अक्टूबर किसी चिड़िया के बिलखने की आवाज़ है

यहाँ तुम नहीं हो। इस जगह सिर्फ़ तुम्हारी संभावनाएँ हैं, बिल्कुल पिघले हुए मोम की तरह, जिसमें न लौ बची है और न पिघलने की उष्णता। बस बची है, तो रात की एक आहट और किसी ओझल क्षण में जलते रहने की याद। क्वार की धूप उतरती है इस मन-भव के आँगन में, पोर-पोर पर एक हल्की सिसकी उग आती है। तुम्हारा न होना याद आता है, उस न होने में तुम्हारी याद आती है और तुम्हारे न होने का होनापन चरमराता है, बिना दरवाज़ों के इस घर में। यह असंग अक्टूबर न जाने कब धीरे-धीरे फैल आया है, जब तक इसके उजाले को समझने की कोशिश करता हूँ, इसका अँधेरा पारिजात के शाखों की खाल ओढ़े हाथ हिलाता है और उसके फूलों की तरह महकने लगता है।

यह एकांतिक उत्सव कितना दैन्य है। अक्टूबर जैसे-जैसे फिसलता है मेरी नसों से, तुम्हारी जीवट स्मृतियाँ उतने ही वेग से आवृत्तियों में पुकारती हैं मेरा वह खोया हुआ नाम, जो तुम्हारे शहर की किसी बंद गली में गुमनामी की चिरंतर यातना काट रहा है। ये ओस भरे पाँव रह-रहकर कोसते रहते हैं शरद की बेधुनी सड़क पर पड़ी उदासियों को ठोकर मार-मारकर। क्या उदास होना हर मनुष्य का भाग्य है? क्या पारिजात के ये बिखरे हुए फूल इस विकट नैराश्य पर झरे हुए स्मृति-चिह्न हैं?

मैं तुम्हारे नाम लिखा गया एक प्रेमपत्र था, जिसे अधूरा पढ़कर छोड़ दिया गया। लेकिन इसके अक्षरों पर जितनी बार तुम्हारी अबोध उँगलियाँ फिरीं, एक लोमहर्षक धुन गुँथती चली गई। वह धुन इस उदास अक्टूबर का विरह संगीत है। यह जिया हुआ संगीत, जो मेरी आत्मा पर बार-बार बजता है। इसे अनसुना कर पाना ख़ुद को नकारने जैसा है। यहाँ की दीवारें प्रतीक्षा में इतनी व्यग्र हो चुकी हैं कि इनका खोखलापन एक दिन ढह जाएगा। मिट्टी पर ढहे हुए भीटों की अंखुआहट पनपेगी और हर दिशा-दिवस पर चढ़ आएगा अक्टूबर का विलाप।

कभी-कभी मुझे लगता है कि अक्टूबर किसी चिड़िया के बिलखने की आवाज़ है। वह चिड़िया, जिसका जंगल, जिसका पेड़, जिसका घर तबाह कर दिया गया है। वह रोती हुई हर जगह अपना अतर्कित अज्ञातवास काटती चली जा रही है। कोई अनागतविधाता नहीं, जो यह बता दे कि यह एकालाप कब थिर होगा। प्राची से प्रतीची तक कोई भी सजीव प्रयत्न नहीं कि इस अवहित्था को पढ़ा जा सके, उसी के नेपथ्य में।

अनुपस्थितियों की एक अजीब जड़ता होती है, जो आपको हर समय कोंचती रहती है। ख़ासकर तब, जब आप उसे और अधिक महसूसना शुरू कर देते हैं। चेतना पर एक अतिरिक्त भार आने लगता है। न समय का पता लगता है और न उम्र का। पर्व-त्योहार सब अनमने, नीरस और उल्लासरहित लगने लगते हैं। स्मृतियों में जब कुछ बहुत ही आह्लादपूर्ण हो रहा हो और उसे आप वर्तमान में न पाएँ, तो अविद्य–नदारद चीज़ों का पता लगता है। ख़ाली जगहें निराश करने लगती हैं। उनकी जगह आया ख़ालीपन का आयतन घूर-घूरकर देखता है।

उदासी का अपना एकांत होता है। कितनी भी संलिप्तता के बावजूद वह आपको उस एकांत में घसीट ले ही जाएगी। जीवन में कितना कुछ छूटता रहता है। हमें लगता है, यह गति आगे की ओर है; लेकिन जो अब है, जिन हिस्सों–टुकड़ों से अब का वर्तमान तैयार हुआ है, वह उसी रेख पर बना है, जो छूटता चला गया। जीना एक आदत की तरह है। आदतों से हुआ मोह बहुत मगरा होता है।

अनुपस्थितियों की खाई पर प्रतीक्षा का पुल नहीं बाँधा जा सकता। जहाँ-जहाँ वे हैं, वहाँ गर्त तक उतरकर आगे की चढ़ाई करनी ही होती है। जीवन को खींचना ही होता है, वर्तमान तक पहुँचने के लिए। इसके लिए कोई विकल्प नहीं। जितनी जीवन की नाप है, उसमें ऐसे ही दिन उगेंगे-आएँगे। वर्तमान की रिक्तियों में स्मृतियाँ भर–भर आएँगी। इसी में सब बीतता जाएगा अवर्तमान होता हुआ।

फिर भी यह सबके हिस्से में आया हुआ थोड़ा-सा समय है। उस समय में हर विविक्त आसमान की ओर मुँह किए प्रार्थनाओं में लीन है। किसी गिरे हुए पारिजात को देखता हूँ, तो वह आत्मा के टूटे हुए टुकड़े जैसा लगता है। उसे छूता हूँ, अपनी हथेलियों पर जगह देता हूँ, वह जुड़ जाता है तुम्हारी अनुपस्थितियों से। इसी प्रायोवाद में एक धुन बजती है, वही धुन जिसे तुम्हारे अनसुनेपन का शाप है, अक्टूबर का यह विरह-राग।

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