कभी-कभी निकम्मी आदतों से भी आराम मिलता है
मनुष्य की पशुता को जितनी बार भी काट दो, वह मरना नहीं जानती।
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अस्त्र बढ़ाने की प्रवृत्ति मनुष्यता की विरोधिनी है।
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शब्दों के भी भाग्य होते हैं।
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कभी-कभी निकम्मी आदतों से भी आराम मिलता है।
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यद्यपि कवियों की भाँति हर फूल-पत्ते को देखकर मुग्ध होने लायक़ हृदय विधाता ने नहीं दिया है, पर नितांत ठूँठ भी नहीं हूँ।
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कठोर संयम और अनुशासन के बिना मनुष्य किसी भी सद्गुण को नहीं अपना सकता।
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जब तक नाना विषय विकारों की ओर खींचने वाली इंद्रियाँ वश में नहीं आ जातीं, तब तक बुद्धि प्रतिष्ठित नहीं होती।
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छोटे स्वार्थ निश्चय ही मनुष्य को भिन्न-भिन्न दलों में टुकड़े-टुकड़े कर रहे हैं, परंतु यदि मनुष्य चाहे तो ऐसा महासेतु निर्माण कर सकता है, जिससे समस्त विच्छिन्नता का अंतराल भर जाए।
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कवि जितना सामंजस्यप्रवण होता है, क्रिटिक उतना ही विश्लेषणप्रवण।
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कल्पना और आशावादिता साध्य नहीं, साधन हैं; प्रिय और प्रेयसी लक्ष्य नहीं, उपलक्ष्य हैं; क्रीड़ा और कला प्राप्य नहीं, प्रापक हैं।
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यह विचार कि स्त्री ही स्त्री को समझ सकती है और पुरुष स्त्री को नहीं समझ सकता, किसी बहके दिमाग़ की कल्पना-मात्र है।
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पुरुष का जब स्त्री-चित्रण पढ़ा जाए तो उसकी कल्पनात्मक प्रवृत्ति से सदा सतर्क रहना चाहिए और स्त्री का जब स्त्री-चित्रण पढ़ा जाए तो उसकी रहस्यात्मक प्रवृत्ति से सावधान रहना चाहिए।
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हिंदी एक अत्यंत शक्तिशाली जनसमुदाय की मातृभाषा है। उसको अपनी हरकतों से उपहासास्पद बनाने वाला अक्षम्य अपराधी है।
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मनुष्येतर जगत में इच्छा तो है, पर उसे रूप देने की क्षमता उसमें नहीं है। मनुष्य में इच्छा भी है और उसे रूप देने का सामर्थ्य भी। यही एक ऐसी बात है, जिसने मनुष्य को संसार का अप्रतिद्वंद्वी जीव बना दिया है।
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सारे मानव-समाज को सुंदर बनाने की साधना का ही नाम साहित्य है।
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दान, पुण्य, परोपकरादि बातें साहित्य और कला की प्रेरणा के फल हैं।
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जो जाति साहित्य के सर्वोत्तम रूप को समझ सकती है, वह मनुष्यता के सर्वोत्तम रूप को समझ सकती है।
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बड़ी चीज़ वह है, जो मनुष्य को आहार-निद्रा आदि पशु-सामान्य मनोवृत्तियों से ऊपर उठाती है, जो उसे देवता बनाती है। साहित्य का कार्य यही है।
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जहाँ तक स्वार्थ का संबंध है, मनुष्य पशु ही तो है। अगर पशु कहना कुछ कड़ा मालूम होता हो तो उसे ‘बड़ा पशु’ कहिए। पशु का स्वार्थ छोटा होता है और मनुष्य का बड़ा।
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जिस शक्ति के पीछे विवेक और औदार्य नहीं होते, वह ग़लत दिशा में ले जाती है।
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अतीत ही वर्तमान को जन्म देता है। उसके दोष-गुण से वर्तमान प्रभावित रहता है।
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साहित्य का इतिहास ग्रंथों और ग्रंथकारों के उद्भव और विलय की कहानी नहीं है। वह काल-स्रोत में बहे आते हुए जीवंत समाज की विकास-कथा है।
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इतिहास को समझने का अर्थ होता है, जीवन-प्रवाह को समझना।
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हजारीप्रसाद द्विवेदी (1907-1979) हिंदी के समादृत साहित्यकार हैं। यहाँ प्रस्तुत उद्धरण उनके निबंध-संग्रह ‘कल्पलता’ (ज्ञानमंडल लिमिटेड, बनारस, संस्करण : 1951) से चुने गए हैं।