एकतरफ़ा संवाद करती मृत्यु महामारी है

महामारी और परंपरानुसार गतिविधियों पर एक पारस्परिक टोक—मृत्यु की आशंकाओं और संदर्भ का संख्या से उदास मर्दन करता लगभग हाथ बाँधे बैठा उत्तरजीवी (सर्वाइवर) मानस।

संख्याओं पर सबकी नज़र है और संख्या से भिन्न होती कोई मृत्यु दबे पाँव जब निकट या निजी होती है तो ‘समृद्ध’ उत्तरजीवियों के बीच एक व्यवहारिक तफ़तीश (ऊहापोह) संवाद गाढ़ा भी करती है और वाचाल भी।

हालाँकि मृत्योपरांत भी ज़्यादातर पक्ष यथावत बने रहते हैं। दीमकों से बारीक और वंशानुगत भय-समूहों को सर्वस्वीकार्यता-सी मिलती दिखती है—और संवाद की नई खुली इन जगहों पर—वे कुछ सांस्कृतिक (सत्तात्मक) ढाँचों को पारिवारिक और व्यक्तिगत दुहाई देकर पक्का करने में लग जाते है तो कुछ एक सामूहिक त्रास को पर्दा बनाकर पीछे अपने एकांत और आपातबोध के नए संस्करण ढूँढ़ लेते हैं।

उत्तरजीवी की लगभग अबोध क्रूरताओं को भरसक नमी देती है महामारी।

महामारी के दौरान दो सबसे दृश्य पक्ष—एक संवाहक या कैरियर (जैसे कोविड कैरियर) और दूसरी संवहन पुलिस (जैसे पुलिस) है। ये दोनों एक दूसरे की उपस्थिति सुनिश्चित करते हैं। ये दूसरे से अपना निजी अस्तित्व सुनिश्चित करते हैं।

महामारी के केंद्र में जो ख़ुद को पाते हैं, संवाहकों से घिरे पाते हैं। संवाहक लेकिन अनजाना है, उसे केंद्र का भान नहीं। पॉपुलिस्ट स्मृति में वह किनारे चलता है, दौड़ता है, अचानक से मुड़ जाता है और फिर अपने रास्ते पर भगाता है। कोई प्रेक्षक जब तक ‘ज़ूम इन’ कर उसके भाव पकड़े, वह नदारद हो लेता है। महामारी के दौरान एक अनजाने संवाहक या कैरियर (जो केयरटेकर भी नहीं है) के बारे में सोचते हुए एक चिड़चिड़ा आश्चर्य होना स्वाभाविक है; क्योंकि वर्तमान दर्शन में मृत्यु के लिए जगहें कम हैं और संवाहक और संवहन पुलिस स्वयं, ज़्यादातर उदासीन, अपनी चुप्पी में अदृश्य के प्रति रूखा समर्पण, कविता का अभाव—मनोरंजन की लत्त और (शाश्वत) समसामयिक फूहड़ता से चिढ़ जैसी समकालीन अनिवार्यताएँ साथ लिए—अनमने—फिरते हैं।

महामारी की अनुपस्थिति में संवाहक को अक्सर मिलती पहचान की छूट के एवज़ में उससे स्तब्धता और निष्क्रियता का भुगतान माँगा जाता है और निर्लज्ज-व्यर्थ संबोधनों से ही रोज़ संपन्न होती है उगाही।

संवहन पुलिस के द्वारा संवाहक के अब्यूज़ का दृश्य भी एक संवैधानिक दूरी से ग्राह्य है। गवाह उससे वैधानिक दूरी पर है और संवाहक के लिए कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं है। वह ज़्यादातर मृतक और ‘द्रवित’ की स्मृतियों में है। संदेहों से घिरा एक ऐसा किरदार जो मानव-केंद्रण (त्वरण) के आवेग और उद्वेग का अप्रयोज्य किनारा प्रतीत होता है।

संवाहक जब आतुर है, शामिल है, या कमरे में दाख़िल है—तब संस्कृति, सामाजिकता, सरकार… सबसे संवादरत और मोटामोटी रक्षित है। स्मृति में आते ही संवाहक के प्रति रवैए में दार्शनिक अभाव, अकाव्यात्मक कुढ़, डिट्टो पैतृक-राजनैतिक संकीर्णताएँ सहसा प्रत्यक्ष हैं।

प्रत्यक्ष और परोक्ष के इस असहज विरोधाभास से एक अकेला संवाहक—मृत्यु दर्शन के तत्काल वर्तमान के केंद्र का—सुयोग्य भी लगता है। उसके आस-पास केयोस पसरा हुआ है—परिष्कृत अपराधबोध पर पालथी मारे बैठी उदास या मौक़ापरस्त सभ्यता?!

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समृद्ध उत्तरजीवियों की वह सभ्यता जो तत्काल एक प्रजाति के तौर पर अपने अंत की एक व्यवहारिक कल्पना, उसका सहज प्रतिपादन और (सिसकते हुए अपना सृजन करते प्रैक्टिकल-अवश्यंभावी) महाप्रलय के विचार पर अब हार्दिक उदार है।

समग्र असफलताओं और अपनी उपस्थिति से सभी प्रैक्टिकल पारिस्थितिकियों के ह्रास या क्षय का तार्किक भाव (सार) लिए—यह वर्तमान या एंथ्रोपोसीन मानव—एक ‘गिल्ट ट्रिप’ से जकड़ा हुआ है।

कार्बन डाइऑक्साइड का बढ़ता स्तर, पिघलती बर्फ़, प्रजातियों के मास-एक्सटिंक्टशन, आदिवासी परंपराओं का नाश, जल-वायु संदूषण और परिवार के बिखरते साँचों का केंद्र और कारण होने का भाव आत्मसात किए जब यही मानव अपने पैतृक, कृत्रिम ‘सिस्टम’ की मृत्यु से अपनी मृत्यु व्युत्पन्न या सिद्ध करता है और मृत्यु को (आभ्यंतर) व्यक्तिगत तौर पर आकार देने की कोशिश करता है तो पिछली पीढ़ी की नाटकीयता से स्वत: शरमाकर और अगली पीढ़ी की न्यायिक उदासीनता से डरकर सोचता है।

वह अपनी अभिव्यक्तियों की गरिमा विचित्र-विचित्र तरीक़ों से सेंसर करता है और सर्विलेंस के चरम पर केवल गवाह में तब्दील होता है।

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संवाहक से वैधानिक दूरी और संवहन पुलिस के निकट कोई उत्तरजीवी गवाह सर्वदा है। हमारी ‘आत्म-मुग्ध प्रतीकात्मक दुनिया में मृत्यु को (असल) यथार्थ का प्रतिनिधि बताता एक प्रैक्टिकल गवाह’ जिसको यह सुनिश्चित है कि मृत्यु की गवाही मृत्यु के दर्शन से पहले है।

बक्से में बंद बिल्ली जीवित भी है और मृत भी—जब तक कि कोई ऑब्जर्वर बक्सा खोलकर निर्णय नहीं कर लेता।

— श्रोडिंगर की बिल्ली

जो प्रेक्षक या आब्जर्वर है, वह स्वत: है, लेकिन एक्सपेरिमेंट का एक तात्कालिक केयरटेकर है। ‘‘अब एक्सपेरिमेंट के केयरटेकर को बिल्ली जीवित देखना है या मृत, क्या उसे विडाल-उपायों का मालूम है या उसे अपने काम में कोई रुचि ही नहीं?!’’ यह मृत्यु के अविर्भाव का तात्कालिक तिकड़म है जिससे धार्मिक होते दर्शन मनोचिकित्सक आलस्य से निबटते हैं और ‘स्टैंडर्ड’ वैज्ञानिक होते दर्शन ‘मम्म-हम्म’-सी किसी फुस्स सहमति से।

क्या संवाहक हत्यारा है?
या
निर्णीत केयरटेकर आपको निश्चित रूप से जीवित देखना चाहता है?

पुराने से नए अंधविश्वास

यह पॉपुलर-वाचाल वैज्ञानिक दर्शन है कि अँधेरे में जैसे चमगादड़ अल्ट्रासोनिक ध्वनियाँ फेंक-फेंककर उसके रिबाउंड से किसी दीवार से अपनी दूरी का सूक्ष्म अंदाज़ा लगाते है—ठीक वैसे ही

मृत्यु के विषय और प्रेक्षक दोनों का किरदार निबाहते हम सर्वव्याप्त मृत्यु की ओर अपने विचार उछालकर उसकी स्थिति का विधिपूर्वक अंदाज़ा लगाने की कोशिश करते हैं, और जब तक हमारे विचार मृत्यु से टकराकर, लौटकर हम तक आएँ, हम मृत्यु की दिशा में उसी समबोध चमगादड़ से अग्रसर होते चले जाते हैं।

क्वांटम मैकेनिक्स प्रस्तावित कई दर्शनों में से एक बहुचर्चित मेनी वर्ल्ड्स थ्योरी देता है, जो मोटामोटी तौर पर हर नए निर्णय या निर्णयात्मक कल्पना पर विभक्त होते अनगिनत संसार (अनंत) का हाइपोथीसिस है।

अगर आपने सोचा कि बस! आपकी मृत्यु हुई! तो ठीक उसी समय संसार दो में विभक्त हो जाता है, जिसमें से एक में आपकी मृत्यु हो चुकी होती है। इसके पश्चात मृत्यु के विषय और प्रेक्षक में से किसी एक संसार में या तो एक ही या संभवत: कोई नहीं रह सकता।

नवीनतम इस योग में भी प्रार्थनाओं को समृद्ध अवकाश है। यहाँ आप बचे रहने का एक निर्णय लेते हैं और संसार उसी समय दो में विभक्त हो जाता है, जिसमें से एक में आप जीवित रहेंगे और आगे सावधानी से निर्णय लेते रहेंगे और नए संसारों का निर्माण भी करते रहेंगे। आपका क्वांटम अमरत्व सुनिश्चित है।

प्रार्थनाओं की निर्णायकता यहाँ एक तर्कसंगत संवाद है, जिसका परिणाम इस संसार में प्राप्त होने का संयोग यथावत आधा-आधा ही है। और प्रार्थना से उपजे प्रश्नों (जैसे : अब कर्ता का समापन मृत्यु संपन्न संसार में है या उसका अतिरिक्त आरंभ दूसरे लोक में? वह जो बचा वह ‘मैं’/‘कर्ता’ समग्र ही है या मृत्यु अभिक्रिया का अवक्षेप कोई?) के बारे में सोचते हुए इस बात पर कोई ध्यान नहीं देता कि दर्शन की उत्सुकता से पहले ये निर्णय और घटना दोनों में सहभागिता का कोई निजी लालच तो नहीं है?!—तकनीक का अनुवाद करती प्रकृति।

क्वांटम दर्शन की अलग सक्षम धाराएँ यह भी कहती है कि ऐसा कोई द्विचर (हाँ या न वाला) प्रश्न ही नहीं है। मृत्यु एक प्रोग्रेसिव इवेंट है, एक घटना से प्रेरित दूसरी, दूसरी से तीसरी… का एक अंतहीन सीक्वेंस।

यहाँ से अब बक्से की बिल्ली की देह को बचाकर रख लेने की प्रार्थना का अपना विज्ञान है जीवन और मृत्यु के बीच दूरी या उनका स्पिन यथावत शाश्वत–सर्वव्याप्त…

लोग मरते हैं। लोग देखते हैं। लोग देखते रहते हैं : मृत्यु के अनुमोदन का अशेष अनुक्रम होता है।

मृत्यु का एकाकीपन—जीवन का उत्सव

अभी जब सभी मृत्यु आपस में गुत्थमगुत्था हो गई है तो याद दिलाया जाता है कि मृत्यु की स्वतंत्रता का वरदान जब-जब निरस्त होता है, तब-तब उत्तरजीवी लोक-कथाओं की तरफ़ लौटते हैं। महान ईश्वरों का विघटन हो जाता है और टोटके वाली बदसूरत (?!) सहमकर उपस्थित धाराएँ सक्रिय हो जाती हैं। पूज्य के बाज़ारू क्रम में ऊपर से नीचे जाने पर किसी क्रिसमस चीड़ के पेड़ की तरह टोटके बढ़ते जाते हैं। जो पूज्य होते हैं, उनके पास घरेलू नुस्ख़ों की मार रहती है। मृत्यु को पुन: स्वतंत्र कर जो बचते हैं, उनमें से ज़्यादातर ग़रीब होते हैं और दर्शन से मृत्यु का एक यकायक निराकरण जीवट मति को ग्लानि से भरता रहता है।

अस्तित्व के विचार/मत के जिस पराक्रम और विरल को पश्चिम और हाइडेगर सर्वसम्मति देते हैं, वह भी अभी मृत्यु-संशय से कातर होकर एक ऐसे प्रोमिथियन परंपरा को (अतिसक्रियता से) गूँथ रहा है जिसमें गिरह हैं ही नहीं। जिस एंथ्रोपोसीन मानव-त्वरण की हम संतान हैं, वह यथार्थ में मृत्यु से छुआछूत का बर्ताव रखकर उसे एक ऐसे क्रूर रिक्त में रखकर भूल जाते हैं, जिस रिक्त में दाह का तत्क्षण समापन (जो केवल संयोग नहीं) है। जहाँ केवल एक दैहिक उपस्थिति ही प्रमाण भी है और पदानुक्रम की केवल सहभागी भी।

स्पिनोज़ियन दर्शन से इक्कीसवीं सदी के पॉप फ़िलोसोफ़ी तक मृत्यु के वैचारिक निवारण में एक एस्टोइक जड़े पकड़े कोई पॉपुलर छद्म है, जो पूर्व से किसी क्राइसिस के समय किसी अमानवीय हड़बड़ी में लगता प्रतीत होता है—संरचना के डिस्ट्रक्शन (सर्वनाश) से अपना डिकंस्ट्रक्शन (विसंबंधन) चुराते उत्तरजीवी की कल्पनाओं में एक नाटकीय अंत और महाप्रलय को आँच देता हुआ और वर्तमान कड़ी को सर्वदा सिद्ध मानता।

जबकि यहाँ पॉपुलर है कि जीने-बहने का समय एक अनिष्ट से निकटता और परिचय का समय है और उस अनिष्ट का एक आडंबर से भरा निवारण भी बिल्कुल जेब में है। आडंबर जिनकी अपनी आदिभौतिक यात्रा और अपना अवसान भी है, और जिनके प्रतिभूति के तार देरिदा के कान बजाते हैं।

उत्तरजीवी का मृत्यु का वेल लर्नेड और रिहर्सड रेस्पॉन्स।

ज़्यादातर दोनों ओर (देरिदा का ही) मानव है जो ‘उल्लंघन’ समझता है, इसीलिए अब मृत्यु पर ठहराव से बात नहीं करता।

एकतरफ़ा संवाद करती मृत्यु महामारी है।

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चार-पाँच सदी से पहले अलग-अलग समय पर, मरते वक़्त लिखी गईं (मृत्यु को सहज संबोधित) जापानी सामुराइयों की कुछ कविताएँ याद आती हैं :

मेरे रूप के प्रवहमान पाँचों वज़ा
और इसके चारों तत्त्व एक अभाव को लौटते हैं
मैं अपना गला एक नग्न तलवार को सौंपता हूँ
इसकी काट हवा की एक साँस ही तो है

~~

एक जलपक्षी सोया हुआ
नदी पर बहता रहता है
जीवन मृत्यु मध्यांतर

~~

मैंने जीने का निर्णय लिया था
दो सदी या तीन—
लेकिन फिर भी मृत्यु अब उपस्थित है

मेरे लिए
एक बच्चे के लिए
केवल 85 साल के बूढ़े बच्चे के लिए

~~

ख़ून थूकना
स्पष्टता देता है यथार्थ को
और सपने को
एक समान

और 2020 की नोबेल पुरस्कृत लुइस ग्लूक की इस पेंडेमिक के बीच सबसे ज़्यादा उद्धृत और मृत्यु के आस-पास लिखी गई कविता ‘क्रॉस’ रोड’ से कुछ पंक्तियाँ :

मेरी देह, अब जब हम ज़्यादा समय के लिए संग नहीं चल पाएँगे,
मुझे तुम्हारे प्रति एक नई कोमलता का आभास होता है, अपक्व और अपरिचित,
मेरी आत्मा जो आतंकित और हिंसक रही है
मेरे हाथ बन तुम्हें सहलाती है
किसी अपकार की कल्पना से नहीं
आतुर, अंतत:, अभिव्यक्ति को ही अर्थ-सा ग्रहण करने के लिए

दोनों मिलते जुलते हैं?!

उत्तरजीवी का मृत्यु की कविताएँ अभी
एक साँस में पढ़ लेना—मिली-जुली प्रार्थना!