प्रकृति का चरित्र और कोरोना-कारावास

28 मार्च 2020

बाहर शहरों में पढ़ने वाले या काम-धंधा करने वाले ज़्यादातर लोग किसी तरह वापस गाँव लौट आए हैं या लौट रहे हैं। बहुत ही बेतुके ढंग से किए गए इस लॉकडाउन की वजह से सत्ता और समाज के नक़ली मुखौटे उतर चुके हैं। उनकी सभ्य, संगठित धागों से बुने नक़ाब के नीचे छिपी बदसूरत, सड़ी हुई और बदबूदार छवि उजागर हो चुकी है। देश भर में अव्यवस्था, अविश्वास, अत्याचार और असमानता की तस्वीरें तैर रही हैं जो किसी भी लिहाज़ से लोकतंत्र में लाज़मी नहीं है। लोग अपने अपने घरों, गाँवों की ओर पैदल चले जा रहे हैं—भूखे-प्यासे, थके-हारे, बीमार और निराश। सरकार पुलिस की लाठियों के बल पर उन्हें मार-पीटकर वापस खदेड़ने का प्रयास कर रही है, बजाय उन्हें घर-गाँव पहुँचाने के। उच्चवर्ग और मध्यवर्ग महीने भर का राशन-पानी लेकर अपने घरों में दुबक गया है और घरों में नित्य नवभोज करते हुए ग़रीबों, मज़दूरों को गरिया रहा है।

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साकरिया गाँव में दो-चार से पाँच-सात लोगों की टोलियाँ गली-चौबारों में बैठे गप्प लड़ाते रहते हैं। लोग घरों में बैठ-बैठकर ऊब गए हैं। कुछ काम-धाम भी नहीं है और बाहर निकलने भी नहीं दिया जा रहा, तब कब तक घरों में ठाले बैठे रहे? लोग सुबह-सुबह हल्के होने बहुत दूर-दूर तक डिब्बे लेकर चले जाते हैं और इस तरह घंटे-डेढ़ घंटे का समय काट आते हैं। आज सुबह जब मैं गाँव के दक्षिणी तालाबों की ओर अपने ऊँट को ढूँढ़ने गया, तब गाँव से तीन किलोमीटर दूर एक लड़का डिब्बा लिए मिला। इतने दूर टहलने आने की वजह पूछने पर उसने बताया कि इस तरह समय भी कट जाता और हल्का होने के साथ-साथ कुछ घूमना भी हो जाता है।

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दुपहर का खाना आज भी राजूसिंघ अपने घर से लाया था। हम दोनों ने मेरे खेत की झाल की छाँव में दुपहरी की। दो दिन से खब्बड़सिंघ को चरने छोड़ दिया था, फिर उसकी ख़बर नहीं ली थी। सुबह से तीन घंटे तक उसको सीम में ढूँढ़ता रहा, तब जाकर वह मिला था। उसके पीछे भटकने में कुछ थक चुका था और बहुत सारा खा भी लिया था, सो पेड़ की शीतल छाँव में कब नींद आ गई, पता भी न चला।

राजूसिंघ ने चेहरे पर पानी के छींटे छिड़ककर नींद से जगाया। वह मुझसे पहले जाग गया था और पानी से अपना मुँह धो रहा था। आज हम दोनों को ऊँट पर सवारी करके हमीर और कमा की ऊँटनियों के डेरों पर जाना हैं। रात भर वहीं रहकर कमा-हमीर की मंडली के साथ वंतल करेंगे और ऊँटनियों के दूध की खीर खाएँगे। हमीर ने वहाँ से आ रहे रघु के साथ कल संदेश भेजा था कि रा को मेरा जुहार देना। अब उसके जुहार का प्रत्युत्तर तो देना ही था। चाय-पानी निपटाकर ऊँट पर काठी जमाई। मैं और राजूसिंघ खब्बड़सिंघ पर आसन होकर कमा-हमीर के डेरों की तरफ़ पश्चिम में चल पड़े। सूरज पश्चिमी क्षितिज पर सरक रहा था और हम जैसे उसका आखेट करने के लिए उसका पीछा कर रहे थे। ऊँटारोहण करते हुए सूर्य का आखेट करने दृश्य कितना रोमांचकारी होगा!

29 मार्च 2020

सूर्य का आखेट करते उससे पहले वह डरकर बादलों की आड़ में कहीं छिप गया और सरककर अँधेरे के डेरे में दुबक जा बैठा। अब आखेट तो न मिला, पर कमा-हमीर जैसे यार मिल गए। कमा-हमीर की मंडली ‘खानियो पीर’ तालाब के पास डेरा डाले हुए थी। ‘खानियो पीर’ एक मुस्लिम फ़क़ीर था जिसकी मज़ार इस तालाब के किनारे है, जिसके चलते इस तालाब को ‘खानियो पीर तालाब’ कहते हैं। ‘खानियो पीर’ की मज़ार की देखभाल करने वाले और उनमें श्रद्धा रखने वाले सब हिंदू हैं। कच्छियत की रवायत है कि पीरो-फ़क़ीरों को धर्म, जाति, वर्ग में बाँटकर नहीं देखा जाता और वह रिवायत यहाँ खानियो पीर पर भी मुकम्मल तौर पर क़ायम थी।

तालाब जल से भरा पड़ा था और उससे भी अधिक कमा-हमीर के हृदय भरे पड़े थे। मुझे दूर से आता देखकर दोनों भेरू भरे-भरे पसीज रहे थे। मिलते ही लंबे लंबे आलिंगन लिए-दिए गए और जलमग्न हृदयों की शीतलता में ग़ोता लगाकर कंठ-कलेजे की प्यास और अंग-आँख की जिलास तृप्त की गई।

हमीर का भाई साध, भतीजा झलू और कमा का भतीजा ढोलर भी वहीं थे। साध थोड़ा-सा ऊँचा सुनता है। उससे बात करने में अक्सर मेरे गले और कानों को कष्ट से गुज़रना पड़ता है। हालाँकि, अब हम सिर्फ़ मुस्कुराकर ही काम चला लेते हैं। ढोलर संजीदा नवयुवक है, वह मुझसे लड़कियों को जल्द से जल्द बिस्तर तक कैसे ले आया जाए—के बारे में जानने को बहुत उत्सुक रहता है। वह मुझे इस मामले में उस्ताद मानता है और बड़ी संजीदगी से मेरी शागिर्दगी करता है। उसने मेरी कुछ चरवाहा लड़कियों से दोस्ती भी कराई थी जो मेरे लिए काफ़ी सुखदायी रही थी। झलू बहुत संकोची, एकांतजीवी, कम बोलने वाला और काम में प्रवृत्त रहने वाला जीव है। उसे बिस्कुट और दाबेली बहुत पसंद है। वह अक्सर क़स्बे जाने वालों से ये दोनों चीज़ें मँगाता रहता है।

कमा-हमीर के साथ बातें त्राड़ियाई जा रही है और चिलमें फूँकी जा रही थीं। साध, झलू और ढोलर त्रई ऊँटनियों को दोहने में और तोडड़ो को लियारने में लगी हुई थी। आग पर जमाए ठीओं पर खीर सीझ रही थी, जिससे हल्की-हल्की बुड़बुड़ाहट उठ रही थी। चिलम में जल रही घोड़ाकु तंबाकू की धूम्र-गंध ने खीर की गंध को दबा दिया था। हवा का कोई तीव्र झोंका चिलम के धुएँ की गंध को धकियाकर कुछ क्षण परे ले जाता, तब भी खीर की गंध के बदले ऊँटनियों द्वारा की जा रही अपाच्य चारे की जुगाली की सड़ी गंध नासिकाओं को भर देती थी। विभिन्न गंध, गप्प, चिलम का दौर खीर के पकने तक यूँ ही चलता रहा।

इलायची, सूँठ और मिश्री घोलकर कमा के द्वारा बनाई गई खीर में जो स्वाद, सुगंध और सफ़ेदी उतरी थी उसका बयाँ जीभ शब्दों से करने को असमर्थ थी; क्योंकि जीभ खीर के स्वाद में सम्मोहित थी, उसने भाषा खो दी थी। थालियों में कड़छे के कड़छे भर खीर उड़ेली जा रही थी, थालियों से घूँट-घूँट सुड़कते हुए उदर में उड़ेली जा रही थी; पर किसी की मजाल जो मना करे। सबने अपने-अपने उदरों को चौगुना-पाँच गुना चौड़ा कर लिया था। मैं पाँच थालियाँ खीर अपने उष्ट्रोदर को धरकर ही धराया। राजूसिंघ और ढोलर ने रिकॉर्ड बनाया, आठ-आठ थालियाँ उड़ेलकर डकार ली। सबके पेट फूलकर ग़ुब्बारे बन गए थे। खीर-जयाफत लूटने के बाद देर रात तक रेयाण जमी रही।

सुबह चाय बनकर तैयार हुई कि कमा के नए चार-पाँच यार आ गए। हमीर ने मुझे बताया कि लॉकडाउन की वजह से बीड़ी-सिगरेट बंद हो गई है, इसलिए आस-पास के गाँवों के बीड़ी-सिगरेट के कुछ तलबगार कमा के पास चिलम पीने आते हैं। कमा एक चिलम के बीस रूपए वसूल करता है उनसे। कमा की क़िस्मत कि वह लॉकडाउन के अगले ही दिन क़स्बे से अपने लिए साल भर की घोड़ाकु तंबाकू लाया था।

‘‘रा, कमा इन दिनों बहुत अच्छा कमा रहा है।’’—ज़रा ऊँचा बोलकर हमीर ने ताना मारा। कमा ने ताना सुना और मुस्कुराते हुए पलटकर कहा कि अब तो हमीर से भी चिलम के पैसे लूँगा। हमीर और कमा के बीच यूँ ही अठखेलियाँ चलती रहती हैं। चाय-पानी निपटाकर मैं और राजूसिंघ ऊँट पर सवार होकर निकल लिए।

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दुपहर को खाना निपटाकर दक्खणी सीम में रामा की बकरियों के पास चला गया। रामा के साथ मेरी समय-समय पर दोस्त-दुश्मनी चलती रहती है। रामा निहायती बदतमीज़, मुँहफट, मसख़रा और कमीना व्यक्ति है। अपनी ही बकरियाँ चोरी-छिपे पकाकर खा जाता है और जब उसकी माँ गुम हुई बकरियों के बारे में पूछती है, तो वह कोई गढ़ी हुई कहानी सुना देता है; जैसे कि लक्कड़बग्गे खा गए या किसी ने चोरी कर ली वग़ैरह। रामा गाँव की हर औरत के बारे में भी कुछ घटिया कहानियाँ गढ़ता और सुनाता रहता है। चुग़लबाज़ी करना, चटख़ारे लेना और चरित्रहनन करना उसका चरित्र है। पिछले साल उसने एक लड़की के साथ मेरा चक्कर होने की अफ़वाह फैलाई थी, जिस पर मैंने लोटा मारकर उसका सिर फोड़ दिया था। तबसे हमारे बीच अन-बन चल रही थी। उसे जब मेरे यहाँ साकरिया लौट आने का पता चला तो उसने रघु के साथ नियापा भिजवाया कि रा से कहना कि मेरे बाड़े पर आकर मिले।

वह इभ्भला पीर दरगाह के पास सूखी नदी के पाट में अपनी बकरियाँ चरा रहा था। बकरियाँ झाड़ियों में चर रही थी और वह एक नीम के पेड़ की ऊँची टाल पर चढ़ा बैठा सबकी टोह ले रहा था। उसने मेरी दूर से ही आते टोह ले ली थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि एक कमीने इंसान को अपनी कमीनगी के लिए भी कितने यत्न करने पड़ते हैं! मेरे पास जाते ही वह पेड़ से नीचे उतर आया और हमारे बीच औपचारिक दुआ-सलाम हुई। चाय-चू पी और शाम होने तक दोनों साथ-साथ वन-वन बकरियाँ चराते, टहलते रहे।

वन-झाड़ियों में वसंत का उत्सव चल रहा था। बबूल की झाड़ियाँ पीले पीले फूलों से लद गई थीं। मानो कच्छ की हुनरमंद कसबी-कारीगर स्त्रियों ने क़सीदेदार कढ़ाई न बुनी हो! हरे-हरे पत्तों, मटमैली डैनियों और पीले-पीले फूलों के संयोजन की आभा ही न्यारी थी। थोर के डांडे लाल-लाल फूलों के फुमगेनुमा गुच्छों से शोभित थे। खेर और नीम सफ़ेद मंज़र से सराबोर महक रहे थे। करिल तो भ्रमित कर रहे थे; क्षण भर भगवा धारण किए योगी लगते तो दूसरी क्षण में लगता कि केसरीवर्ण तितलियों का झुंड उग आया है—करिल की हरित काठ पर। करिल पर कहीं-कहीं कच्चे केरड़े नीले मोतियों की तरह लटक रहे थे। पंछियों के झुंड के झुंड वन में सजे इस वसंतोत्सव के सामूहिक जिमणवार पर टूट पड़ रहे थे। मैनाएँ, तीतर और बुलबुल वसंतोत्सव के इस वनभोज का लुत्फ़ कम उठा रहे थे शोर ज़्यादा मचा रहे थे। उनके बनिस्बत पारले, होले, हमिंगबर्ड और गौरैया शांति से मज़े लेकर फल-फूल की लज़्ज़त ले रहे थे। मधुमक्खियाँ और भमरें पेड़-पेड़, पात-पात, डाल-डाल, फूल-फूल पर घूम-घूमकर मधुर रस चूस रहे थे।

कोरोना काल में लॉकडाउन के चलते इंसान के संसार के गति रुक-सी गई है; लेकिन प्रकृति अब भी कितनी सहज, सरल और सुंदर ढंग से गतिमान थी। प्रकृति का चरित्र कितना संस्कृत और सुचारु है! किसी को भी ख़लल डाले बिना, हानि पहुँचाए बिना ज़रूरत भर का लेना और लौटाना। सहज व्यवहार और सरल आचार-विचार। सहज और सुंदर बने रहने की सोच और प्रवृत्ति! अपने को सभ्य कहलाने वाला मनुष्य इस प्रकृति के साथ किस विकृतता और स्वार्थ के साथ बरतता है, यह कोई छुपी बात नहीं है। प्रकृति की सहजता और सुंदरता को नष्ट करने की सज़ा के तौर पर ही तो कहीं मानव को यह कोरोना-कारावास नहीं मिला?

शाम को रामा की बकरियों के बाड़े पर लौटे। बकरियों का दूध निकालने और उनके बच्चों को दूध पिलाने से निपटकर रामा बाड़े की भीतर बकरियों की लिंडियों के ढेर के भीतर गाड़-छिपा रखी फ़्रेंच वोदका की बोतल निकाल लाया। गिलास उपलब्ध न होने के चलते वोदका से कटोरियाँ भरी गईं और चूल्हे पर खारी-भात चढ़ा दिया गया।

रामा ने पास के फ़ौजी कैंप में किसी फ़ौजी को शहद देने के मुआवज़े में यह वोदका की बोतल पाई थी। रामा बकरियों के साथ वन से भटकते हुए मध और गूँद भी इकट्ठा करता रहता है, जिससे उसकी अच्छी आमदनी निकल जाती है। रामा मुझ पर इसलिए मेहरबान हुआ था, क्योंकि वह एक तीर से कई शिकार करना चाहता था। एक वह मुझे वोदका की दावत देकर मेरे साथ अपनी पुरानी रंजिश ख़त्म करना चाहता था। दूसरा उसे मेरे ऊँट की बार-बार ज़रूरत पड़ती रहती थी। तीसरा कि उसने मेरे मित्र राजूसिंघ के बारे में भी एक ताज़ी अफ़वाह फैलाई थी, जिसके चलते राजूसिंघ उसके दाँत तोड़ने के लिए उसे ढूँढ़ रहा था और वह मुझसे दोस्ती गाँठकर राजूसिंघ द्वारा संभावित पिटाई से बचना चाहता था। चौथी वजह उसकी दरियादिली की चार-चार कटोरियाँ वोदका गटकने के बाद ज़ाहिर हुई थी कि वह मुझे बहुत शराब पिलाकर कुछ ऐसी बातें निकलवाना चाहता था, जिससे वह मेरे बारे में नई अफ़वाह गढ़ सके। चौथी वोदका कटोरी से गला तर करने के बाद उसने पूछा कि रा ज़रा बता कि तुम गाँव की किस-किस औरत के साथ सो चुके हो। मुझे तब तक इतना गहरा नशा नहीं हुआ था, इसलिए एक गाली और जूता फेंककर मारने से ही उसकी यह जानने की ख़्वाहिश दब गई।

जारी…

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