देवेश

नई पीढ़ी के लेखक और शोधार्थी।

प्रेम, दुर्घटना, छत और बीते दिन…

प्रेम जितना बराबर की चीज़ महसूस होता है, उतना है नहीं। हमें लगता है, हम बराबर चलेंगे। पर कभी बराबर चलते नहीं। हमारे प्रेम का आदर्श लैला-मजनूँ हुआ करते हैं। हममें से आधे मजनूँ हो जाना चाहते हैं। चाहते हैं कि किसी को इस हद तक इश्क़ करें कि क़ुर्बान हो जाएँ। पर उतनी न तो हिम्मत हममें हुआ करती है, न जुनून।

वह क्यों मेरा सरनेम जान लेना चाहता है

घड़ी की सुइयाँ रुक गई हैं। वक़्त अब भी बीत रहा है। हम यहाँ बैठे हैं। वक़्त के साथ-साथ हम भी बीत रहे हैं। हम रोज़ सुबह उठते हैं और रात को सो जाते हैं। वक़्त से आधा घंटा देर से खाना खाते हैं। रात देर तक फ़ोन से चिपके रहते हैं। इस पूरी दिनचर्या में एक वक़्त ऐसा नहीं जाता, जब इस घड़ी के बारे में न सोच रहे हों। लेकिन पाँच मिनट निकालकर इस घड़ी में सेल डाल सकने की इच्छा को उगने नहीं दे रहे हैं।

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