क्या आपने कोई ऐसा इंसान देखा है?
कोरोना के क़हर के कारण कुछ अरसे से फ़ेसबुक पर वैसी पोस्टें देखने को नहीं मिल रहीं जो कुछ महीनों पहले रोज़ ही मिल जाती थीं। लगातार एक ही गुहार कि मेरे नाम से अगर कोई व्यक्ति पैसे माँगे तो उसे न दें, वह कोई फ़ेक अकाउंट होगा! जब भी ऐसे पोस्ट देखता, मन कचोट कर रह जाता… पता नहीं कौन होगा? न जाने कैसी मुसीबत में होगा कि ऐसी धोखाधड़ी के अलावा उसके पास कोई रास्ता ही नहीं बचा… पता नहीं कौन होगा उस फ़ेक अकाउंट के पीछे? क्यों उसने अपने नाम से ज़्यादा उस नाम पर भरोसा किया कि लोग मदद कर देंगे? क्या उसे इस बात का अनुमान रहा होगा कि स्वयं उस नाम वाले ही उसकी मदद के ख़िलाफ़ खड़े हो जाएँगे? क्या वह ऐसे लोगों से मदद माँगता था जो मदद करने की हालत में नहीं होते थे, या समर्थ लोगों से ऐसी उम्मीद करता था? कितना माँगता था वह? क्या वह इतना ज़्यादा माँगता था कि मदद देने वाले उन पैसों को देकर मुसीबत में पड़ जाएँ? फिर लोग इतने बदहवास क्यों हैं कि लगातार मदद न देने की गुहार लगा रहे हैं? कुछ मदद करने की हैसियत अगर किसी के मित्र की है तो वह उस मदद को घटित हो जाने क्यों नहीं देता…?
जब भी ऐसी कोई पोस्ट देखता था तो मेरी रातों की नींद इन्हीं सवालों में रात भर बिंधती रह जाती थी। कई बार तो मैं घबराहट में रो पड़ता था कि क्या समाज वास्तव में इतना निष्ठुर हो चुका है? फिर कैसे जान बचेगी अभावग्रस्त लोगों की? बहुत सारी आत्महत्याओं की ख़बरें दिमाग़ में उथल-पुथल मचाने लगतीं… क्या उसे अपने शुभचिंतकों से मदद की उम्मीद रही होगी? क्या उसने कभी ख़ुद को बेशर्म और आत्महीन बनाकर भी इस जीवन को जीने के लिए मदद माँगने का रास्ता चुना होगा? क्या उसने भी मदद हासिल न होने पर छल-कपट के द्वारा अपनी साँसों को बचाना चाहा होगा? या ज़माने की रंगत देखकर किसी से कुछ माँगने से बेहतर चुपचाप से आत्महत्या करना चुन लिया होगा? संपन्न लोगों से भरे इस समाज में अगर कोई अभाव की वजह से आत्महत्या करता होगा तो क्या उस समाज में रह रहे संपन्न लोगों को चैन से नींद आ जाती होगी?
मैंने आज तक के जीवन में जितना भी पढ़ा है, उसमें से मुझे अगर सिर्फ़ एक चीज़ चुनने को कहा जाए तो मैं सुदर्शन की लिखी कहानी ‘हार की जीत’ चुनना चाहूँगा। उस छोटी-सी कहानी में से भी उसका बहुत छोटा-सा हिस्सा, जहाँ से डाकू खड़ग सिंह छलपूर्वक बाबा भारती का घोड़ा छीन लेता है :
“बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे। सहसा उन्हें एक झटका-सा लगा और लगाम हाथ से छूट गई। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए लिए जा रहा है। उनके मुख से भय, विस्मय और निराशा से मिली हुई चीख़ निकल गई। वह अपाहिज डाकू खड़ग सिंह था। बाबा भारती कुछ देर तक चुप रहे और कुछ समय पश्चात् कुछ निश्चय करके पूरे बल से चिल्लाकर बोले, ‘‘ज़रा ठहर जाओ।’’
खड़ग सिंह ने यह आवाज़ सुनकर घोड़ा रोक लिया और उसकी गर्दन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बाबाजी, यह घोड़ा अब न दूँगा।’’
‘‘परंतु एक बात सुनते जाओ।’’ खड़ग सिंह ठहर गया।
बाबा भारती ने निकट जाकर उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा जैसे बकरा क़साई की ओर देखता है और कहा, ‘‘यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका है। मैं तुमसे इसे वापस करने के लिए न कहूँगा। परंतु खड़ग सिंह, केवल एक प्रार्थना करता हूँ। इसे अस्वीकार न करना, नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा।’’
‘‘बाबा जी, आज्ञा कीजिए। मैं आपका दास हूँ, केवल घोड़ा न दूँगा।’’
‘‘अब घोड़े का नाम न लो। मैं तुमसे इस विषय में कुछ न कहूँगा। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना।’’
खड़ग सिंह का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसका विचार था कि उसे घोड़े को लेकर यहाँ से भागना पड़ेगा, परंतु बाबा भारती ने स्वयं उसे कहा कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना। इससे क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? खड़ग सिंह ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, परंतु कुछ समझ न सका। हारकर उसने अपनी आँखें बाबा भारती के मुख पर गड़ा दीं और पूछा, ‘‘बाबाजी, इसमें आपको क्या डर है?’’
सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया, ‘‘लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे।’’ यह कहते-कहते उन्होंने सुल्तान की ओर से इस तरह मुँह मोड़ लिया जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही नहीं रहा हो।”
इससे आगे की कहानी सभी जानते हैं।
दरअस्ल, मैं कोई और ही प्रसंग बताने जा रहा था, पता नहीं क्यों बीच में इस कहानी का ज़िक्र ले बैठा…
एक व्यक्ति मेरे बहुत आत्मीय हैं, बहुत अज़ीज़। उम्र में मुझसे बड़े हैं, मेरे लिए शिक्षक-तुल्य, किंतु हर तरह से मित्रवत हैं। मैं उनकी पहचान यहाँ पर प्रकट नहीं कर सकता। कहानी जानने के बाद आप उसका कारण स्वयं ही समझ जाएँगे। किसी संदर्भ में उन्होंने बहुत संकोचपूर्वक इस बात की चर्चा कर दी थी जो मेरे दिमाग़ में हमेशा के लिए पैठ चुकी है। बहुत सारे मित्रों को यह प्रसंग सुना चुका हूँ। मन हो तो आप भी सुनें…
वे एक दौर में जहाँ नौकरी करते थे, उनके साथ एक सहायक रहा करता था। हालाँकि था तो वह सहायक, लेकिन उनका मुँहलगा था और उनके प्रति पूरी तरह समर्पित। आज भी वह वैसा ही है। परिवार गाँव में रहता था और वहाँ पूरे घर में केवल वही दोनों रहते थे। जिस दिन वेतन मिलता, महीने-भर के ख़र्च से कुछ ज़्यादा ही रुपए वे बिस्तर के नीचे रख देते थे ताकि जिसे जब भी कोई ज़रूरत हो तो वहाँ से निकाल ले। कभी कोई हिसाब-किताब या पूछताछ की आवश्यकता नहीं होती थी।
कुछ समय बाद महीने के अंत आते-आते वह रुपया कम पड़ने लग गया। उन्होंने अपने सहायक से कई बार कहा कि अगर और रुपयों की ज़रूरत रहती है तो वेतन मिलने वाले दिन ही क्यों नहीं बता देते हो? फ़ालतू में बार-बार बैंक जाना पड़ता है। उनका सहायक हर बार बात बदलते हुए यही कहता कि मुझे कोई ज़रूरत नहीं रहती है। ऐसी स्थिति में एक दिन वह खीझ गए और बोले कि अगर ज़रूरत नहीं रहती है तो कुछ महीनों से बार-बार पैसे क्यों कम पड़ जा रहे हैं? मैं तो ज़्यादा निकालता नहीं तो और कौन है यहाँ? उनके सहायक ने कतराते हुए बताया कि कुछ महीने से आपके जो मित्र उधार माँगने आते हैं, वहीं निकाल लेते हैं। इन्होंने अपने सहायक को कस कर डाँटा कि इतना बड़ा लांछन तुम किसी पर कैसे लगा सकते हो? उसने कहा कि दो बार मैंने अपनी आँखों से देखा है। यह जानकर उनकी आँखें डबडबा गईं।
दरअस्ल, दो-तीन महीने से इनके एक मित्र की आर्थिक परेशानी बढ़ गई थी। तो वह कभी-कभी इनसे उधार माँगने आ जाते थे जिन्हें ये ससम्मान देने में कभी कोई कोताही नहीं करते थे। उनकी आँखें यह सोचकर छलक उठीं कि लगता है उन्हें जितनी ज़रूरत है, उतना वह उधार माँग नहीं पा रहे हैं; इसीलिए उन्हें चोरी करने पर मजबूर होना पड़ रहा है। उन्होंने बताया कि उनकी चोरी की वजह से वह स्वयं शर्मिंदगी महसूस करने लगे थे। मानो उनसे कोई अपराध हुआ हो!
आगे से कुछ अरसे तक जब भी वे मित्र उधार लेने के लिए आने वाले होते थे, ये जान-बूझकर बिस्तर के नीचे अधिक रुपए रख देते थे और कुछ देर के लिए किसी बहाने से उस कमरे से बाहर निकल जाते थे। अपने सहायक को भी उन्होंने यही निर्देश दे रखा था ताकि बिस्तर के नीचे से रुपए उठाने में उन्हें कोई परेशानी न हो।
मुझे नहीं लगता कि इसके बाद कुछ और लिखने की ज़रूरत है। मुझे अच्छे इंसान तो बहुत सारे मिले हैं, किंतु मदद करने का ऐसा उदाहरण दुर्लभ है।
क्या आपने कोई ऐसा इंसान देखा है?