एक नैतिक उपदेश

मेरे लिए अगर एक हज़ार रोटियाँ तय हैं, तब मैं यह यत्न करूँगा कि रोज़ आधी रोटी से ज़्यादा न खाऊँ। मुझे यह अभ्यास शैशव से ही रहा है। मेरे लिए रोटियाँ शुरू से ही कम थीं। यहाँ अभाव कोई ऐसी चीज़ नहीं है, जिस पर गर्व किया जाए या जिस पर शर्मिंदा हुआ जाए। वह बस है और सौभाग्य से अपने विलोमों की तरह ही अस्थिर है। अभाव को कैसे प्रबंधित किया जाए, यह विद्यालय नहीं सिखाते। वहाँ तो अध्यापक छात्रों को उनके अभावों के लिए दंडित किया करते हैं। अभाव का प्रबंधन बिल्कुल अपने आस-पास देखकर सीखना चाहिए। मेरे पड़ोसियों के पास क्या है, मेरी नज़र कभी इस पर गई ही नहीं। मैं उनकी बरातों में यह सोचकर गया कि जमकर खाऊँगा, लेकिन वहाँ विकल्प ही विकल्प देखकर मेरी भूख जाती रही।

भूख और भोजन कुछ इस प्रकार के विषय हैं कि इन पर नैतिक उपदेशों की कोई कमी नहीं है। लेकिन यह समय नैतिकता और उपदेश दोनों के लिए ही कठिन है। इसकी पड़ताल की जानी चाहिए कि बाल-बच्चेदारों और गृह-त्यागियों दोनों ने ही नैतिकता और उपदेश से सलीक़े का मामला रखना बंद क्यों कर दिया!

इन दिनों नैतिकता और उपदेश की बात करो तो पीछे से ‘इससे क्या होगा’ का कोरस गूँजने लगता है। इस कोरस के लिए कोई विशेषण नहीं है, क्योंकि समूहों के अपने-अपने वास्तविक-अवास्तविक संकट हैं। प्रत्येक समूह स्वतंत्र नज़र आता हुआ भी, एक ऐसे विशाल क़ैदख़ाने में है; जहाँ व्यक्ति को दूसरों की छोड़िए, अपनी ही यातनाएँ पता नहीं चलतीं! दूसरों को सताते हुए सत्ता महसूस होती है। ज़रा-सी भी सत्ता मिलते ही व्यक्ति का चरित्र केंद्रीय सत्ता जैसा होता जाता है, उसकी वैचारिक धारा चाहे जो हो।

इस परिस्थिति में मैंने कम रोटियों के साथ अकेला होना शुरू किया। मैंने पाया कि आप अच्छे इंसान तभी बन सकते हैं, जब आप अकेले हों। सबके साथ रहकर अच्छे बने रहना बहुत मुश्किल है। …और एक बार आप अच्छे बन गए, फिर सबके साथ से भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। यहाँ कहने का आशय यह है कि प्रक्रिया अकेला करती है, प्राप्ति बाँटना सिखाती है—मनुष्यों को।

रोटियों के कम और अकेले पड़ने ने मेरे चेहरे को आभा दी। आपका चेहरा केवल वही नहीं है, जिस पर आपकी आँखें हैं। इसलिए मैं उस संघर्ष से बचना चाहता हूँ, जिसमें आपका चेहरा आपके ही सामने आकर आपको सवालिया निगाहों से देखने लगता है और आप निष्प्रभ होते चले जाते हैं।

अश्वघोष विरचित ‘सौन्दरनन्दं महाकाव्यम्’ में बुद्ध कहते हैं कि भोजन की अधिकता आलस और नींद लाती है। वह प्राण-वायु और अपान-वायु में रुकावट डालती है। वह पराक्रम की हत्या करती है। जिस प्रकार अधिक भोजन करने से अनर्थ होता है, उसी प्रकार बहुत कम भोजन करने से शक्ति नहीं होती। जैसे अधिक भार से तराज़ू का पलड़ा झुकता है और हल्के भार से उठता है और उचित भार से समान रहता है… इस प्रकार ही कम भोजन करने से शरीर संतुलित रहता है। शरीर की आग भोजन के भार से दबकर ऐसे शांत हो जाती है, जैसे थोड़ी-सी अग्नि हठात् ही जलावन के बोझ से ढककर बुझ जाती है। भोजन बिल्कुल छोड़ देना भी प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि भोजन नहीं करने वाला मनुष्य ईंधनरहित अग्नि के समान शांत हो जाता है। प्राणी दूसरे किसी एक विषय में उतना आसक्त नहीं होते, जितना कि अज्ञात (विशिष्ट?) भोजन के विषय में। इसका कारण जानना चाहिए। घायल आदमी जैसे घाव की चिकित्सा के लिए मलहम लगाता है, वैसे ही मुक्ति चाहने वाले को भूख मिटाने के लिए भोजन का सेवन करना चाहिए। जैसे भार ढोने के लिए रथ की धुरी में चर्बी लगाई जाती है, वैसे ही बुद्धिमान् मनुष्य जीवन-यात्रा के लिए भोजन का सेवन करता है। जिस प्रकार यात्री-दम्पति मरुभूमि को पार करने के लिए अत्यंत दुःखी होकर अपने पुत्र का मांस खाएँ, उसी प्रकार समझ-बूझकर भोजन करना चाहिए। सौंदर्य, रूप, मद या औद्धत्य के लिए नहीं खाना चाहिए। शरीर धारण करने के लिए ही भोजन विहित है, जैसे गिरते हुए कमज़ोर घर की रक्षा के लिए उसमें खंभा लगाया जाता है। जैसे कोई मनुष्य नाव को उसके स्नेह से नहीं, किंतु बाढ़ पार करने की इच्छा से यत्नपूर्वक बनाए और ढोए भी…

बुद्ध इस प्रसंग में आगे और कहते ही जाते हैं। वह अधिक भोजन को अधिक नींद से जोड़ते हैं और जागरण के महत्त्व को स्पष्ट करते हैं :

‘‘भय, प्रीति और शोक में मनुष्य नींद से पीड़ित नहीं होता है, इसलिए नींद का आक्रमण होते ही इन तीनों का सेवन करना चाहिए।’’

‘‘नींद से पीड़ित होने पर उद्योग और धैर्य तथा शक्ति और पराक्रम के तत्त्वों का अपने मन में चिंतन करो।’’

‘‘जिन धर्मों को तुमने सुना है, उनका साफ़-साफ़ पाठ करो; दूसरों को उपदेश दो और स्वयं भी चिंतन करो।’’

मैं—युगों से प्रकाश की प्रतीक्षा को अभिशप्त—इस रात्रि में ये बुद्ध-वचन दर्ज करता हूँ। अपने चेहरे को जल से भिगोता हूँ। सब तरफ़ देखता हूँ। इंद्रियों को भीतर की ओर स्थिर और वश में करके शांत चित्त से चक्रमण करता हूँ। इस दरमियान कहीं न कहीं ज़्यादा रोटियों वाले कम रोटियों वालों को कमज़ोर करते जाते हैं।

भोजन जब तक है, क्रांति नहीं होगी; क्रांतिकारी ज़रूर होंगे!