‘लेखक होने का अर्थ जानना है’

शैलेश मटियानी (14 अक्टूबर 1931–24 अप्रैल 2001) हिंदी के अनूठे कथाकार हैं। उनका महत्त्व इसमें भी है कि वह सिर्फ़ कथा-कहानी-उपन्यास तक ही सीमित रहकर अपने लेखकीय कर्तव्यों की इति नहीं मानते रहे, बल्कि एक लेखक होने की ज़िम्मेदारियाँ समाज में क्या हैं, इसे भी समय-समय पर दर्ज करते रहे। उनका कथेतर गद्य इस प्रसंग में हिंदी का अप्रतिम कथेतर गद्य है। इस गद्य से ही दस बातें यहाँ प्रस्तुत हैं :

शैलेश मटियानी │ स्रोत : किताबघर प्रकाशन

लेखक को प्रतिमा नहीं प्रतिमान बनना होता है।

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मनुष्य को जानने का उपाय सिद्धांत नहीं संवेदना है।

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लेखक को द्रष्टा ही नहीं श्रोता भी होना होता है।

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किसी भी बड़े लेखक की शोभा इसी में है कि वह विचार किए जाने की स्थितियाँ संभव करे और उस पर विचार किया जाए।

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बेईमान विद्वान से ईमानदार मूर्ख की नैतिकता बड़ी होती है।

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लेखक होने का अर्थ जानना है और यह हमें जानना ही चाहिए कि उत्सर्ग बिना लेखक होना संभव होता नहीं।

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‘शब्द’ यदि अनीति और असुंदर के प्रतिरोध में है, तो मनुष्य को आंदोलित और अभिप्रेरित करता है, और यदि नहीं; तो कुंठित, बाधित और दिग्भ्रमित करता है।

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ज़िंदा रहने के लिए कायरता ज़रूरी है।

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प्रार्थना गंतव्य तक पहुँचा सकती है। यह भीतर का परिधान होती है। इसके चिथड़े भी हो जाएँ तब भी इसे धारण करने के सिवा कोई रास्ता नहीं।

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कभी-कभी मृत्यु ईश्वर के द्वारा की गई हत्या होती है।

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संदर्भ :

प्रारंभिक सात उद्धरण शैलेश मटियानी की पुस्तक ‘लेखक और संवेदना’ (विभा प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण : 1983) से और अंतिम तीन उद्धरण 2 जुलाई 2000 को अर्द्धविक्षिप्त अवस्था—भयानक हताशा और अवसाद—में शैलेश मटियानी द्वारा प्रख्यात साहित्यकार गिरिराज किशोर को लिखे पत्र से हैं।