मैंने सूरजमुखी होना चुना है
मैं जब अपनी उम्र के 29वें साल की दहलीज़ पर थी, तब मैंने अपने आपसे वादा किया था कि मैं अपने 30वें साल में वह नहीं रहूँगी जो मैं नहीं हूँ। अब प्रश्न यह है कि मैं हूँ ही कौन? मुझसे पहले बहुत सारे विद्वान इसका उत्तर खोज कर क़लम घसीट चुके हैं और उनकी गर्दा उड़ा देने वाली बातों पर अब किसी लाइब्रेरी में धूल जमी हुई है।
मैं जब यह सब कर रही हूँ तो बता देना चाहती हूँ कि मैंने किताबों में इस सवाल के जवाब तलाशने की कोशिश की है, पर मेरी बुद्धि में केवल कुछ शब्द हैं बस। इस वजह से मेरी ज़िंदगी और ये प्रश्न और कठिन हो गए हैं।
मैंने इस बरस अपना जन्मदिन गोवा में बिताया था। मैं अपने दोस्तों के साथ थी और मैंने यह पाया कि मैं बहुत अकेली हूँ—सब तरफ़ लोगों से घिरे होने के बाद भी। ज़ाहिर तौर मैं उनमें से हूँ जो अपने आस-पास लोगों के होने को उपहार समझते हैं, पर ये बातें मुझे अब अच्छी नहीं लगती हैं; क्योंकि मैं इस प्रश्न से जूझती हूँ—असल में मैं कौन हूँ? यह बात आस-पास के लोग नहीं जानते हैं। असल में मेरे मन में एक ब्लैकहोल जैसा है, जहाँ अब सब ग़ायब हो जाता है। मैं अब लोगों के साथ घुल-मिल नहीं पाती हूँ, क्योंकि मैं ख़ुद से ही नहीं मिल पाती हूँ।
मेरे ये सवाल आज से मेरे साथ नहीं हैं। ये मेरे इतने बचपन से मेरे साथ हैं कि जब मेरे साथ के बच्चे अपने शरीर और शाहरुख़ को देखकर और अपने हथेलियों पर बने आधे और पूरे चाँद से अपना जीवन तय कर रहे थे, तब भी मैं यह जानना चाहती थी कि ये लोग माधुरी के बारे में बात क्यों नहीं करते हैं। (मेरा मतलब लड़कियों से है) मेरे स्कूल में एक लैटर बॉक्स था, उसको सब लैटर टू गॉड कहा करते थे। वहाँ बच्चे अपने मन की बात ईश्वर को लिखा करते थे।
मैं हमेशा से जो भी लिखती थी, मुझे कभी भी वह किसी को दिखाना पसंद नहीं था, क्योंकि जब भी किसी ने उसको देखा तो वह यह कहकर उसको टाल देते कि यह सच नहीं है। उन्हें यह सब एक बच्चे की कल्पना लगता था। हमारे बड़े यह मानते ही नहीं हैं कि बच्चों को भी दुःख हो सकते हैं। आख़िर ये उनके ऐसे अनुभव ही तो हैं जो उन्हें डिस्कनेक्टेड एडल्ट बना देते हैं। जो कमाना जानते हैं, पार्टी करते हैं और न जाने क्या-क्या? पर उनमें से कुछ बुली बन जाते हैं—क्यों, क्योंकि उन्हें कोई सुन नहीं रहा होता है। कुछ इम्तियाज़ अली की फ़िल्मों के किरदार हो जाते हैं और कुछ मेरे जैसे हो जाते हैं, जो ये मान लेते हैं कि बस हम इतने मिसफ़िट हैं कि हमें इस दुनिया में होना ही नहीं चाहिए।
मैं अब पलटकर 14-15 साल की तोषी को देखती हूँ, जिसने गेहूँ-दाल में मिला देने वाली कीड़े मारने की दवा यही सोचकर खा ली थी कि वह मिसफ़िट है। मैं पकड़ी गई और ज़िंदा बच जाना तो जैसे और भी बुरा हुआ। मुझे पता है कि मेरे माता-पिता डर गए थे, पर अपने डर में हम अक्सर सामने वाले को और अधिक चोट पहुँचाना चाहते हैं। अजीब हैं हम लोग! हम कभी अपने डर पर काम नहीं करते हैं। हम और डरपोक होते जाते हैं।
मैं हमेशा से प्यार खोजती रही—कभी माँ-बाप में, कभी दोस्तों में और कभी प्रेमी-प्रेमिकाओं में। मेरे दोस्त वे बने जिन्होंने मुझे हमेशा कमतर ही महसूस कराया, चाहे मैंने जो भी हासिल किया हो। एक बहुत अच्छी दोस्त थी मेरी। घर भी आना-जाना था। मैं 18 की थी, जब उसने स्कूल की फ़ेयरवेल पार्टी में कहा कि अगर तुम्हारा एडमिशन किसी भी कॉलेज में हो गया तो बताना… उस वक़्त मैं जिनको भी दोस्त मानती थी, वे सब हँसने लगे। आज भी उनकी आवाज़ मेरे कानों में गूँज रही है। मैं कहीं भी पहुँच जाऊँ, वह आवाज़ वैसे ही आती रहती है।
मैंने जिनसे प्रेम किया, वह तो एक क़दम और आगे निकले। लड़कियों ने कह दिया कि वे मेरे आगे इंटीमिडेटड महसूस करती हैं। उनकी बात मुझे समझ आती है। उनके लिए कहाँ ही आसान है—एक स्त्री होकर एक स्त्री से प्रेम करना! मेरे लिए भी नहीं है। शायद मैं भी पूरी हिम्मत के साथ आज भी खड़ी नहीं हो सकती हूँ। पुरुषों से प्रेम करना तो मेरे लिए और बुरा साबित हुआ। उन्होंने मुझे गुलाब के फूल दिए, और वह पुरानी बात कि गुलाब के साथ काँटे तो आते ही हैं। मुझे गुलाब वैसे भी पसंद नहीं हैं, पर मैंने कभी बोला ही नहीं कि मुझे ये नहीं चाहिए। मैंने कभी वैसे यह भी नहीं बोला कि मुझे क्या चाहिए…
मैं कभी किसी के लिए प्रेरणा नहीं होना चाहती। मैं कभी यह नहीं सुनना चाहती कि तुम बहुत बहादुर हो, क्योंकि मैं नहीं हूँ! मैं कभी दुबारा गुलाब के फूल नहीं चाहती। मैं बस ख़ुद से मिलना चाहती हूँ। मैं उस तोषी से मिलना चाहती हूँ जो अपने बचपन की डायरी में लिखती थी कि उसे बस ख़ुश रहना है। उसकी ख़ुशी गुलाब से नहीं सूरजमुखी से जुड़ी है।
मैं एक सूरजमुखी हूँ। मैं हर दिन की शुरुआत में बस उम्मीद की तरफ़ ही देखती रहती हूँ। मुझे पता होता है कि सुबह तो होगी ही। यह प्रेम की नहीं, उम्मीद और वनलरबेलेटी की निशानी है। मैं वही हूँ। यह बेहद डेलिकेट होता है—सूरजमुखी ने अपने आपको बचाने के लिए कभी काँटों का सहारा नहीं लिया है। मैंने भी कभी नफ़रत को नहीं चुना और मुझे पूरा यक़ीन है कि एक दिन किसी सूरजमुखी के बाग़ में शाहरुख़ भी मिल ही जाएगा, पर उससे पहले मुझे ख़ुद को प्रेम करना है; ताकि मैं शाहरुख़ के पीछे जाने के लिए यह न भूल जाऊँ कि मुझे सूरजमुखी चाहिए, ना कि गुलाब।
मैं ख़ुद को अब खोना नहीं चाहती—भले ही मैं लोगों की नज़र से ओझल हो जाऊँ या खो ही जाऊँ, पर मैं अब ख़ुद को उम्मीद के साथ मिलना चाहती हूँ। मैं जब गोवा में स्कूबा डाइविंग कर रही थी, उस वक़्त मुझे पहली बार लगा कि मुझे अपने भीतर ऐसे ही जाना है और वहाँ की ख़ूबसूरती देखनी है। जीवन कितना भी काई जमा हो, आप फिर भी सूरजमुखी हो सकते हैं। और हाँ, अगर अगली बार मैं आपसे कहीं मिल जाऊँ तो मुझे प्लीज़ सूरजमुखी ही दीजिएगा।
आप भी पहले आप होना चुनिए, फिर कुछ न कुछ तो हो ही जाइएगा।