दिन के सारे काम रात में गठरी की तरह दिखते हैं

रात की बारिश

रात के चौथे पहर से
बारिश का आख़िरी टुकड़ा लटक रहा है
लैम्पपोस्ट पर क़ायम हुई थकन
पत्तियों पर चमकती गीली रौशनी
एक गुज़रती गाड़ी
सड़क पर जमा पानी के
चिरते चले जाने की आवाज़
रात की बारिशों के
कोई रंग नहीं होते

देर से खुलेगा आसमान
देर से खुलेंगी रेहड़ियाँ, दुकानें
देर से मिलेंगे अख़बार
बेशक्ल बारिश
अपनाती चली जाएगी
सुबह का चेहरा
थमने लगी थक कर
जैसे पहुँच रही हो
प्लेटफ़ॉर्म पर
कोई लंबी दूरी की ट्रेन…

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वे रातें याद आती हैं : जब बाऊजी रात में लैम्प जला कर कुछ लिखने की चेष्टा करते थे।

हम सब, जो सो रहे होते थे, आधी रात में इस तरह लाइट जलाने की बेचैनी नहीं जानते थे और कभी-कभी चिढ़ भी जाते थे। वह इस चिढ़ को भाँप लेते थे और लैम्प बंद करके सो जाते थे। लेकिन वह सोते नहीं थे! इस लैम्प के बुझने से उनकी कविता नहीं बुझती थी। ख़ुदा जाने कि उन कविताओं का क्या हुआ, जिन्हें वह नहीं लिख सके!

कविता एक ख़याल से जन्म लेती है और ख़याल से कविता की यात्रा उतनी ही लंबी है, जितनी जली हुई माचिस की तीली से दीया जलाने की दूरी। माचिस की तीली जैसे ही दीया जलाती है, उसे बुझा दिया जाता है। दोनों ही आग हैं, लेकिन तीली की आग में और दीए की आग में पावित्र्य का अंतर है। माचिस की तीली का उद्देश्य ख़त्म होते ही, उसे प्रयास के साथ बुझा दिया जाता है। कविता लिखे जाने के तुरंत बाद ख़याल से पीछा छुड़ाना होता है, अन्यथा वह आपको अनावश्यक ‘आग’ की चपेट में ले सकता है।

बहुत कुछ और जलाना पड़ सकता है—उसके बुझने तक।

बाऊजी ने जो कविताएँ नहीं लिखीं, उनकी पीड़ा मेरे अंदर मौजूद है। यह एक अलिखित और अनकही विरासत है। यह पीड़ा के बीज दूसरी ज़मीं पर रोपने सरीखा है।

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सह्याद्रि [Western Ghats]

पृथ्वी के इतिहास ने इन्हें नहीं रचा इतनी कोमलता से
जितना कोमल है इनका नाम

किसी ज्वालामुखी के अरसे तक उगलते लावा ने इन्हें किसी सीढ़ी के मानिंद परतदार कर दिया

सह्याद्रि है इतना सुहृदय कि
इसकी ऊँची चोटी में चढ़ा मानुष
अरब सागर से साँस ले सकता है
बादलों को कर सकता है जेब में क़ैद

रात जब आसमान में पिघल रही होती है
लाल मिट्टी में सना हुआ सह्याद्रि अँधेरे के स्याह दलदल में बदल जाता है

समंदर की ओर मुँह कर लेटा यह एक उनींदा देवता है
बाँहों में आग्नेय चट्टानों की रग
और क़दम डूबे हुए हैं किसी खाड़ी में

अनंत नदियों की छींट से कुनमुनाता सह्याद्रि
ध्यान से देखो तो लगता है उठ देगा
किसी रोज़
बदन में लगी सब धूल झाड़ कर…

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सड़कों पर धूप निचाट पड़ी थी। इक्का-दुक्का गाड़ियाँ और जन सड़क पर सरक रहे थे, लेकिन दुपहरी का सूनापन पसरा हुआ था। नारियल के सैकड़ों दरख़्त सिलसिलेवार, समंदर के किनारे-किनारे होते हुए बहुत दूर गए थे, इतनी दूर कि आख़िर का दिखने वाला वृक्ष समंदर से उगा हुआ मालूम हो रहा था। ट्रेन की खिड़की से झाँक कर आँखें अनंत दृश्यों के बोझ से तारी थीं। इसीलिए मैं शहर में धीरे-धीरे साइकिल चला रहा था।

तमिल और फ़्रेंच दोनों ही भाषाएँ मेरे लिए अबूझ थीं। चीज़ें रहस्यमय हो जाएँ तो पूजनीय होने में उन्हें वक़्त नहीं लगता। पूरा शहर एक अबूझ दृश्यजाल में बदल रहा था—रहस्यमय दृश्यजाल जो रिल्के की कविताओं में और थॉमस मान के उपन्यास में मिलता है।

पॉन्डिचेरी : दुपहर से शाम के बीच अजनबियत और पहचान के बीच जूझता रहा।

गैब्रियल गार्सिया मार्केज़ ने किसी ऐसे ही लोक की कल्पना की होगी, जब उन्होंने अपनी पुस्तक ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलीट्यूड’ में कहा होगा : The world was so recent that many things lacked names.

पॉन्डिचेरी, 8 नवंबर 2019

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छुए जाने से भागते तुम्हारे पैर,
छुए जाने की ख़्वाहिशों से बने हैं।

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नींद खुली तो सब कुछ सोया हुआ था। पर्दा हिल-हिल कर रुकता था। बिल्ली देर तक चौखट पर बैठे देखती रही तुम्हें। रसोई से आवाज़ चल-चल कर आती थी—टप-टप-टप…।

कमरे में रविवारों की गंध थी और सोमवारों का डर।

एक जहाज़ आसमान को फाड़ कर क्षितिज में गुम हो गया।

तुमने मुड़ कर देखा कि जागा तो नहीं मैं। कपड़ों से टपकती बूँदों ने फ़र्श पर रंगीन दाग़ छोड़ दिए। आस-पास सब कुछ इतना नींद में था कि फिर चली गईं नींद में तुम : जैसे पानी पर तैरता आईना पानी बन जाए, जैसे हवा में आवाज़ और बाग़ में तितली गुम जाए।

दिल्ली, 2017

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तुम आना उस मौसम में
जब झींगुर
सन्नाटे को तीर-सा भेद रहे हों
जब बच्चों के लिए
कोमल पत्तियों को मोड़ कर
सीटी बजाने का खेल शुरू होता है
तुम आना
जब फ़ुरसत हो जाता है ईश्वर तुम्हारा
मक्के की गोलियों में रस भर कर

तुम आना बारिश की तरह
पानियों में छपाक् करते
घर लौटते बच्चों की तरह आना

आना
जैसे देर रात कविता आती है ज़ेहन में…

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बादल गीले हैं। बारिश रुक गई है।

तार पर चादर झूल रही है। पेड़ पर हरे परिंदों के पंख लगे हुए हैं। निचुड़े बादल की एक बूँद गिरती है चादर पर और सूख जाती है।

सूरज बादल से बाहर आया है : आधी आँखों से आसमान देखता है बच्चा। अनार का झाड़। बरैया चिपकी है झाड़ में लगे फूटे अनार पर।

अनार गिरता है बरैया के साथ। अनार पर ढेरों बरैया की भीड़ है और एक बरैया लदी जाती है—चीटियों की पीठ पर।

पानी पर गिर गया है एक पतंगा। गोबर के उपले पर कुछ कीड़े रेंग रहे हैं। कुछ पत्तों पर छेद हैं। पेड़ की कोटर में दीमक फुसफुसाती है। छप्पर पर काई है। दीवारों का चूना चिपकता है नंगी पीठों पर।

शांत बैठी है गाय, अपने ही गोबर से बने घर के भीतर। नहाने का वक़्त है, नहीं? कोई साइकिल उठा कर निकला है दफ़्तर को। कढ़ाई में बची सब्ज़ी कटोरी में सहिज गई। कोटर में दीमक फुसफुसाती है।

ज़मीन से आसमान तक भागने निकला पेड़ रुक गया कुछ फ़ीट ऊपर जा कर। कुछ घरों पर शाखें गिर गईं इसकी। कुछ के फ़र्श फोड़ दिए जड़ों ने। अँधेरे में दिया जलाता है कोई उसके नीचे। उस रौशनी से भी दिखती नहीं उस देवता की शक्ल। चबूतरे फूट गए। कंचों और ताश की बिसातें जमती रहीं नीचे-नीचे। खेल-खिलवाड़ हुए। प्रेमियों ने उसके पीछे संसर्ग किए। चिलम जली उसकी आड़ में। कोई बच्चा जो खेल के बाद भी घर न लौटा, तो उसी पेड़ के इर्द-गिर्द मिला। पेड़ का पता बता कर सवारियाँ उतरती रहीं। पेड़ के नीचे रुकी बारातें और उन्हीं के नीचे मरहूमों का चिहल्लम खाया गया। यहाँ परदेस में मेरे कमरे के फूटते फ़र्श को देख कर सोचता हूँ, पहुँच रहा होगा अब आसमान तक वह मुहल्ले का बरगद।

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शहर कितना भी बड़ा हो, उसके किनारे ज़रूर होते हैं। मैंने समंदर को शब्द बेचे और चुप्पी ख़रीद ली, सड़कों को बेची राहत और थकान ख़रीद ली। शहर में एक अँधेरा कोना होता ही है—किसी क़िले का, झुरमुट का, रात में बस की आख़िरी सीटों का जहाँ तुम्हारा हाथ पकड़ कर हया में वापिस छोड़ देता हूँ। अजनबी और अज्ञात कोनों का यह ख़याल मुझे विश्वास से भर देता है कि वक़्त पड़ने पर दुनिया हमारी गोद में पड़ी नीली गेंद ही तो है।

गोवा, 2017

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सो गए सब, सबको सुला दिया गया। किसी बच्चे की किलकारी नहीं, लोरियाँ ख़त्म हुईं। चुप हैं पत्ते, नींद भरी है : तारों की आँखों में। परवाने जो चिपके थे रौशनी से, उनका भी तमाशा ख़त्म हुआ। किताबें अलमारी के अँधेरे में क़ैद हैं। कोई साइकिल से घर लौट रहा है, पान की गुमटियाँ खुली हुई हैं। एक ट्रेन गुज़रती है और चिथड़ा-चिथड़ा हो जाता है सन्नाटे का तत्त्व।

ख़याल जलती तीली की तरह चमकते हैं, बुझ जाते हैं। कुछ गुम गया था, आज भी नहीं ढूँढ़ सका। शर्ट का बटन, किश्तें, पौधों को पानी… कुछ न हो सका। दिन के सारे काम रात में गठरी की तरह दिखते हैं। कोई रंगीली पत्रिका, अंतरंग दैहिक कल्पनाएँ, चाय, सिगरेट या मित्र से बातें… किसी में इतना भार नहीं जो नींद के जंगल में मुझे घसीट कर ले जाए। दुनिया क्या है, जीवन क्या? इसका जो भी उत्तर है, उसका आज रात हाथ पसारे इंतिज़ार कर रहा हूँ।

दिल्ली, 2015

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तुम्हारा सौंदर्य एक ज़ोरदार ठहाके में है, किसी मासूम ग़लती में है। तुम क्या कर रही होगी अभी, इस वक़्त?

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अधूरी कविताएँ उम्र भर जागती हैं और उनके कवि?

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तुम्हारे भीतर उतरता हूँ तो लगता है किसी नदी में उतर रहा हूँ। नदी जो हमसे लाखों साल पहले से यहाँ है। नदी जिसके इर्द-गिर्द सभ्यताएँ बसती रही हैं। नदी जिसमें आधा बदन डूब कर, आसमान चढ़े सूरज को दो मुट्ठी जल चढ़ाया जा सकता है।

दिल्ली, 2015

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मैंने तलवार से मृत्यु की स्मृतियाँ माँगीं, बिल्लियों से माँगा अँधेरे का रहस्य।

मैंने पेड़ों से पतझड़ के डर माँगे, सड़कों से पूछा यात्रा का इतिहास।

मैंने रात से लिया परदा जो कमरे और मेरे बीच बिछ जाता है—रौशनी की अनुपस्थिति में।

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लोग चुप्पियों को गुदगुदाते हैं और छोड़ देते हैं—शब्दों का बुलबुला जो साँस ले कर फूट जाता है। लोग बोल रहे हैं कि बना रहे आवाज़ का डर।

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चाँद डरा हुआ है आसमान पर, जैसे छत पर चढ़े बच्चे के पैरों से खींच ली गई है सीढ़ी।

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लालसा का कौन-सा कण ख़ाक सँभाल पाती है—दफ़्न शरीर को निगल कर। इच्छा का कौन-सा तत्त्व राख में बचा रहता है। रात दिन के पैरों पर पैर रख कर चढ़ती है आसमान में। रात की सड़क पर कब से चल रहे हैं तारे। बिस्तर के बग़ल में उतारे जूते घूरते रहते हैं—अँधेरे को—रात भर। तकियों में दफ़्न है—स्वप्न का इतिहास।

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पचमठा का जन्माष्टमी मेला, पिसे धान की पञ्जीरी, चारुकेशी में ‘श्याम तेरी बंसी’ और बड़ों का टोकते रहना कि बुलबुले का खिलौना, निशाना लगाने वाली बंदूक़ से बेहतर है। सबको हामिद चाहिए घर में चिमटे वाला।

घर पे बाबू नाम का मिस्त्री आता था, जिसके साथ मिल कर हमने मिट्टी के गिलाव से कुठरिया बनाई। मुझे तब ही पता चला कि चूने से पुता मकान गर्मी में ठंडा रहता है। यह रेत के बारे में भी सच था जिसे पहली बार नर्मदा के भीतर देखा था… ढेर सारी रेत—कछपुरा पुल पर सिंकती मूँगफलियों के साथ।

विक्रमपुर के पास नर्मदा ज़रा कमज़ोर लगती है, मिर्ज़ापुर के पास की गंगा से बहुत कमज़ोर। बारिश में नदी क्या नदी होती है? वह तो एक ऐसी बालक-सी होती है, जिसकी कनपटी पर थप्पड़ जड़ कर उसका बाप उसे घर ले रहा हो। मटमैली नदियाँ कविता के ज़्यादा काम नहीं आतीं।

मेरे घर के बूढ़ों के जेब में बच्चों को देने के लिए किशमिश-काजू हुआ करते थे। घर के राशन में बीड़ी का कनस्तर आता था। मैंने बीड़ियाँ बँधती हुई देखी हैं। उन बीड़ी वाली औरतों ने कभी नहीं बताया कि तेंदू का पत्ता कभी देवता क्यों नहीं बन पाया, जबकि पीपल-बरगद पवित्र होते हैं?

चमड़े के जूतों ने मेरी एड़ी ख़ूब छीली, तो ऐसे मेरा जूतों से मोहभंग हो गया… पर वे जूते सुंदर लगते थे, इसीलिए मैंने उन्हें सहेज लिया और सैंडल पहनता रहा।

एक दुनिया में आप होते हैं और एक दुनिया आपके फ़्रेम में।

पुणे, 2016

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अकेला

हमेशा ख़ुद के साथ रहो
हाथ में भर लो कुछ भारी-सा
पैरों को अनिश्चित राह में मोड़ दो
प्रेयसी को जता दो कि जा रहे हो
पर लौट आओगे जल्दी
लेते आओगे जो उसने मँगवाया था
जेब में धर लो पैसे
किसी बाज़ार में कुछ ख़रीदने का स्वाँग रचो
जैसे सचमुच कुछ चाहिए!

हँस कर मिलो सबसे
पूछो उनसे शनिवार की बातें
कमर का दर्द
पैसों के दुःख
और सभी लौकिक पीड़ाएँ
वे ख़ुश होते हैं पूछे जाने पर

दुःख पूछ लिया जाए तो महान हो जाता है

ख़ुद को याद दिलाते रहना
कि अब भी अकेले ही हो…

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निशांत कौशिक हिंदी कवि-लेखक और अनुवादक हैं। वह जामिया मिल्लिया इस्लामिया से तुर्की भाषा में स्नातक हैं। तुर्की से उनके अनुवाद में अदीब जानसेवेर, जमाल सुरैया, तुर्गुत उयार और बेजान मातुर की कविताएँ समय-समय पर शाया होती रही हैं। वह इन दिनों बेंगलुरु में रह रहे हैं और भाषा-विज्ञान के एक ग़ैर-अकादमिक छात्र की तरह ख़ुद को बरतते हुए अपना भविष्य ढूँढ़ रहे हैं।