भाभी कॉम्प्लेक्स और कार्ल मार्क्स

हिंदी साहित्य में भाभी जिस रूप में उतरी है, उसमें सत्य से अधिक सुहावनापन है। आज भी पुरुष की बहुपत्नीक और स्त्री की बहुपति प्रवृत्तियाँ, जो तहज़ीब के नीचे से अब भी रिसती रहती हैं और साहित्यदानों में दिलबस्तगी पैदा करती आई हैं, उन्हीं की छानबीन में कहीं भाभी-प्रॉब्लम का भी संतोष मिल जाएगा। पर चूँकि विवाह का टेकनीक पेचीदा और गुट्ठल हो गया है और आर्थिक उलझन और पेचो-ताब ने ‘परिवार’ को एकबारगी जड़ से हिला दिया है, भाभी वहाँ से निकलकर हिंदी के बुतशिकन लेखकों का ‘टूल’ बन गई है।

प्रतिरोध का स्वर और अस्वीकार का साहस

कवि की दीर्घ सक्रियता देखकर मुझे उम्मीद थी कि इस संग्रह में एक लंबी अवधि की रचनात्मकता दर्ज‌ होगी, किंतु अधिकतर कविताएँ वर्तमान से मुठभेड़ करती दिखती हैं; अर्थात् इस संग्रह में वही समय आया है, जिसे हम इधर देख रहे हैं, समझ-बूझ रहे हैं, झेल रहे हैं और अपने त‌ईं स्वीकार-अस्वीकार कर रहे हैं।

क्या हम परिवार को देश की तरह देख सकते हैं

परिवार में भी कोई नया आईडिया एकदम से लागू नहीं किया जा सकता। यहां भी अगर डेमोक्रेसी लागू करनी है तो सबसे पहले व्यक्ति को खुद फुल डेमोक्रेट बनना होगा अर्थात ढेर सारा धैर्य खुद में पैदा करना होगा। बिना इस धैर्य के हम कहां तक सफल हो पाएंगे? फिर तो हम अपने परिवार की दरारों को ना तो देख पाएंगे और ना ही समझ पाएंगे। जरा सी समस्या में हम परिवार से भागना शुरू कर देंगे। लेकिन यह हमारा पीछा नहीं छोड़ता।

साहित्य के दरवाज़े के द्वारपाल की भूमिका में

भाषा को तमीज़ से बरतना कविता-कर्म की बुनियादी शर्त है। अनुचित शब्द चयन कवि और कविता दोनों के लिए प्राणहंता है। कविता में किसी शब्द का कोई बदल/पर्याय नहीं होता।

एक नैतिक उपदेश

भूख और भोजन कुछ इस प्रकार के विषय हैं कि इन पर नैतिक उपदेशों की कोई कमी नहीं है। लेकिन यह समय नैतिकता और उपदेश दोनों के लिए ही कठिन है। इसकी पड़ताल की जानी चाहिए कि बाल-बच्चेदारों और गृह-त्यागियों दोनों ने ही नैतिकता और उपदेश से सलीक़े का मामला रखना बंद क्यों कर दिया!

स्मृति-छाया के बीच करुणा का विस्तार

किसी फ़िल्म को देख अगर लिखने की तलब लगे तो मैं अमूमन उसे देखने के लगभग एक-दो दिन के भीतर ही उस पर लिख देती हूँ। जी हाँ! तलब!! पसंद वाले अधिकतर काम तलब से ही तो होते हैं। लेकिन ‘लेबर डे’ को देखने के इतने दिनों (लगभग 40-50 दिनों) के बाद भी उस पर लिखा नहीं और लिखने की इच्छा ने जब पीछा नहीं छोड़ा तो शायद इस फ़िल्म से पीछा छुड़ाने के लिए लिखना जरूरी लगा।

एक उपन्यास लिखने के बाद

उपन्यास के बारे में वैसे अब तक इतना कुछ कहा जा चुका है कि जब उसका—अपनी सीमा भर—मैंने अध्ययन किया, तब पाया कि सब कुछ बहुत विरोधाभासग्रस्त है। मैंने शोर के कंकड़-पत्थर, अल्फ़ाज़ों की चाँदी और ख़ामोशी के स्वर्ण से भरे हुए कितने ही उपन्यास देखे-पलटे-पढ़े। उन्होंने सामान्य और विशेष दोनों ही रूपों में मुझे प्रभावित और अंतर्विरोधयुक्त किया।

मैं जब भी कोई किताब पढ़ता हूँ

मैं जब भी कोई किताब पढ़ता हूँ तो हमेशा लाल रंग की कलम या हाईलाइटर साथ में रखता हूँ। जो भी कोई शब्द, पंक्ति या परिच्छेद महत्त्वपूर्ण लग जाए या पसंद आ जाए वहाँ बेरहमी से क़लम या हाईलाइटर चला देता हूँ—चाहे किताब कितनी भी महँगी और साफ़-सुथरी हो। हाँ, यह हरकत हमेशा केवल अपनी ही किताबों में करता हूँ। सफ़र तक के लिए भी जब किताब निकालता हूँ तो साथ में लाल क़लम या हाईलाइटर रखना नहीं भूलता। पढ़ते वक़्त कुछ बात मन में कौंधती है तो उसे भी उसी पृष्ठ के किनारे पर लिख डालता हूँ। ऐसा करते मैंने और भी लोगों को देखा है।

समय प्रश्नमय

एक नई सामुदायिक साहित्यिकता निर्मित हो रही है, जिसमें अत्यंत युवा अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। इस उमड़ते-घुमड़ते आस्फोट के लिए लेखक संगठनों की अंतर्कलह और उसमें व्याप्त औसतपन और अहंवाद और गिरोहवाद और वैचारिक जड़ताएँ बहुत कारगर नहीं हो सकतीं। नई उच्छलता नए निर्माण-बोध के साथ आगे आ रही है। उस पर बेवजह का संदेह क्यों किया जाए।

एक तरीक़ा यह भी

शोध-कार्य-क्षेत्र में सक्रिय जनों को प्राय: ‘सिनॉप्सिस कैसे बनाएँ’ इस समस्या से साक्षात्कार करना पड़ता है। यहाँ प्रस्तुत हैं इसके समाधान के रूप में कुछ बिंदु, कुछ सुझाव :

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