अव्यवस्था और अराजकता

9 अप्रैल 2020

सुबह सुबह मेरे डेरे पर अपनी घोड़ी लेकर विंज़ोजी आए। उनकी घोड़ी के खुर बढ़ गए थे जिसे उतरवाने वह आए थे। यह कितना सुखद आश्चर्य है कि बुढ़ापे में भी उनका घुड़सवारी का, घोड़ों का शौक़ वैसा ही बना हुआ है। मैंने उनकी घोड़ी के खुर उतार दिए। जाते हुए वह किसी दिन फ़ुरसत से अपने घर पर खाने का न्योता देकर चले गए।

सोचा कि आज कमा-हमीर के डेरे चला जाऊँ पर वहाँ चिलमबाज़ों की दुकान लगी रहती है। ख़ामख़ाँ किसी मनहूस का मुँह देखने और कमा का धंधा ख़राब करने में मेरी कोई रुचि नहीं थी। रामा के पास जाने में कम व्याधि न थी। वह कमीना पहले तो वादे के मुताबिक़ दारू माँगता और फिर अब तक न जुटा पाने पर बहुत ताने मारता। बहुत सारी खरी-खोटी भी सुनाता। सोचा, ऊँट लेकर आज कुछ दूर निकल जाता हूँ, गुनेरी जाकर राधोजी से मिल आऊँगा। ऊँट पर सवार होकर चल पड़ा।

पूरब सीम में गाएँ चराता गोधा मिला। गोधा रामा का छोटा भाई है और कभी-कभार रामा की बहुत ही सलीक़े से चंपी कर देता है। पिछले साल रामा के दो दाँत इसी तरह गोधा की चंपी में ही जवाब दे गए थे, तब से रामा खिब्बा है। गोधा भी मुँहफट है पर उसमें एक तमीज़, सरोकार की गुंजाइश रहती है। एक तो वह सिरफिरा और ऊपर से पहलवानी देहवाला है, इसलिए लोग उससे उचित दूरी बनाए रखते हैं। और गोधा किसीको भी मुँह पर कुछ भी सुना देता है जिसके चलते बहुत सारे लोग उससे क़तराकर भी चलते हैं। मेरी और उसकी बहुत अच्छी बनती है।

सीम में यूँ मिल जाने पर गोधा और मैं चाय चढ़ाकर बैठे बतिया रहे थे कि पास के कच्चे रास्ते से साइकिलों का टोला निकला। प्रौढ़ आंबा, युवा पाबूसिंघ, मनुभा तथा अन्य चार-पाँच लड़के थे जो सरकारी अनाज लेने लखपत गए हुए थे और बिना अनाज लिए रुआँसी शक्ल बनाकर लौट रहे थे। गोधा ने उन्हें चाय की हाँक दी तो सब रुके और वहीं कच्चे रास्ते पर साइकिलें खड़ी कर हमारे पास चाय पीने चले आए। गोधा ने उनसे यूँ शक्लें रुआँसी करने का कारण पूछा, तब लड़कों में से एक लड़के महावीर ने सारा वृत्तांत सुनाया।

हुआ कुछ यूँ था कि लॉकडाउन में सरकार ने ग्रामीणों और ग़रीबों को कुछ राशन सामग्री मुफ़्त में बाँटने की घोषणा की थी। सस्ता अनाज की सरकारी दुकानों द्वारा यह मुफ़्त अनाज ग़रीबों तक वितरण होने वाला था। पर सरकार की घोषणाओं में सौ में से बीस प्रतिशत ही सच होता है, इस गणित को यह जनता अब तक भी नहीं समझ पाई है! यही समझ-फेर उसके लिए अपमान, अन्याय, असमानता का सबब बनता रहता है। किसी जगह सरकार द्वारा जितना राशन प्रति कुटुंब घोषित हुआ था, उसका आधा तक नहीं मिल रहा था, किसी जगह बहुत ख़राब और सड़ा हुआ राशन मिल रहा था, किसी जगह लोगों को मिले बिना ही राशन ख़त्म हो चुका था और कहीं-कहीं राशन पहुँचा नहीं था। राशन वितरण अव्यवस्था के चलते शारीरिक दूरी के नियमों का पालन नहीं हो रहा था और शारीरिक दूरी के नियम की अमलवारी कराने पुलिस लोगों पर लाठियाँ चला रही थी। यूँ अनाज-वितरण लाठी-वितरण का प्रसंग भी बन गया था। एक तरह से अव्यवस्था और अराजकता फैली हुई थी।

इसी अव्यवस्था और अराजकता की शिकार आज ये साइकिल टोली हुई थी। पुलिस ने लोगों को लाइन में खड़ा करने और ‘सोशल डिस्टेंस’ बनाए रखने के लिए लाठियाँ भाँजी थीं, जिसमें आंबा और मनुभा की अच्छी-ख़ासी लठ्ठ-मसाज हुई थी। दोनों को अपनी स्याह पीठ और पिछवाड़ों के चलते बैठ सकने में भी बहुत कष्ट हो रहा था।

गोधा पूरे वाक़ए की मालूमात पाकर अब मज़े लेने के मुड़ में आ गया था। उसने आंबा और मनुभा से पीठ और पिछवाड़ा दिखाने की माँग की। वे दोनों शर्म, अपमान, बेचारगी से ना-ना करते हुए सिकुड़ते जा रहे थे और गोधा ठिठोली-ठहाके लगाते हुए ज़िद करने लगा। आख़िरकार गोधा ने ख़ुद ही उनका कुर्ता, धोती खींचकर उनकी पीठ-पिछवाड़ा देखने का प्रयास किया तो वे दोनों उठ-भाग खड़े हुए और चाय पीए बिना ही चल पड़े। आख़िर बाक़ी सबके लिए यह हँसी-ठिठोली का एक मौक़ा था! वे क्यों चूकते?

आंबा, मनुभा ने साथ आई और अब गोधा की चाय सुड़कती अपनी साइकिल टोली से चाय छोड़कर साथ चलने का आदेश फ़रमाया, पर किसी ने भी उनके आदेश को तवज्जोह नहीं दी। सब ढीठ बने हँसते रहे और चाय सुड़कते रहे। गोधा मुफ़्तख़ोर, हरामख़ोर, भिखमंगे जैसे विशेषणों से उन भागते हुए बेचारों को नवाज़ता रहा और कहता रहा कि सही हुआ इनके साथ, जहाँ कहीं भी कुछ मुफ़्त में बँटता है तो ये भिखारी पहुँच जाते हैं। कमीने गाँव का नाम डुबाते हैं। ऐसे डंडे पड़ेंगे तो जाना बंद कर देंगे। आंबा और मनुभा कुछ न बोले, सोचा होगा कि कौन इस साँड़ से उलझे।

मैंने सोचा कि गोधा से कहूँ कि यह मुफ़्त का नहीं हमारे ख़ून-पसीने की कमाई से पाए गए टैक्स से दिया जा रहा। सरकार कोई हम पर उपकार नहीं कर रही, हमारी ही कमाई आफ़त के समय में हमें यूँ लौटा रही है और यह सरकार दायित्व है। कोई दान-पुण्य नहीं कर रही हमें। पर गोधा को समझाना मेरे बस का नहीं था सो रहने ही दिया।

आंबा और मनुभा सबको बड़बड़ाकर गालियाँ देते चले गए। बाक़ी लड़के चाय-वाय पीकर कुछ देर गोधा की ठिठोलीयों-ठेठियों का मज़ा लेकर निकले। मैं भी चाय पीकर आगे चला।

हर व्यक्ति अपने से कमज़ोर व्यक्ति पर अपना रोब, घमंड, ताक़त दिखाकर अपने शक्तिशाली होने के भ्रम-अहं को संतुष्ट करता है। अपने से कमज़ोर के मुक़ाबले अपनी श्रेष्ठता साबित करना, सशक्तता दिखाना न मात्र मानवीय चरित्र है, अपितु प्राणी मात्र का यही चरित्र है। बॉस, मालिक या ऊपरी अफ़सर के आगे दुम हिलाता मुलाज़िम अपना सारा रोब अपने से निचले मुलाज़िमों पर निकालेगा, वह निचले तबके का मुलाज़िम घर आकर अपनी पत्नी पर ताक़त दिखाएगा और प्रताड़ित, पीड़ित पत्नी बच्चों पर या बर्तनों पर अपना ज़ोर आज़माएगी। यूँ हर किसी को कहीं न कहीं अपनी श्रेष्ठता, ज़ोर दिखाना ही है। एक मंत्री या राजनेता अपनी पॉवर का मुज़ाहिरा आला अफ़सरों को लताड़कर करेगा, अब मंत्री या नेता द्वारा लताड़ खाया तमतमाया कोई कमिश्नर, आईजी जैसा अफ़सर अपने से निचली कक्षा के अधिकारी एसपी, इंस्पेक्टर वग़ैरह पर आकर गरमाएगा, ये एसपी, इंस्पेक्टर जैसे अफ़सर कॉन्स्टेबल या सामान्य पुलिस जवान पर आकर बिफरेंगे, बिफरा हुआ सामान्य पुलिसकर्मी सामान्य जनता पर अपनी ताब दिखाएगा और ले लाठी टूट पड़ेगा। अब हर तरह से लुटी-पिटी ग़रीब जनता फिर अपना रोष बिचारी बेजान बसों, दुकानों, सरकारी संपत्ति पर न निकाले तब फिर कहाँ जाकर अपना ज़ोर साबित करे?

मैं भी यही करता हूँ, सत्ता मेरे मज़े लेती है और मैं अपने से कमज़ोर लोगों के मज़े लेता हूँ। अब कोई मानवीय मूल्यों, नैतिकता जैसी भारी-भरकम बातें करता है तो कह देता हूँ कि यह तो क़ुदरत का नियम है। डार्विन बाबा भी यही कह गए हैं न? सर्वाइवल ऑफ़ फ़िटेस्ट!

लखपत क़िले से लगकर पश्चिम-दक्षिण में नदी का चौड़ा पाट है। नदी के सूखे पाट में कुछ खेत हैं और छोटा-सा जंगल है। मीठ्ठी आम्मरी (गोरस इमली, जंगली जलेबी), गांडा बावर(पागल बबूल), झाल, और नीम जैसी वनस्पतियों की घनी झाड़ियों से यह जंगल हरियाली से छाया रहता हैं। मीठ्ठी आम्मरियों और गांडा बावर की फलियों से सारी ज़मीन लाल-पीली होकर अटी पड़ी थी। पंछियों, सुअरों, हिरनों, नीलगायों और घोड़ों के छोटे-छोटे टोले इन जंगली फलों का मज़ा ले रहे थे।

पंछियों में ख़ासकर यहाँ मोर बहुत हैं और गला फाड़-फाड़कर पूरा दिन शोर मचाते रहते हैं। इन दिनों कोरोना और लॉकडाउन के चलते इंसान की किसी भी तरह की दख़ल-अंदाज़ी, ख़लल नहीं थी, इसलिए वे बिल्कुल आश्वस्त और निर्भीक होकर मस्ती करते हुए इस वन में महफ़िल जमाए हुए थे। अक्सर इस मौसम में जब ये सारे जंगली फल पक आते हैं, तब ग्रामीण लोग अपने लिए और अपने पालतू पशुओं के लिए इन्हें बीनने जंगल आते हैं। दिन भर इस वन में लोगों का शोर रहता है, इसलिए जंगली पशु-पंखी डर के मारे यहाँ से दूर रहते हैं। पर इस-बार जंगल का माहौल अलग है। क़ुदरत ने इंसान को क़ैद कर दिया है और जंगलों के खरे बाशिंदों ने जंगल पर फिर से अपना क़ब्ज़ा कर लिया है। मुझे अचानक ही यूँ वहाँ जंगल आया देखकर वे ज़रा से झेंपे, पर फिर कुछ दूर खिसककर अपनी मस्ती फिर से डूब गए। नरों ने बहुत उत्पात मचा रखा था, वे मादाओं को चैन से मीठे वनफल भी खाने नहीं दे रहे थे। उन्हें भूलकर मैं और खब्बड़सिंघ (मेरा ऊँट) भी वन में अपना हिस्सा झपटने में जुट गए।

मिठास, रस, लावण्य, ललास, और जंगली स्वाद से भरी मीठ्ठी आम्मरियों को भर-पेट खाया। खब्बड़सिंघ ज़रा देर गांडा बावर की पीली फलियों पर टूट पड़ता फिर ज़रा देर मीठ्ठी आम्मरियों पर। मानो वह तय नहीं कर पा रहा हो कि अधिक मिठास और रसास्वादन किस में हैं? जहाँ इतनी मिठास, रस, स्वाद और सुगंध हो वहाँ भला मधुमक्खियों के छत्ते न हों यह कैसे संभव होता! लगभग हर पेड़ पर मधुमक्खियों ने बड़े बड़े मान्ने (छत्ते) बाँधे थे। हर एक मान्ने में एक से दो किलो तक मध (शहद) रहा होगा। यह मौसम ही मध के उत्पादन समय है पर इस-बार मधुख़ोर कहीं नहीं थे। मध इकट्ठा करने वाले इसी मौसम का साल भर इंतज़ार करते हैं। मधुमक्खियाँ इसी मौसम में छत्ते बुनती हैं और उन छत्तों के जालीदार छेदों में अपने बच्चों का सेवन-उछेर करती हैं। चैत-वैशाख और ज़्यादा से ज़्यादा ज्येष्ठ माह तक इनके छत्ते रहते हैं, फिर इनके बच्चे बड़े हो जाते हैं और मधुमक्खियाँ स्थानांतरण कर दूर देस चली जाती है। मीठ्ठी आम्मरियों का धराकर भोग चढ़ाकर हम दक्षिणी सीम के तालाबों की ओर चल पड़े।

वन की छाँव की आड़ से बाहर निकलते ही सूरज को सिर पर तपता पाया। उनाला की मौसम में आज पहली बार चैत की धूप के क़हर का अनुभव हो रहा था। धूप खुले अंगों को भुन दे रही थी। आग से नहाते हम दोनों जल्द से जल्द कहीं जल तक पहुँचना चाहते थे। आधे घंटे तक दुपहर की दाह झेलकर आख़िरकार हम हाँफते हुए पसीने से सन्ने ‘दक्खण तालाब’ जा पहुँचे। गोमाजी और इशु भी अपने अपने पशुधन के साथ यहीं पर बैठे दुपहर में आराम फ़रमा रहे थे। गोमाजी की भैंसे तालाब में नहा रही थी, इशु की बकरियाँ तालाब किनारे पेड़ो की छाँव तले सुस्ता रही थी और वे दोनों झाल की छाँव लेटे पड़े गप्प लड़ा रहे थे।

खब्बड़सिंघ काठी उतरते ही सीधे तालाब में कूद पड़ा और तालाब के बीचोंबीच जाकर डुबकियाँ खाने लगा। खब्बड़सिंघ के ख़ौफ़ से डरकर गोमाजी की भैंसे खिसककर कुछ दूर तालाब के किनारों पर कीचड़ में चली गई। हम तीनों ने मिलकर पेड़ की छाँव तले रेयाण जमाई और चाय चढ़ाई।

गोमाजी मेरे अज़ीज़ मित्र ख़ानजी के भाई हैं। साठ साल के क़रीब की उम्र को ओढ़े हुए बैठा यह बाँका बूढ़ा क़रीब-क़रीब साढ़े छह फ़ीट लंबा है। उम्र और श्रम के चलते लंबी काया ज़रा झुक-सी गई है। दस साल की मासूम उम्र से परिवार द्वारा गोमाजी को भैंसों के पीछे लगा दिया गया, तब से आज तक यह बंदा यूँ ही अपनी भैंसों की पीछे भटकता रहता है और लगभग इन पचास सालों से सीम में खुले आसमान के नीचे पड़ा रहता है। धूप हो, सर्दी हो या बारिश हो इसका बसेरा अपनी भैंसों के साथ रहता है। इतनी कठिन तपस्या फिर भी मुँह पर फ़क़ीरों-सी मुस्कान और आँखों में संतपुरुषों-सी करुणा और अपने कर्म में दार्शनिकों-सा गांभीर्य! मुझे गोमाजी किसी ऋषि-से लगते हैं।

चाय और गप्प कुछ देर चलती रही, फिर मैं तालाब में नहाने उतर गया। दोनों बुढ्ढे बाहर किनारे पर बैठे-बैठे मुझे ताल खेलता देखते रहे। शायद, उन्हें अपना यौवन याद आया हो।

जारी…

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