माचो दोस्तों के बारे में
हम उनसे ग्रस्त हैं।
उन्होंने समय-समय पर हम पर इतने उपकार किए हैं कि उनकी चर्चा चलने पर हम चुप रहते हैं। हम उनकी तारीफ़ तो कर सकते हैं, बुराई नहीं कर सकते। हम उनकी बुराई करना तो दूर, सुन भी नहीं सकते।
मॉरिश ब्लांशो ने कहा है कि कुछ मित्रताएँ न मिलने पर ही पनपती हैं। लेकिन यहाँ जिन दोस्तों का ज़िक्र है, उनके साथ मित्रता तब ही पनपती है, जब आप उनसे मिलते हैं। एक असुरक्षा में, वे सुरक्षा की तरह प्रतीत होते हैं। उनकी विशालता और शक्ति बहुत प्रभावित करती है, लगता है कि वे बचा लेंगे।
लेकिन इस क़दर शक्ति-संपन्न वे जन्म से ही नहीं थे। वे सूखे थे पहले, फिर उन पर समय और समृद्धता का पानी पड़ा-चढ़ा। वे फूले और अंकुरित हुए। वे सुंदर लगने लगे। हमें लगा कि वे बचा लेंगे।
उन्होंने कहा कि संकट कुछ नहीं है, संकट हम ही हैं। हमें याद रखो। हमें पुकारो। हम सब कुछ का उपचार हैं। हमें लगा कि वे बचा लेंगे।
उन्होंने हमें बचाया भी और बचाने से पहले या बचाने के बाद कभी भी हमसे हमारी जाति नहीं पूछी। हमने अपनी जातियाँ अपने नामों से हटा ली थीं। यह क़दम भी असुरक्षा में सुरक्षा की तरह प्रतीत हुआ था। यह जातिवाद का प्रतिकार नहीं था। यह प्रचलन था। इस प्रचलन में बसते ही हम सबमें ‘सवर्ण-भाव’ आ गया था। हम अपने रक्षकों को मन ही मन जाति-सूचक संबोधन से अपमानित करते थे। उनकी ग़लती सिर्फ़ इतनी थी कि उन्होंने अपनी जातियाँ अपने नामों से हटाई नहीं थीं, बल्कि वे तो इसे अपने सारे संसाधनों पर चिपकाए घूमते थे।
अत्तिला योझेफ़ ने जिसे कविता में नक़ली बिम्बों का फ़र्ज़ी उल्लास कहा है, उसके दर्शन अगर जीवन में करने हों तो अपने उन दोस्तों को देखिए और याद करिए जिनके जीवन में कभी कविता नहीं रही। वे समकालीन ज्ञान-कांड से परिचित ही नहीं रहे। संभवतः इसलिए ही वे जो थे, उसके पूरे उल्लास में थे। वे उस मार्क्सवादी कवि की तरह नहीं थे जो आयोवा हो आया था और जिसने अमेरिकन फ़ंडिंग से अपना घर बनवाया था। वह सब कुछ हड़पते हुए, सब वक़्त अवसाद में रहता था और ताक़त का विरोध करता रहता था।
इधर हमारे रक्षक और ताक़तवर होते जाते थे। उन्हें यह ख़बर ही नहीं थी कि हम और आप दरअस्ल उनके विरोध के व्यवसाय में हैं। इस व्यवसाय के समानांतर हम उन्हें याद रखते थे। हम उन्हें पुकारते थे। वे सब कुछ का उपचार थे। हमें लगता था कि वे बचा लेंगे।
एक बार हमें न जाने क्या सूझा कि हमने उन्हें कविता सुनने के लिए आमंत्रित किया। वे तैयार नहीं होते, इसलिए हमने कहा कि हमें डर है : हम पर हमला हो सकता है। उन्होंने पूछा कि क्यों? हमने कहा कि हमारी कविताएँ फ़ाशिज़्म के विरोध में हैं इसलिए। उन्होंने कहा कि यह क्या बला (बदला हुआ शब्द; उनका बोला हुआ शब्द असंवैधानिक है) है। बहरहाल, वे राज़ी हुए। हमारे कविता-पाठ की जगह पर वे आए—अपने-अपने हथियारों के साथ। उन्होंने अपनी गाड़ियाँ कुछ दूर पार्क कीं। उन्होंने पी हुई थी और हमारे लिए भी वहीं जहाँ उन्होंने अपनी गाड़ियाँ पार्क की थीं, दारू और मुर्ग़े की व्यवस्था करवा रखी थी।
उस रोज़ दस श्रोताओं (कविता-प्रेमियों) के बीच हुए हम चार कवियों के कविता-पाठ में हम पर कोई हमला नहीं हुआ, सिर्फ़ एक हमले को छोड़कर जो हमारे बीच के ही एक आलोचक ने हम पर किया जो कि इस आयोजन का अध्यक्ष था। उसने हम सबकी कविताओं को एक जैसा बता दिया और कहा कि इनमें इतिहासबोध का अभाव है। उसने यह भी कहा कि आज की इस मुश्किल लड़ाई में, हमारे हथियार पुराने पड़ चुके हैं। उसकी यह बात सुनकर हमारे रक्षक अपने हथियारों पर संदेह से हाथ फेरने लगे। कुछ देर बाद हम उन्हें इस संशय से बाहर वास्तविकता की ज़मीन पर लाए और उनसे पूछा कि आप लोगों को यह आयोजन कैसा लगा? उन्होंने कहा कि तुम लोगों को कैसा लगा? हमने कहा कि हमें तो अच्छा लगा। उन्होंने कहा कि तब हमें भी अच्छा लगा।
वे आज भी हमारी ताक़त हैं। हम आज भी उन्हें याद रखते हैं और हम जब चाहे उन्हें पुकार सकते हैं। लेकिन यह याद-ओ-पुकार हमारे कृतित्व से मेल नहीं खाती है। यह हमारा दुहरा जीवन है। यह हमारा द्वितीयक व्यवहार है। यह स्थिति हमें ईमानदार और सहज नहीं रहने दे रही है। इस दृश्य में सब तरफ़ मित्र ही मित्र हैं और मित्रता के प्रस्ताव हैं, लेकिन हमारा हृदय ही जानता है कि हम किस क़दर मित्रहीन हैं।
हमारा चेहरा रोज़-रोज़ ऐसे चेहरों से टकराता है, जिन्हें देखकर कुछ बुरा कह देने की इच्छा को भरसक दबाना पड़ता है। यह उस मित्रता का भय है, जो है ही नहीं। हमें एक वक़्त गुज़र चुका है—बहुत सारी बातों को दूसरे तरीक़े से कहते हुए। अब लगता है कि पहला तरीक़ा हमारे पास कभी था ही नहीं। इस तरह दूसरा तरीक़ा ही एकमात्र तरीक़ा है—दृश्य में बने रहने का।
सिद्धांतों को बघारते हुए मित्र क्या हमारे मित्र हैं? नहीं हैं। लेकिन हैं।
ख़ुद को सदियों से पीड़ित और शोषित बताते हुए मित्र क्या हमारे मित्र हैं? नहीं हैं। लेकिन हैं।
ख़ुद को क्रांतिकारी और सारे संसार को भ्रष्ट बताते हुए मित्र क्या हमारे मित्र हैं? नहीं हैं। लेकिन हैं।
हमें अब अपने रक्षकों से जलन होती है, लेकिन हमें अब भी उनकी ज़रूरत है। उनके पास ताक़त है, हमारे पास कविता है। उनके व्यक्तित्व में विध्वंस बहुत है, हमारे व्यक्तित्व में विवशता बहुत है। क्या यह संभव नहीं है कि हमें सिर्फ़ उनकी ताक़त मिल जाए, और हम उनकी मित्रता से बच जाएँ।
‘‘नहीं, यह संभव नहीं है…’’ वे कहते हैं।
वे आगे कहते हैं : ‘‘तुम हमारी तरह हो जाओगे, तो हमारी तारीफ़ कौन करेगा!’’