सात युवाओं का नज़रिया

नई पीढ़ी के लेखन से ही हिंदी साहित्य और समाज को नई ऊर्जा मिलेगी। उसे पता है कि बाज़ार के लिए लिखना बाज़ारू होना नहीं है। विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय युवा न केवल अपनी अस्मिता को लेकर सजग हैं, बल्कि अपनी ज़िम्मेदारी को भी बख़ूबी समझ रहे हैं। वे उन ख़तरों से भी गहरे वाक़िफ़ हैं जिनको खत्म किए बिना समाज लोकतांत्रिक और समावेशी नहीं हो सकता। ये विचार सामने आए गए सोमवार (28 फ़रवरी 2022) की शाम भविष्य के स्वर में, जिसमें अपने-अपने काम से नई लकीर खींच चुके सात युवाओं ने अपना-अपना अनुभव और नज़रिया साझा किया। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित राजकमल प्रकाशन की 75वीं वर्षगाँठ पर हिंदी भाषाभाषी समाज के साहित्यिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक परिवेश को उन्नत बनाने में राजकमल प्रकाशन की भूमिका पर विस्तार से चर्चा हुई।

राजकमल प्रकाशन दिवस के जलसे में आयोजित ‘भविष्य के स्वर’ में जिन सात चर्चित युवा प्रतिभाओं ने व्याख्यान दिया उनमें यायावर-लेखक अनुराधा बेनीवाल; अनुवादक, यायावर-लेखक अभिषेक श्रीवास्तव; लोकनाट्य अध्येता, रंग-आलोचक अमितेश कुमार; अध्येता-आलोचक चारु सिंह; लोक-साहित्य अध्येता, कथाकार जोराम यालाम नाबाम; कथाकार, गीतकार-गायक नीलोत्पल मृणाल और चित्रकार, फ़ैशन डिजाइनर मालविका राज शामिल थे।

राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी ने कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए कहा, ‘‘75 वर्ष पहले एक सपना देखा गया था। एक सफ़र शुरू हुआ था। आज वह सपना हक़ीक़त के रूप में हमारे सामने है। राजकमल को हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ प्रकाशन के रूप में आप सबका विश्वास अर्जित है। अब हम एक नए प्रस्थान की ओर अग्रसर हैं। हमारा प्रयास रहेगा कि राजकमल भारतीय और विदेशी भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियों को व्यवस्थित और नियमित रूप से हिंदी में तो लाए ही, साथ ही यह अपने यहाँ से प्रकाशित हिंदी कृतियों को अनुवाद के ज़रिए हिंदीतर पाठकों तक पहुँचाने में भी मज़बूत पुल बने।’’

उन्होंने आगे कहा, ‘‘हमारा मानना है कि नई पीढ़ी की रचनात्मकता ही समाज का भविष्य है। उसको सामने लाकर ही लगातार बदल रहे परिदृश्य में सकारात्मक हस्तक्षेप किया जा सकता है। इसलिए हमने नई पीढ़ी की रचनात्मकता से संवाद करने, उसको सामने लाने की हमेशा कोशिश की है। इसी प्रयास की एक कड़ी है राजकमल स्थापना दिवस के सालाना जलसे में होने वाला—‘भविष्य के स्वर’। यह हमारा विचारपर्व है। इसके ज़रिए हमारा मक़सद साहित्य समेत विभिन्न क्षेत्रों में नई लकीर खींच रहे युवाओं के अनुभवों और सपनों को स्वर देना है। हमें उम्मीद है कि भविष्य के स्वर-2022 से निकले विचार निश्चय ही प्रेरक होंगे।’’

‘भविष्य के स्वर’-2022 की शुरुआत अमितेश कुमार के व्याख्यान से हुई ‘रंगमंच, लोकतंत्र और समाज : भविष्य के सवाल’ पर उन्होंने कहा रंगमंच सहभागिता और सामुदायिकता की कला है। उसे दूरी बनाकर नहीं किया जा सकता। रंगमंच के अंदर जीजिविषा का तत्त्व है। कोरोना काल के आघात के बावजूद अपने होने को साबित करने के लिए रंगकर्मियों ने प्रदर्शन की संभावनाओं की तलाश शुरु की और घरों में बंद लोगों तक पहुँचने की कोशिश की। पहले रिकार्ड की गई प्रस्तुतियों का डिजिटल प्रसारण हुआ, उसके बाद लाइव प्रस्तुतियाँ हुईं और फिर डिजिटल थिएटर की संभावना तलाश की गई।

उन्होंने आगे कहा, ‘‘हम आज दृश्य के विस्फोट के युग में रह रहे हैं… दृश्य हम तक बिना किसी बाधा के पहुँचता है, बस एक स्पर्श की दूरी भर है। रंगमंच तक आपको पहुँचना पड़ता है, इसमें श्रम है। आपको स्पेस तक जाना पड़ेगा तभी आप रंगमंच देख पाएँगे और यह श्रम ख़ासकर हिंदी समाज, जिसमें बुद्धिजीवी भी हैं और संस्कृति की दुनिया के लोग भी, नहीं करना चाहते। समाज रंगमंच से जितना दूर चल गया है, रंगमंच की बुनियादी वृत्ति अभिनय के उतना ही नज़दीक आ गया है। अपने को दर्ज करने और प्रसारित करने की प्रौद्योगिकी सुविधा ने लोगों को उकसाया है कि वह अपनी उस वृत्ति को पोषित करें जिसका अब तक दमन करते आए हैं।’’

चारु सिंह ने इस मौक़े पर ‘साहित्य का इतिहास लेखन और नई दिशाएँ’ विषय पर बात करते हुए कहा, ‘‘एक दौर में नई कविता, नई कहानी और नई समीक्षा की बात की जाती थी। हमारी पीढ़ी भी एक नएपन की तलाश में है। नयापन पुराने का नकार नहीं है, बल्कि उससे संवाद करना है। यह संवाद संस्कृति की शुरुआत से चला आ रहा है और चलता रहेगा। हर पीढ़ी की एक विडंबना रही है कि वह अपने विचारों और आग्रहों के ताज़ेपन पर विश्वास करती है और तब तक अपने नज़रियों और नई दिशाओं को प्रस्तुत करती है,जब तक एक नई पीढ़ी नई दिशाओं के साथ खड़ी नही हो जाती। यह प्रक्रिया अपनी गति से चलती रहती है। यह प्रक्रिया आज भी जारी है जिसमें हम अपने नज़रियों से हस्तक्षेप कर रहे हैं और अपनी अपेक्षाएँ भी ज़ाहिर कर रहे हैं।’’

अरुणाचल प्रदेश के न्यीशी समुदाय से ताल्लुक रखने वाली जोराम यालाम नाबाम ने ‘धर्म और धर्मसत्ता का द्वंद्व : आदिवासी जीवन दर्शन का भविष्य’ पर बोलते हुए कहा, ‘‘आदिवासी किसे कहते हैं? इस संबंध में बहुत से लोगों ने बहुत कुछ कहा है। कुछ ने उनको महिमामंडित किया है तो कुछ ने उनको पिछड़ा, बर्बर, इत्यादि बताया। आदिवासियों से बिना पूछे उनका नामकरण किया गया जैसे एनिमिज्म, एनिमिस्ट, प्रिमितिज्म, एबोर्रिजिनल, आदिवासी, जनजाति इत्यादि। बेहतर होगा कि आदिवासी स्वयं अपना नाम जो बताएँ शेष समाज उसी को स्वीकार करे।’’

उन्होंने आगे कहा, ’’भारतीय संविधान ने आदिवासियों को सांस्कृतिक रूप से एक विशिष्ट समुदाय माना गया है, लेकिन उनकी कोई स्वतंत्र धार्मिक पहचान नहीं हैं। आदिवासियों के लिए धर्म का अर्थ है प्रकृति के साथ अभिन्नता। आदिवासी दर्शन की बात करते समय इसका ख़याल रखा जाना चाहिए कि हमारे पास कोई लिखित धर्मग्रंथ नहीं है। अभी तक हमने कोई धर्मग्रंथ नहीं लिखा। कोई शास्त्र नहीं लिखा। हमारी ज़िंदगी सिद्धांतों के निश्चित दायरे में नहीं बँधी। हमारी स्वतंत्रता ही हमारा मूलभूत सिद्धांत है।”

अनुराधा बेनीवाल ने ‘धारणाओं से बाहर की दुनिया’ पर कहा, ‘‘सब अपनी अपनी सोच और कंडीशनिंग के चश्मों से सबको देखते हैं, नापते-तोलते हैं, जिसमें कुछ सच होने का तुक्का ज़रूर लग सकता है, ज़्यादातर होता नहीं है। धारणाएँ सिर्फ़ ग़लत या बुरी नहीं होतीं। हर तरह की होती हैं। दिक़्क़त तब शुरू होती हैं, जब हम अपनी बनाई धारणाएँ औरों पर थोपने लगते हैं, जब खाँचों में जबरदस्ती फिट करने की कोशिशें की जाती हैं। कोई बने-बनाए खाँचों में फ़िट नहीं बैठता तो उसे ग़लत क़रारा दे देना और उसको बदलने की कोशिश करना क्रूरता है, ग़लत है।’’

उन्होंने कहा, ‘‘मैं अपनी लिखाई के ज़रिए इन्हीं निर्धारित धारणाओं, स्टीरियोटाइप को तोड़ने की कोशिश कर रही हूँ। जितने लोग उतने तरीक़े और कोई तरीक़ा किसी से बेहतर या कमतर नहीं। मैंने अपनी पहली किताब ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ में जाने-अनजाने में कुछ धारणाएँ तोड़ी थी। अपनी आने वाली किताब ‘लोग जो मेरे अंदर रह गए’ में मैं जानबूझकर ऐसा कर रही हूँ। आगे की लिखाई में मैं सिर्फ़ औरों के स्टीरियोटाइप ही नहीं ख़ुद के स्टीरियोटाइप तोड़ने की कोशिश करूँगी, जो हमने ख़ुद के लिए बना लिए हैं। हमें किसी भी तरह का होने की ज़रूरत नहीं, हम अपनी तरह के हैं।’’

मालविका राज ने ‘परंपरागत कला का पुनरावलोकन : अस्मिता की दावेदारी’ पर कहा, ‘‘मैं मधुबनी कला के माध्यम से समकालीन घटनाओं को अपने चित्रों में दर्शाती हूँ। मैंने नीफ्ट मोहाली, चंड़ीगढ़ से फ़ैशन डिजाइनिंग की है, पर चित्रकला के प्रति प्रेम ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। स्कूल के शुरुआती दौर में मैं मिथिला पेंटिंग सीखी थी। सीखने के दौरान ही मुझे पता चला कि शूद्र होने के कारण मैं मधुबनी चित्रकला की तांत्रिक शैली नहीं सीख सकती। मुझे बताया गया कि ब्राह्मण ही इस शैली में चित्रण कर सकते हैं। शूद्रों के लिए यह शैली वर्जित है। मैं इस अंधविश्वास से काफ़ी आहत हुई। उन्हीं दिनों मैंने ग़ौर किया कि मधुबनी चित्रों मे ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के पात्र तो हैं, पर बुद्ध क्यों नज़र नहीं आते। जबकि विश्व में भारत की पहचान बुद्ध से है। फिर मैंने बुद्ध, उनका धम्म तथा उनसे जुड़ी घटनाओं की 30 पेंटिंग की सीरीज ‘द जर्नी’ बनाई। यह मेरी शुरुआत थी। पारंपरिक विषयों से अलग होने के कारण मेरी कला को कुछ लोगों ने मधुबनी कला मानने से इनकार किया। मेरी कला की सराहना जितनी विदेशों और अन्य राज्यों में हुई उतनी मेरे गृह राज्य बिहार में नहीं हुई। अभी मैं मुख्यरूप से आंबेडकर, ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, पेरियार, नांगेली जैसे महापुरुषों के आदर्श एवं उनके कार्यों पर आधारित पेंटिंग बना रही हूँ।’’

‘भविष्य का हिंदी लेखन और लेखक की भूमिका’ पर नीलोत्पल मृणाल ने कहा, ‘‘नई पीढ़ी के लेखन से ही हिंदी साहित्य और समाज को नई ऊर्जा मिलेगी। उसे पता है कि बाज़ार के लिए लिखना बाज़ारू होता नहीं है। भविष्य के लेखन पर बात करते वक़्त यह देखना होगा कि आख़िर हमारा वर्तमान का लेखन संसार किस दिशा में है और इसमें लेखक कहाँ है? वर्तमान का एक बड़ा हिंदी वर्ग मानता है कि हिंदी आजीविका नहीं दे सकती। मैं भविष्य के जिस आजीविका वाले लेखन को देख रहा हूँ, वहाँ यह कोशिश होनी चाहिए कि बड़ी क़ीमत पाने के लिए फ़िल्मों या ऑडियो के लिए जो लेखन हो रहा हो, उससे लेखन का साहित्यिक स्तर न गिरे, बल्कि फ़िल्मों और ऑडियो की कहानी का स्तर बढ़े; उसका शिल्प ऐसा गढ़ा जाए कि वह लोकप्रिय भी हो और साहित्यिक भी। भविष्य के हिंदी लेखन की परख के लिए साहित्यिक होने की कसौटी में भी बदलाव की ज़रूरत और हमें अब साहित्यिक कसौटी में बदलाव पर बात करनी ही चाहिए। मूल्यांकन के पुराने औज़ार, पुराने मानक बदलने ही होंगे। पाठक यह काम कर चुका है। जहाँ तक लेखक की भूमिका की बात है तो वह स्वयं तय करेगा। आजीविका का दबाव लेखक को उत्पादक भी बना सकता है।’’

अभिषेक श्रीवास्तव ने ‘सांस्कृतिक टकरावों के दौर में अनुवाद की भूमिका’ पर कहा, ‘‘भाषाओं की विविधता, मुहावरों की बहुलता, यदि हमें एक सामान्य सत्य (कथन) पर पहुँचने से रोकती है तो ज़ाहिर है कि एक अनुवादक दो भाषाओं के बीच आवाजाही की प्रक्रिया में कहीं न कहीं सत्य का संधान कर रहा होता है। इस संधान में जो अंतिम उत्पाद वह रचता है, बेशक उसकी निशानदेही उतनी स्पष्ट नहीं हो; लेकिन इतिहास पर उसका यह उत्पाद अपनी एक छाप छोड़ता है। बीते सौ साल में इस पर बहुत बहस हुई है कि एक अनुवादक की ईमानदारी किसके प्रति हो—मूल रचना के प्रति या जिस भाषा में रचना को अनूदित किया जाना है उसके पाठक के प्रति। इस सवाल से जूझते हुए मूल रचना के सत्व को प्राथमिक माना जा सकता है। वही सत्व, जिस बिंदु को पकड़ना अच्छे अनुवादक का धर्म है। यह बिंदु पकड़ में आ गया, तो फिर अनूदित भाषा के पाठक की चिंता अलग से नहीं करनी; क्योंकि सत्य वहीं कहीं है—मूल भाषा के पाठक का भी और अनूदित भाषा के पाठक का भी।

यही सत्य भाषाओं की बहुलता के बीच सफ़ोकेट हो रहा होता है—जो कहा नहीं जा पाता; जो चिंतन के स्तर पर निरूपित होता है, चुपके से; बिना किसी फुसफुसाहट के। उन्होंने कहा कि अनुवादक सिर्फ़ शब्दों का रूपांतर नहीं करता वह एक संस्कृति को किन्हीं अन्य संस्कृति के लोगों के बीच ले जाता है। उसकी अहमियत को समझते हुए ही अनुवादक को राष्ट्र निर्माता कहा गया है।”

इस मौक़े पर राजकमल प्रकाशन की ओर से अपने दो वरिष्ठ कर्मियों को ‘राजकमल पाठक मित्र सम्मान-2022’ भी प्रदान किया गया। उनमें पहले हैं—आर. चेतनक्रांति जो राजकमल प्रकाशन की संपादकीय टीम के वरिष्ठ सदस्य हैं। वह ‘आलोचना’ पत्रिका के सह-संपादक हैं। इस क्रम में सम्मानित होने वाले दूसरे व्यक्ति हैं—मुन्नालाल पांडेय जो राजकमल प्रकाशन समूह के वरिष्ठ विक्रय अधिकारी हैं। वह पाठकों तक पुस्तकों की पहुँच और समाज में पढ़ने की संस्कृति के प्रसार में अहम भूमिका निभा रहे हैं।

ग़ौरतलब है कि राजकमल प्रकाशन की स्थापना 28 फ़रवरी 1947 को हुई थी। राजकमल का स्थापना दिवस, प्रकाशन दिवस के रूप में मनाया जाता है। लेखकों, पाठकों और बौद्धिकों ने इसको अपने सालाना जलसे के रूप में अपनाया है। इस बार का आयोजन विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि इस बार राजकमल प्रकाशन अपने 75वें वर्ष में पहुँच गया। राजकमल आरंभ में एक प्रकाशन था। अपनी 75 वीं वर्षगाँठ मनाते समय यह ऐसे एक प्रकाशन समूह के बतौर स्थापित हो चुका है, जिसके पास एक ओर स्तरीय पुस्तकों के प्रकाशन का सुदीर्घ अनुभव है, तो दूसरी ओर आने वाली पीढ़ियों की मानसिक-बौद्धिक ज़रूरतों को पूरा करने का दृढ़ संकल्प।