जीवन अपने भाग्य के ख़िलाफ़ आमरण अनशन है
14 सितंबर 2022
कल किसी ने व्हाट्सएप पर एक स्टेटस लगा रखा था। किसी की मृत्यु का। बहुत सुंदर चेहरा था। जवान था। मैंने पूछा – कौन हैं भाई? जवाब आया – शाइर थे! मैंने पूछा – आत्महत्या? जवाब आया – हाँ!
मैं अपनी इंसटिंक्ट पर हैरान हुआ और शर्मिंदा भी। लेकिन अब मैं यह जान गया हूँ कि शाइर क्यों मर जाता है। मैं शाइर न हुआ तो क्या हुआ। अच्छी शाइरी तो समझता हूँ। अच्छी शाइरी का मतलब ही यही है कि कुछ एबनॉर्मल साथ चलेगा। दिल जलेगा। ज़ाविये फ़लक से सितारों को तोड़कर ज़मीन पर लाए जाते हैं। एक शाइर क्यों मर गया यह बात दुनियादार नहीं बता सकते। मैं भी नहीं बता सकता। बस महसूस कर सकता हूँ।
एक बहुत बड़ी दूरी होती है लिखने वाले और पढ़ने वाले में। यह दूरी प्रकाश वर्षों में भी नहीं नापी जा सकती। नीरज ‘एक जाम’ में वहाँ पहुंच जाते हैं जहाँ लोगों को पहुंचने में सदियाँ लग जाएं। जब कोई इतनी दूर पहुंच जाता है तो मौत के पास पहुंच जाता है या मौत से आगे।
मैं तो मौत से डरने वाला आदमी हूँ। मौत से नहीं मौत के कष्ट से। ले जाने को कोई आज और अभी ले जाए। शर्त लेकिन यह है कि मेरा दम नहीं घुटना चाहिए। मुझे चाकू चुभना नहीं चाहिए। बैठे-बैठे हंसा उड़ जाना चाहिए। फड़फड़ाहट की आवाज़ भी नहीं होनी चाहिए।
दो-चार बरस पहले तक मरने की बहुत इच्छा थी। एक फंदा भी बनाया था। फंदा नहीं लटका सका ख़ुद क्या ख़ाक लटकता। शिव बटालवी और मजाज़ बनना चाहता था। अब नहीं बनना चाहता। जान गया हूँ कि शाइरी/कविता/लेखन कोई इतनी बड़ी चीज़ नहीं।
जो कम उम्र में फ़ना हो गया उसके पासंग जी कर भी पहुंचा जा सकता है। थोड़ी-सी रियाज़त, दिल में आग और आँखों नें नमी हो तो कौनसा ज़ाविया/एंगल नहीं लिखा जा सकता।
मरने वाले से एक बात कहना चाहता हूँ। अच्छा किया तुम मर गए। तुम न मरते तो जीते जी ज़िन्दगी और जीते जी मौत का फ़र्क़ नहीं समझ आता मुझे। घरवालों और दोस्तों के लिए अफ़सोस है। तुम्हारे लिए मेरे पास आँसू हैं मगर सिम्पथी नहीं। सिम्पथी तब होती जब तुम जीने की हिम्मत करते।
जीने की हिम्मत करते तो क्या इतने अच्छे शाइर होते?
बड़ा मुश्किल सवाल है!
दुनियादारी कहती है इसका जवाब हाँ हो सकता है। मेरे अंदर का शख़्स कहता है बिल्कुल नहीं।
ऐ मरने वाले! तुझे इस डायरी वाले की मज़बूरी बताऊं?
इस ‘डिप्लोमैट’ को बहुत कुछ अब भी छुपाकर लिखना पड़ता है।
जहाँ रहो.. आबाद और शाद रहो!
13 सितंबर 2022
‘तू प्यार है किसी और का तुझे चाहता कोई और है’ से लेकर ‘यह असंगति ज़िन्दगी के द्वार सौ सौ बार रोई – बाँह में है और कोई चाह में है और कोई’ तक; सबके चेहरों पर किसी मलाल का काला गुलाल मुझे साफ़-साफ़ दीखता है।
ऐसा लगता है कि यह घर नहीं दूसरा घर चाहिए था। यह ज़मीन नहीं दूसरी ज़मीन। यह धूप नहीं दूसरी धूप। यह साया नहीं दूसरा साया।
फिर हम इसे भाग्य समझकर माथे से लगा लेते हैं।
मैं एक चालीस बरस पुराने अफ़सोस को बहुत क़रीब से जानता हूँ। केवल एक दूसरा पुरुष चाहिए था उन्हें। और उनका जीवन दूसरा होता। उनकी आवाज़ की लरज़ से अफ़सोस का लावा झरता है। वे बात करती हैं तो आवाज़ के पीछे की चुप्पी की रुलाई पल्लू कर लेती है।
जीवन इसी का नाम है।
बशीर बद्र कहते हैं :
ये ख़ुदा की देन अजीब है कि इसी का नाम नसीब है
जिसे तूने चाहा वो मिल गया, जिसे मैंने चाहा मिला नहीं!
उसे लगता था कि उसे मुझसे बेहतर मिल गया। वो पागल थी। जो मुझसे बेहतर होगा फिर उससे भी बेहतर कोई होगा। उसकी दौड़ तो ख़त्म नहीं हुई न। हाँ, मेरी दौड़ ख़त्म हो जाती। मैं बेहतर के चक्कर में नहीं था। मैं बस ‘चक्कर’ में था।
पहला और आख़िरी चक्कर।
वही घर वही ज़मीन वही धूप वही साया।
जावेद सा’ब कहते हैं :
हम जिसे गुनगुना नहीं सकते
वक़्त ने वो गीत क्यूँ गाया?
गाएंगे तो वही गीत। भले जीवन बेसुरा हो गया हो। मलाल का काला गुलाल मुँह पर पोतेंगे और दर्पण के सामने हँसेंगे। सबके सामने हँसेंगे।
जीवन अपने भाग्य के ख़िलाफ़ आमरण अनशन है।
12 सितंबर 2022
परदादा का श्राद्ध था। ब्राह्मण दम्पत्ति के धोक खाने की इच्छा तो नहीं थी लेकिन खानी पड़ी। तिलक निकालना पड़ा। हाथ जोड़ने पड़े। आशीर्वाद लेना पड़ा। दादी का आग्रह था। आग्रह से अधिक आदेश था।
मुझे तिनके जितना बोझ भी लोहे जितना भारी लगता है। कोई मूर्ख मुझे ब्राह्मण विरोधी साबित कर सकता है। लेकिन मैं हूँ नहीं। जब मैंने आज तक किसी ने नहीं पूछा कि तुम ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद्र; तो अब इस बात की क्या चिंता?
मैं अस्तित्व से बड़ा आक्रांत रहता हूं। मुझे पता नहीं यह कहां तक फैला हुआ है। सूक्ष्म और स्थूल के बीच यात्रा करवाने वाला कोई गुरु आज तक नहीं मिला। मैं स्वयं इस लायक नहीं कि यह बात जान सकूं मेरे परदादा क्या हुए और कहां गए।
पैर तो मैं पाँच साल के बच्चे के भी छू सकता हूं। छूता ही रहा हूं। और वैसे पिछत्तर बरस के आदमी के पैर भी नहीं छुए जाते। बहुत भीतर से एक आवाज़ आती है – इसके आगे झुका जा सकता है!
जिस भीतर से यह आवाज़ आती है – क्या उसी भीतर की दुनिया में मेरे परदादा के साथ कुछ हो रहा है? क्या उसी भीतर की सत्ता के नीचे आने वाले कई जन्मों तक मुझे रहना पड़ेगा?
रहना क्या पड़ेगा… हूँ ही!
कभी-कभी लगता है सारा खेल भीतर का है।
भीतर से आक्रांत हूं या अस्तित्व से। भीतर का अस्तित्व क्या है। अस्तित्व के भीतर क्या है। भीतर के बाहर क्या है। बाहर के भीतर क्या है। क्या फिर भीतर के भीतर कोई भीतर है। या फिर बाहर के बाहर कोई बाहर है।
आग लगे रे!
उपनिषदों से प्यास नहीं बुझी। मैं नचिकेता ना हो सका। धर्म ग्रंथ मुझसे नहीं पढ़े गए। मुझे लगता है उनमें कुछ ख़ास है भी नहीं। एक बात और है। कौनसा ग्रंथ ऐसा है जिसे ग्रंथ कहने पर वह प्रथमतः धर्म-ग्रंथ हो जाता है?
क्या धर्म-ग्रंथ रचना इतना सरल है?
फिर वही बात।
आज अच्छा नहीं लग रहा। आज झुकना अच्छा नहीं लग रहा। आज भीतर से आवाज़ नहीं आ रही – इसके आगे झुका जा सकता है!
उस ब्राह्मण दंपत्ति के बच्चे अभी छोटे ही होंगे।
क्या उनके पैर छूने को मिल सकते हैं?
ख़ैर!
11 सितंबर 2022
कौन पढ़ रहा है – क्या सोच रहा है – कितने दिन साथ रहेगा जैसे प्रश्नों का मेरे लिए लिए कोई ख़ास मूल्य नहीं रह गया है। मैं बहुत ईमान से कहता हूँ कि मैं न लिखूं तो मुझे साँस नहीं आता। मुझे ऐसा लगता है जैसे यह हवा प्लास्टिक की पॉलीथिन में बदल गई है और इस पॉलीथिन से किसी ने मुझे बाँध दिया है। जैसे-जैसे मैं कुछ लिखता जाता हूँ इस पॉलीथिन में छेद करता जाता हूँ। मुझे साँस आने लगता है।
मुझे कोई भरम नहीं कि मुझमें कुछ महान अव्यक्त है जो व्यक्त होना चाहता है। मैं तो अपने भीतर की और मेरे बाहर की परस्पर हलचलों का एक ठीक-ठाक रिपोर्टर भर हूँ। मेरा संवाद मुझसे प्रारम्भ होकर आप तक और आप से किसी अज्ञात तक चलता रहता है।
मेरे पास भाषा कम है – तत्सम का अभाव है – व्याकरण अल्प है; लेकिन उन सबसे पहले पुरखों का दग्ध हृदय है; जिनके पास अपने मौन को किसी भी हाल में मुखर करना सबसे ज़रूरी बात थी। मेरे पास ज़रूरत भर भाषा है। इस भाषा से मैं अपना काम चलाता हूँ।
मैं पेड़ के तने पर एक संकेत बना सकता हूँ – मैं अपने पाँव से धरती पर एक रगड़ लगा सकता हूँ – मैं सूरज और चाँद की दिशा पहचान सकता हूँ – मैं दिन और रात का अंतर कर सकता हूँ – मेरे लिए इतनी भाषा पर्याप्त है; जो मेरे लिए इस भयानक जंगल में नहीं गुमने की गारंटी हो।
भटकने की इस अवशता पर कैसा पुरस्कार और कैसा मूल्यांकन?
यहाँ तो हाथ बदल जाते हैं और कटोरा वही रहता है। मेरे हाथ में तो एक घास का तिनका है जिसे बीड़ी की तरह अपने होठों में दबाए मैं भागता चला जाता हूँ।
मेरी यात्रा को दूर से देखकर इसे अकेले और बिना किसी सहारे के बड़े होने की दुआ दीजिये।
हालांकि वे लोग क्या दुआ देंगे जिनकी पलकों से आंसुओं की महक* नहीं आती। बस एक कटोरे की चाह टपकती है। आँखों से लालच की राल।
एक महान अव्यक्त तो दूर औसत व्यक्त भी नहीं!
10 सितंबर 2022
रात के बारह बजने पर एक उत्सव मेरे मन के भीतर शुरू हो जाता है। यह ऐसा नाच है जिसकी परिधि के भीतर मैं सारे जागे हुए और सोते हुए लोगों को ले आना चाहता हूँ।
वैसे बड़ी छोटी-सी बात है। आज बीत गया। कितना मुश्किल था इसे बिताना। कल आ रहा है। आ ही चुका है। यह कितना सुंदर होगा। आज शायद इसे बिताना थोड़ा आसान हो जाएगा। मैं ऐसी उम्मीद करता हूँ। मैं इस उम्मीद में सब को शामिल कर लेना चाहता हूँ। इस वक्त मैं सोना भी चाहता हूँ और जागना भी चाहता हूँ। रोना भी चाहता हूँ और हंसना भी चाहता हूँ।
मुझ से बुझे हुए चेहरे के साथ मत मिला कीजे। या तो चेहरे पर आग हो और उस आग की वजह से रौशनी या चेहरे पर ऐसा मातम हो कि एक मिशन के तहत मैं उसे उत्सव में बदलने के लिए बेचैन हो जाऊं।
रात बारह बजे मैं सर्वव्यापी हो जाता हूँ। रात बारह बजे मैं सर्वजनहिताय हो जाता हूँ। यह किसी सस्ती मदिरा का नहीं बल्कि चौबीस घंटे और सातों दिन नश्वरता और अनश्वरता की झूल का नशा है।
रात बारह बजे मैं लगभग ईश्वर लगभग मनुष्य लगभग आत्मा लगभग चेतना लगभग कविता लगभग अंतरिक्ष हो जाता हूँ।
मेरे साथ इस काग़ज़ पर अपने नहीं रहने और होने का उत्सव मनाइए।
28 अगस्त 2022
दस लिपस्टिक का एक सेट है जिसे कल यामी लिए फिर रही थी। मैंने तो आजतक हाथ में भी नहीं ली तो मुझे क्या पता कि लिपस्टिक है या कलर बॉक्स? मैंने उससे पूछा कि यह कलर बॉक्स लेकर कहाँ जा रही तो मटक कर बोली आप इडियट हो। यह लिपस्टिक है। मैंने कहा आठ साल की दुष्ट लड़की ये तेरे क्या काम की?
तो बोली गर्ल्स के बारे में आप क्या जानते हो?
अरे जानता तो मैं बहुत कुछ हूँ पर उसे क्या बताता। बड़ी होकर कभी मेरी कविताएं या डायरी पढ़ेगी तो ख़ुद ही जान जाएगी कि मैं इतना भी ढपोळ नहीं था।
ख़ैर, मैंने कहा ला मैं तेरा मेकअप कर देता हूँ। बाई ड्रेसिंग टेबल की स्टूल पर बैठ गई। मैंने कोई एक लिपस्टिक उठाई तो बोली रात को ये वाली नहीं ये वाली लगाते। मैंने सोचा हद है। फिर कोई गुलाबी टाइप की लगाई। मुझसे होंठ पर तो कम लगी और ठुड्डी पर ज़ियादा। थोड़ी देर तो उसने बर्दाश्त किया फिर मुझे धक्के मारकर बाहर कर दिया।
जिस हिसाब से वो तैयार हो रही थी एक भाई का दिल यह सोचकर धड़क रहा था कि यह कितनी जल्दी बड़ी हो रही है। फिर मैं काउंटिंग में लग गया कि जब इसकी शादी की उम्र होगी तब तक मैं पैंतालिस पार हो चुका होऊंगा। या अगर यह मर्ज़ी से ब्याह करेगी तो पचास पार भी शायद।
एक झुरझुरी-सी छूट गई। उम्र कितनी जल्दी बीतती है। यह बस बीत जाती है। मैंने उसे कहा रात हो गई अब तू पड़ जा बाई। सुबह मेकअप करना। मुँह बिदका कर उसने मुझे ऐसे देखा जैसे मैंने उसका सारा प्रोग्राम कैंसिल कर दिया हो।
लेकिन जब मैं छुटकी के चेहरे पर लिपस्टिक पोत रहा था तो मुझे पहली बार लगा कि ख़ुदा ने फूलों में किस एहतियात से रंग भरे होंगे। और यह कितना मुश्किल रहा होगा। हरेक चीज़ का एक तय रंग और रंग का रंग के भीतर तय अनुशासन में रहना कितनी कमाल बात है।
एक शेर तब भी गूँज रहा था और अब भी गूँज रहा है। अनवर शुऊर का है :
बस उसके होंठ काग़ज़ पर बना देता हूँ मैं
ख़ुद बना लेती है होठों पर हँसी अपनी जगह
मैं इस बात के लिए किसी हद तक शर्मिंदा हूँ कि यामी को इस तरह तैयार होते देखकर मैंने यह कल्पना क्यों नहीं की कि एक दिन वह तैयार होकर किसी ऑफिस में जाएगी? मैंने उसके ब्याव के बारे में क्यों सोचा? लेकिन बात यह भी तो है कि यह सदियों की बीमारी इतनी जल्दी नहीं जाएगी।
क्या लाड़-कोड बुरी बात है?
परसों कोविद ने अलमारी से अपने पापा की शादी साफा निकालकर पहन लिया और आईने के सामने खड़ा होकर मुळकने लगा। मैंने तो तब भी यही कल्पना की थी।
क्या कल्पनाओं पर किसी नए समय के पहरे लग सकते हैं?
वे जो ज़रा-ज़रा-सी बात पर नए समय की बात करते हुए थोड़े-से पुरानों पर हमलावर हो जाते हैं – क्या उनके रंग कभी नहीं फैलते?
ख़ुदा ने कुछ रंग फैलने के लिए भी बनाए हैं। आँसू और हँसी के रंग ही देख लीजिये न!
17 अगस्त 2022
मैं कुछ ना कुछ ऐसा करता रहता हूँ कि मुझे अपने आप से कोफ़्त होने लगती है। यही कोफ़्त फिर एक हँसी में बदल जाती है। पिछले बीस दिनों से डायरी का एक पन्ना भी नहीं लिखा। सोचा था कि खूब लिखूँगा। लेकिन सब सोचा हुआ ही रह गया। हाँ, कुछ छोटी-मोटी कविताएँ लिखीं। कुछ ख़ास पढ़ा भी नहीं। जबकि पढ़ना चाहिए था। राखी भी आकर चली गई और पंद्रह अगस्त भी। मुझे जैसे उदास आदमी को इन दोनों उत्सवों ने बहुत बहलाने की कोशिश की। लेकिन मैं उत्सवों के काबू में नहीं आ सकता। फ़ितरत ही ऐसी हो गई है कि कोई बड़ा एक्सीडेंट या मातम चाहिए। मुमकिन है इसमें भी किसी तरह का कोई प्लेज़र मिलता हो। उत्सव के नाम पर दो ही उत्सव मुझे अच्छे लगते हैं। होली और मकर सक्रांति। मैं साल भर की कसर इन दोनों उत्सवों में निकाल लेता हूं। उन दिनों में इतना खुश होता हूं कि मैं मातम और एक्सीडेंट वगैरह पर भी हंस सकता हूं।
बीच में फेसबुक से 1000 मित्रों को डिलीट कर दिया। यह मैंने ऐसा सोचकर किया था जिन लोगों से मेरा सीधा ताल्लुक़ नहीं उन्हें रख कर क्या फ़ायदा। फिर मैंने जाने वालों के बाद बचे हुए लोगों के नाम पढ़े और मुझे अपने आप पर हंसी आई।
ज़िन्दगी साली एक टेढ़ी पीसा की मीनार है। यह गिर नहीं रही यह कमाल है। हम सोचते हैं हमने संभाल रखी है। ऐसा है नहीं। संभाल तो उन्होंने ही रखी है जो दिख नहीं रहे। लेकिन वे महत्वपूर्ण बहुत हैं। अब मेरा मन कर रहा है कि जिन लोगों को मैंने अमित्र किया उन्हें ढूंढ-ढूंढ कर फिर से दोस्त बनाऊं। इसे ही केमिकल लोचा कहा जाता है। बनाने और बिगाड़ने की इतनी बुरी आदत है मुझ में कि स्थायित्व नाम की किसी चीज़ से तो मेरा कोई परिचय ही नहीं है।
मेरी दादी कहती है कोई बीनणी ले आ। इससे तुझ में टिकाव आ जाएगा। यह कैसी बात हुई। मुझे तो डर है मैं उससे भी ऊब जाऊँगा। अब ऊबने के आधार पर तो तलाक़ नहीं लिया जा सकता।
वाह। शादी हुई नहीं और तलाक़ की बात। जय हो मनमीत बाबू की जय हो।
मैंने कई बार मेडिटेशन की कोशिश भी की है। मैं सोचता था कि मेडिटेशन वगैरह करके अपने मन की चंचलता पर काबू पाने की कोशिश करूंगा। फिर मुझे यह भी चुतियापा लगने लगता है।
सीधी बात यह है कि जितने लोग बाहर हैं उससे कहीं ज़्यादा लोग मेरे अंदर है। यह जो अंदर बैठे हुए लोग हैं इनकी आवाज़ मुझे दिन-रात सुनाई देती है। मैं इन्हें चाहूं भी तो इग्नोर नहीं कर सकता। बाहरी बाप जैसा एक भीतरी बाप है – बाहरी मां जैसी एक भीतरी मां है – बाहरी प्रेमिका जैसी एक भीतरी प्रेमिका है – और बाहरी अनजान जैसे भीतरी अनजान दोस्त हैं।
मनमीत बाबू तुम भी बड़े अजीब हो। तुम यह सारे कारनामे कब बंद करोगे। या फिर तुम इन्हीं कारनामों वजह से मनमीत हो।
राम जाने।
15 जुलाई, 2022
इतना लंबा सपना तो कभी नहीं देखा। और कुछ भी याद नहीं है कि क्या देखा। रात 10:15 से सुबह 4:30 बजे तक तीन बार नींद खुली। वापस इस उम्मीद में सोया कि अब सपना ख़त्म हो जाएगा मगर नालायक फिर वहीं से शुरू हो जाता। जो थोड़ा-बहुत ध्यान में है वह बस इतना कि डरावना था। ए.सी. में सोया था फिर भी दो बार उठ कर टी-शर्ट बदलनी पड़ी। बिस्तर पसीने से तरबतर था। या तो टीवी पर किसी डरावनी फिल्म के एकाध सीन देख लिए होंगे या कुछ ऐसा वैसा पढ़ लिया होगा। मीठे सपने तो अब दुर्लभ हो गए हैं।
बहुत मन करता है कि सपने में कोई दिन दादोसा आएँ। लेकिन वह नहीं आते। परिवार के हर सदस्य को सपने में दिख जाते हैं बस मुझे नहीं दिखते। जबकि मैं उनका सबसे लाडला पोता था।
आने को तो रोमांटिक सपने भी आते हैं। लेकिन रोमांस के बारे में बात करके क्या फ़ायदा। एक-दो बातों के बाद आदमी को नंगा होना पड़ता है। अपने नंगेपन को न देखकर दूसरे के नंगेपन पर हंसने वाले लोग यह बात क्यों समझेंगे कि मैं खतरा उठा कर नंगेपन की बात क्यों लिखता हूँ?
अरे वाह! यह तो मंटो टाइप बात हो गई!
बातें तो मुझसे कैसी भी करवा लो। ओशो टाइप बातें तो मैं कभी भी कर सकता हूं। मुझे याद है कॉलेज के दिनों में मेरा एक बहुत पक्का दोस्त हुआ करता था। ओशो का भक्त था। हर दो-चार दिनों बाद कहीं से ओशो की किताब जुगाड़ लेता और फिर बुरी तरह इरिटेट करता। एक दिन रात को 12:00 बजे के आसपास मैं उसके माचे पर एक कथावाचक की तरह बैठ गया। और सुबह 4:30 बजे तक लगातार ओशो पर बोला। उसने मेरे आगे हाथ जोड़ लिए। वह दिन है और आज का दिन कि वह मुझसे ओशो पर बात नहीं करता। ओशो पर मैंने डायरी के एक पन्ने में मोटा मोटी सारी बातें लिख दी हैं। वह पन्ना अभी छुपा कर रखा है।
मेरे कुछ भला चाहने वाले सीनियर्स ने मुझे यह महान राय दी है तुम्हारी डायरी में तुम्हें जो ख़तरनाक पन्ना लगे उसे बचा कर रखो। अगर कभी तुम्हारी डायरी छपी तो ऐसे पन्ने बहुत काम आएंगे। चलिए ठीक है। आप कहते हैं तो सही ही कहते होंगे।
एक सपना बहुत बार आता है। जैसे फतेहपुर का मकान है। मकान क्या एक कमरा ही है। बाहर बरसात हो रही है। और धर्मेंदर और मिथुन वाली ‘ग़ुलामी’ फिल्म में जिस मंदिर में शूटिंग हुई थी वहां लगातार घंटी बज रही है। उसके सामने वाले घर में मैं मम्मी पापा कुछ दो-तीन बरस रहे थे। कमरे के आँगन से मोटे-मोटे कीड़े निकल रहे हैं और मम्मी हल्दी बुरक रही है। मैं मम्मी की गोद में सर रख कर सोया हूं। बाहर छोटी-सी लड़की मुझे मिट्ठू कह कर पुकार रही है। यह नाम मेरे सपनों में बहुत बार आता है। इस नाम के शीर्षक से मैंने एक बहुत छोटी कविता भी लिखी है। मैं फ़र्क़ नहीं कर सकता कि उसे दोस्त कहूं या बहन या कुछ और। मैं खेलने जाना चाहता हूं मगर कमरे के दरवाज़े के बाहर बहुत सारा पानी भरा हुआ है। मम्मी कह रही है कि जब पानी बैठ जाए तो खेलने चला जाना। यह दृश्य लगभग एक डेढ़ घंटे चलता है। यह सपना मैं कितने ही बरसों से देख रहा हूं।
कोई तो संयोग या जुड़ाव ज़रूर है।
हां, मंदिर के पास एक खेळ है। जिसमें एक ऊंट पानी पी रहा है। थोड़ा-सा आगे चलें तो रेलवे स्टेशन शुरू हो जाता है। उस रेलवे स्टेशन की एक बेंच पर पापा आराम कर रहे हैं। सब कुछ आपस में दूध और पानी की तरह मिला हुआ है लेकिन मैं इन्हें अलग भी कर सकता हूँ।
सपने के भीतर सपना सपने के भीतर फिर सपना फिर फिर सपना। ‘इनसेप्शन’ मूवी याद आती है।
अब जब आगे लिखने का मन नहीं है तो यह कलाकारी नहीं लगाऊंगा इस पन्ने को साहित्यिक टच देकर खत्म करूं। बस यही लगता है कि एक नहीं बहुत सारे प्रतिसंसार हैं। बहुत पुकारते हैं । मगर बेबस हैं। वे लाख पुकारें अब मैं इस संसार से बाहर नहीं निकल सकता।
यह संसार जिसका भी सपना है—वह बहुत शातिर आदमी है।
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मनमीत सोनी की कविताएँ यहाँ पढ़िए : मनमीत सोनी का रचना-संसार