‘क़ैदी की पत्नी’ जैसा उपन्यास, ‘वंदे वाणी विनायकौ’ और ‘नई नारी’ जैसे चिंतनपरक निबंध आज भी उनकी कीर्ति के उजले दस्तावेज़ हैं।

इसके अलावा कविताएँ, जीवनियाँ, यात्राएँ, बाल साहित्य और यशस्वी पत्रकारिता… लंबी फ़ेहरिस्त है। साहित्य में नई अर्थ-मीमांसा की दृष्टि से उनका रचना संसार आज के स्त्री और दलित संबंधी विचार-विमर्श के लिए भी बहुत प्रासंगिक है। अब तो साहित्य अकादेमी द्वारा उनका बहुत अच्छा संचयन प्रकाशित है और राधाकृष्ण प्रकाशन से उनकी ग्रंथावली भी उपलब्ध है। (ग्रंथावली का मूल्य बहुत है, इसलिए उसका पेपरबैक संस्करण आना बहुत ज़रूरी है) दूसरे प्रकाशकों ने उनकी स्वतंत्र पुस्तकों को भी छापना शुरू कर दिया है। ऐसी स्थिति में हमें उम्मीद करनी चाहिए कि ज़िम्मेदार लोग हमारे एक बहुत बड़े साहित्यकार के रचनात्मक योगदान के मूल्यांकन का कुछ प्रयास करेंगे।

इसी निबंध में सबसे अंत में एक और प्रसंग है। “ओ पछवा के झोंके—तूने यह क्या ग़ज़ब किया! सरसों की बासंती साड़ी तार-तार उड़ गई; सेमल की रज़ाई रुई-रुई हो गई… हाँ, अकेली महुआ अब तक मोती टपकाए जा रही है—टपकाए जा रही है : क्या यह बताती हुई—रस का भंडार अभी सूखा नहीं है; फागुन गया, तो चैत आ रहा है!” बेनीपुरी के निबंध ऐसे ही होते हैं। उन्हें पढ़ने का अनुभव मानो एक पूरे ऋतु-चक्र से गुज़रने का अनुभव बन जाता है। होली का ख़ुमार तो दो दिन का होता है, लेकिन बेनीपुरी को पढ़ने का ख़ुमार दो दिन में उतरने वाला नहीं होता। कब होली बीती, कब चैत आया और फिर कब दिवाली आ जाएगी, पता भी नहीं चलेगा।

यही सब सोचते हुए इस बार की होली मना रहा हूँ। भगत सिंह और राममनोहर लोहिया की क्रांतिकारी-वैचारिक विरासत को याद करते हुए और उनके साथ बेनीपुरी को पढ़ते हुए।