‘कोई भी कवि जन्म से ही कवि होता है’

रुस्तम से गुरप्रीत की बातचीत

“मुझे नहीं पता कि मैं कविता क्यों पढ़ता हूँ और क्यों लिखता हूँ।’’ आपकी यह बात बड़ी गहरी है। सृजन का ‘क्यों’ इतना सीधा नहीं होता। पर यह ‘क्यों’ होता ज़रूर होगा। कभी इस ‘क्यों’ को नहीं ढूँढ़ा?

मैं यह मानता हूँ कि कोई भी कवि जन्म से ही कवि होता है। यानी कविता लिखने की इच्छा जन्मजात होती है, जब हम पैदा होते हैं तो यह उसी वक़्त हममें होती है। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, हमारे भीतर की यह इच्छा हमें उँगली करती है, हमें कहने लगती है कि कविता लिखो। इस इच्छा के लिए ज़्यादा उचित शब्द है—‘प्रवृत्ति’, जिसे अँग्रेज़ी में ‘drive’ कहते हैं। दूसरे शब्दों में, हम इस इच्छा, इस प्रवृत्ति के वश में होते हैं और हमें वह करना पड़ता है जो वह चाहती है। हम यह भी कह सकते हैं कि कवि होना हमारे स्वभाव में होता है, हमारे स्वभाव का हिस्सा होता है—वह स्वभाव जो हमें मिला होता है, पर बाद में जो अपने मुनासिब अन्य तत्त्वों को अपने साथ जोड़कर अपने-आप को पुख़्ता और परिष्कृत करता जाता है। इसी स्वभाव के चलते हम न केवल कविता लिखना चाहते हैं, बल्कि लगातार कविता पढ़ना भी चाहते हैं।

यहाँ हम कवि की तुलना आंशिक रूप से जीव से कर सकते हैं। किसी भी जीव का स्वभाव जन्म-प्रदत्त होता है, जीव होने के नाते वह उसे मिला होता है। और उसके स्वभाव का मूल तत्त्व यह होता है कि जीव ज़िंदा रहना चाहता है और अपने-आपको ज़िंदा रखना चाहता है। इसके लिए वह और किसी भी चीज़ से ज़्यादा खाने-पीने, रहने व अन्य जीवों से और प्राकृतिक आपदाओं से अपनी सुरक्षा करने का बंदोबस्त करता रहता है, उसमें जुटा रहता है। इसी प्रकार मनुष्य-रूपी वह जीव जो अपने मूल स्वभाव से कवि भी है, कविता लिखता रहता है और अपने कवि को बचाए रखने के लिए अन्य चीज़ें करने के अलावा कविता पढ़ता भी रहता है।

आम तौर पर हम कविता लिखने की इस प्रबल इच्छा या प्रवृत्ति को प्रतिभा कह देते हैं। पर वास्तव में प्रतिभा सही शब्द नहीं है। वह बस एक काम-चलाऊ शब्द है जिसका उपयोग हम चाहें तो करते रह सकते हैं, लेकिन वह शब्द हमें पूरी तरह नहीं बता सकता कि कोई व्यक्ति कवि क्यों है और कविता क्यों लिखते रहना चाहता है।

आप कहते हैं कि कविता न पद्य में होती है और न गद्य में। ये तो लेखन के रूप हैं। तो फिर कविता होती कहाँ है? उसे कैसे पहचाना जाए?

मैंने लिखा था कि अक्सर पद्य को कविता मान लिया जाता है, और जो कविता पद्य के रूप में नहीं होती बल्कि गद्य के रूप में होती है, उसे ‘गद्य कविता’ (अँग्रेज़ी में prose poem) कह दिया जाता है। और मैंने जोड़ा था कि अस्ल में पद्य और गद्य लेखन के रूप (form) हैं और कविता इन दोनों रूपों में लिखी जा सकती है। परंतु फिर भी यह ज़रूरी नहीं कि पद्य के हरेक टुकड़े में कविता हो। इसी तरह जो कविता गद्य के रूप में लिखी जाती है, उसे ‘गद्य कविता’ कहना ठीक नहीं—वह कविता है बस।

अब प्रश्न उठता है कि यदि पद्य और गद्य लेखन के रूप हैं और कविता इन दोनों रूपों में लिखी जा सकती है, तो फिर कविता होती कहाँ है? इसका जवाब यह है कि कविता शब्दों, वाक्यों और अर्धवाक्यों में होती है। वह उन भावों और अर्थों में होती है जो चुने गए शब्दों में अंतर्निहित होते हैं। और, उससे भी आगे, जिस तरह से इन शब्दों को विशेष ढंग से जोड़कर विशेष प्रकार के वाक्य या अर्धवाक्य बनाए जाते हैं और जो भाव और अर्थ इन विशेष प्रकार के वाक्यों, अर्धवाक्यों के इस जुड़ाव से बनते हैं, पैदा होते हैं, वह उनमें होती है।

ज़रा और भी आगे जाएँ तो हम कह सकते हैं कि कविता उन विरामों और अंतरालों में भी होती है जिनको हम कविता गढ़ते हुए पद्य या गद्य में ले आते हैं, शामिल कर लेते हैं। और वह उस लय में भी होती है जो शब्दों, वाक्यों, विरामों और अंतरालों के एक विशेष संयोजन में, उनके एक विशेष जुड़ाव से पैदा होती है।

यहाँ पूछा जा सकता है कि भाव और अर्थ तो उस लेखन में भी होते हैं जिसे हम कविता नहीं कहते या मानते। इसलिए वह क्या है जो भावों और अर्थों के इस विशेष संयोजन में कविता भर देता है?

यह प्रश्न इस प्रश्न से जुड़ा हुआ है कि कविता क्या होती है, जो प्रश्न मुझसे नहीं पूछा गया। फ़िलहाल इतना कह देना काफ़ी है कि कविता शब्दों, वाक्यों, विरामों, अंतरालों और उनसे पैदा होने वाले भावों, अर्थों और लय के एक विशेष प्रकार के समुच्चय में होती है। लेखन का यह विशेष प्रकार का समुच्चय उस लेखन से भिन्न होता है जिसे हम कविता नहीं मानते। दूसरा यह कि यह समुच्चय पद्य के रूप में भी हो सकता है और गद्य के रूप में भी, और इन दोनों रूपों का मिश्रण भी हो सकता है।

आपने एक जगह यह भी लिखा है कि कविता लिखने के लिए तकनीक अधिक महत्त्वपूर्ण होती है; विषयवस्तु, विचार तथा भावनाएँ कम। इसे ज़रा विस्तार से बताइए।

ऊपर मैंने कहा है कि कविता शब्दों, वाक्यों, विरामों, अंतरालों और उनसे पैदा होने वाले भावों, अर्थों और लय इत्यादि के एक समुच्चय में होती है… इसका मतलब यह है कि भाव, विचार इत्यादि कविता के साथ अभिन्न रूप से जुड़े होते हैं; उनके बिना कविता का होना संभव नहीं। लेकिन भाव, विचार इत्यादि तो उस लेखन का भी अभिन्न अंग होते हैं जिसमें कविता नहीं होती। वह लेखन भी उनके बिना संभव नहीं। दूसरे शब्दों में, कुछ विशेष ऐसा होता है जो उसे कविता बनाता है, जो उसे उस लेखन से अलग कर देता है जिसमें कविता नहीं होती।

हम इस बात पर विचार नहीं करेंगे कि यह ‘विशेष कुछ’ क्या होता है। यहाँ हमारा सरोकार सिर्फ़ इस बात से है कि यह ‘विशेष कुछ’, यह ‘अतिरिक्त कुछ’ जिसके कारण कविता कविता बनती है, वह अपने-आप नहीं बन जाता, उसे गढ़ा जाता है। और यदि उसे गढ़ा जाता है तो उसके लिए तकनीक की आवश्यकता होती है। और यह तकनीक कवि को पता होनी चाहिए, बल्कि एक अछा कवि होने के लिए उसे तकनीक में सिद्धहस्त होना चाहिए, उसका ‘मास्टर’ होना चाहिए।

कुछ सीमा तक यह तकनीक कवि को जन्मजात मिलती है। पर ज़्यादातर वह उसे सीखनी पड़ती है। संभव है कि कोई व्यक्ति प्रवृत्ति से, स्वभाव से कवि हो, पर इस तकनीक को जाने-सीखे बिना वह कविता नहीं लिख सकता; निश्चित तौर पर इसे जाने-सीखे बिना वह अच्छी कविता तो नहीं ही लिख सकता।

यह तकनीक एक तो बार-बार कविता लिखने का अभ्यास करने से आती है। दूसरा, वह उच्च-स्तरीय कवियों को पढ़ने से भी आती है, चाहे वे कवि हमारी अपनी भाषा के हों या किन्हीं दूसरी भाषाओं के। यह तकनीक ही है जो हमें बताती है कि किस वाक्य को अंत तक पूरा लिखना है, किस को तोड़ना है, विराम कहाँ देना है, अंतराल कहाँ रखना है, डैश [dash], हाइफ़न [hyphen] और कोष्ठक [bracket] इत्यादि का उपयोग कहाँ करना है। इसी तरह इस तकनीक की मदद से ही हम कविता में लय पैदा करते हैं, यह देख पाते हैं कि कविता के किसी हिस्से में लय बिगड़ तो नहीं रही, और यदि ऐसा हो रहा है तो इसकी मदद से हम उसे ठीक करते हैं, सुधारते हैं। इस तकनीक के कारण हमें समझ आता है कि कोई शब्द किसी वाक्य को शुरू में या बाद में भारी तो नहीं कर रहा, उसे ज़रूरत से ज़्यादा वज़नी तो नहीं कर रहा। यदि ऐसा हो रहा हो, तो हम उस शब्द को हटाते हैं, उसकी जगह कोई दूसरा शब्द रखते हैं, चाहे ऐसा करने से उस वाक्य का अर्थ या भाव ही क्यों न बदल जाए। यहाँ हम देख सकते हैं कि कैसे हम एक तरफ़ अर्थ तथा भाव और दूसरी तरफ़ लय में संतुलन बनाकर रखने की कोशिश करते हैं। यह तकनीक की समझ के बिना संभव नहीं। यहाँ हम यह भी देख सकते हैं कि कैसे कविता में अर्थ या भाव सर्वोपरि नहीं होता। कई बार हम लय को बनाए रखने के लिए किसी अर्थ या भाव को त्याग देते हैं, उसे बदल देते हैं। जो महत्त्वपूर्ण है, वह यह है कि अंतत: एक सुगठित कविता बननी चाहिए।

कोई कह सकता है कि ऐसा कैसे संभव है? कि कविता में हम तो वही विचार, वही अर्थ, वही भाव लिखते हैं जो हम लिखना चाहते हैं, जो हमारे मन में हैं, जो हमें उस वक़्त जकड़े हुए हैं? लेकिन यह बात सही नहीं है। कोई नादान कवि या पाठक ही ऐसी बात कर सकता है। जब हम कविता लिखना शुरू करते हैं, तो किन्हीं विचारों व भावों की गिरफ़्त में हम होते हैं और हम उन्हें उतारने की कोशिश करते हैं। लेकिन अक्सर होता यह है कि जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं, हम देखते हैं कि जो कुछ हम लिख रहे हैं, उसमें कविता को बनाए रखने के लिए हमें जो मूल विचार और भाव हमारे मन में थे उन्हें कुछ सीमा तक त्यागना पड़ेगा, बदलना पड़ेगा। जो शब्द हम रखना चाहते थे, उनकी बजाय किन्हीं अन्य शब्दों को रखना पड़ेगा। इस तरह हम देखते हैं कि अंतत: जो कविता बनती है, वह हूबहू वह कविता नहीं होती जो हम लिखना चाहते थे; वह कुछ सीमा तक या कई बार काफ़ी सीमा तक एक भिन्न, एक नई कविता बन गई होती है, जिसके बारे में शुरू में हमें पता नहीं था। यह सब कविता लिखने की तकनीक को जाने, समझे, मास्टर किए बिना संभव नहीं। तकनीक के ज्ञान के अभाव में हम एक ख़राब कविता लिखकर बैठ जाएँगे और सोचेंगे कि हमने एक अच्छी कविता लिख ली है।

यह तकनीक पर मास्टरी की वजह से ही होता है कि कोई सिद्धहस्त कवि किन्हीं भावों को निजी तौर पर बहुत गहरे में महसूस किए बिना भी कविता में ले आता है और एक उच्च-स्तरीय कविता लिख देता है। परंतु ऐसा करना आसान नहीं होता और यह सब कवियों के बस की बात नहीं होती। कोई मास्टर कवि ही ऐसा कर सकता है।

अक्सर यह शिकायत की जाती है कि कविता के अर्थ समझ नहीं आए। बहुत से पाठक तो सीधा कवि से ही पूछ लेते हैं कि फलानी कविता के अर्थ क्या हैं। क्या कवि की यह ज़िम्मेदारी है कि वह अर्थ समझाए? कविता में अर्थ होते क्या हैं?

कविताएँ भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं। कुछ कविताओं में अर्थ ज़्यादा स्पष्ट होते हैं, कुछ में कम। कवि भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। कुछ कवि अपनी कविता में अर्थों को स्पष्ट करना चाहते हैं, जबकि कुछ अन्य कवि अपनी कविता में वक्त्तोकत्ति (ambiguity) बनाकर रखना चाहते हैं ताकि उनका पाठक एक से अधिक अर्थ देख सके, ग्रहण कर सके।
कविता में अर्थ अंतत: वही होते हैं जो पाठक को समझ में आते हैं या उसके पल्ले पड़ते हैं, वो नहीं जो कवि के मन में थे या हैं। इसलिए कवि से यह पूछना बेमानी है कि उसकी कविता के अर्थ क्या हैं। वास्तव में कई बार कवि को ख़ुद भी पूरी तरह पता नहीं होता कि उसकी कविता के अर्थ क्या हैं।

कवि से उसकी कविता के अर्थ इसलिए भी नहीं पूछने चाहिए क्योंकि लिखे जाने के बाद कविता उससे स्वतंत्र हो जाती है, आज़ाद हो जाती है और वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना लेती है। वह कवि और पाठक से अलग एक तीसरी चीज़ बन जाती है जो अब कवि से जुड़ी हुई नहीं। इसलिए पाठक को अपना रिश्ता सीधा कविता से बनाना चाहिए तथा अपने और कविता के बीच में से कवि को निकाल देना चाहिए।

लेकिन तब भी यदि पाठक को कविता के अर्थ पल्ले नहीं पड़ रहे तो इसके तीन अर्थ हैं। पहला यह कि कवि ने कविता में अर्थ कहीं गहरे छुपा दिए हैं और बार-बार कविता को पढ़कर उन अर्थों को सतह पर लाना पड़ेगा। दूसरा यह कि पाठक कविता पढ़ने के लिए अभी तैयार नहीं है और उसे अच्छे कवियों को बार-बार पढ़कर अपने-आपको एक पाठक के तौर पर प्रशिक्षित करना पड़ेगा। पाठकों को यह समझना चाहिए कि जिस तरह एक अच्छा कवि बनने के लिए अभ्यास की ज़रूरत होती है, उसी तरह एक सक्षम पाठक बनने के लिए भी अभ्यास की ज़रूरत होती है।

तीसरी बात यह है। कई अच्छी कविताओं के अर्थ पूरी तरह इसलिए भी पल्ले नहीं पड़ते क्योंकि वे कविताएँ अर्थ-प्रधान नहीं, स्वर-प्रधान या लय-प्रधान होती हैं। और जब हम ऐसी कविताओं को पढ़ते हैं तो चाहे हमें उनके अर्थ पूरी तरह समझ में न भी आ रहे हों, उनकी लय इतनी पुख़्ता और ताक़तवर होती है कि वह हमें जकड़ लेती है और हम उसे पढ़ते जाते हैं, रुक नहीं पाते। इसीलिए यहाँ यह भी कह देना चाहिए कि कविता में अर्थ ही सब कुछ नहीं होते, और कि कविता पढ़ते हुए केवल अर्थों की तलाश में ही नहीं रहना चाहिए। उसे उसकी समग्रता में ग्रहण करना चाहिए।

आपका पीएच.डी. का काम मार्क्सवाद पर है। ‘प्रतिबद्धता’ या ‘प्रतिबद्ध कविता’ के बारे में आपके विचार क्या हैं?

मैं मानता हूँ कि हरेक कवि को वह और वैसी कविता लिखनी चाहिए जो स्वाभाविक तौर पर वह लिख सकता है। इसलिए यदि कोई कवि सामाजिक और राजनीतिक मसलों को लेकर वाक़ई चिंतित रहता है और उसे लगता है कि कविता समाज या राजनीति को बदलने में भूमिका अदा कर सकती है, या उसे लगता है कि आम जन की रोज़मर्रा की चिंताओं को कविता में जगह मिलनी चाहिए या कविता के माध्यम से उन्हें मुखर रूप दिया जा सकता है तो मुझे लगता है कि उस कवि को ऐसी कविताएँ लिखनी चाहिए, बशर्ते कि वे अच्छी कविता की शर्तों को पूरा करती हों और मात्र राजनीतिक क़िस्म का रोना-धोना न हों।

विश्व की विभिन्न भाषाओं के कवियों ने राजनीतिक और सामाजिक सरोकारों वाली सक्षम कविताएँ लिखी हैं, जो बहुत पढ़ी भी गई हैं। (विश्व स्तर पर सेज़ार वैयाखो और पाब्लो नेरूदा इसके उम्दा उदाहरण हैं। मैं बेर्टोल्ट ब्रेष्ट को इनके स्तर पर नहीं रखता, बल्कि इनसे बहुत नीचे रखता हूँ। ब्रेष्ट की अधिकतर कविताएँ राजनीतिक वक्तव्यों जैसी लगती हैं, जो कि एक बड़ी ख़ामी है। हिंदी में निराला के बाद नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध और ‘मगध’ वाले श्रीकांत वर्मा इसके बढ़िया उदाहरण हैं।) लेकिन मैंने देखा है कि अक्सर ऐसी कविताएँ एक स्तर से ऊपर नहीं उठ पातीं। इसके पीछे कारण यह है कि जब कोई कवि किसी विचारधारा के प्रभाव में आकर या किसी प्रचलित विचारधारा के दबाव में आकर कविताएँ लिखता है तो अक्सर उसकी कविताएँ कमज़ोर रह जाती हैं। ऐसी कविताएँ ‘प्रतिबद्ध’ कविताएँ होने से अधिक ‘विचारधारात्मक’ कविताएँ होती हैं। हिंदी में नागार्जुन और त्रिलोचन की पीढ़ी के बाद ‘प्रतिबद्ध’ कविताओं की भरमार रही है, पर वे उनकी कविताओं के स्तर को छू नहीं पाईं। मुझे लगता है की उनकी पीढ़ी के बाद हिंदी में ‘प्रतिबद्ध’ कविता के स्तर में गिरावट आई है। अब अगर ‘प्रतिबद्ध’ कविताएँ स्तरीय कविताएँ न हों, तो मुझे लगता है कि वे सामाजिक या राजनीतिक परिदृश्य को बदलने में कोई ख़ास भूमिका नहीं निभा पाएँगी, क्योंकि केवल स्तरीय कविता का असर ही गहरा होता है और दूर तक जाता है।

तथाकथित प्रतिबद्ध कविताओं की एक समस्या यह भी है कि अक्सर वे कविताएँ होती ही नहीं। वे ऐसे विचारों को प्रकट करती हैं जो लोगों को पहले से पता होते हैं और जो समाजविज्ञान या विचारधारा के माध्यम से पहले से ही प्रचलित हो चुके होते हैं। कविता का काम विचारधारात्मक या समाजविज्ञानी विचारों को लिपिबद्ध करना नहीं है। यह काम समाजविज्ञान बेहतर ढंग से कर सकता है और यह उसी के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। कविता का काम समाजविज्ञान करना या उसके काम को दुहराना नहीं है। कविता की विधा और उसका स्वभाव भी समाजविज्ञान से भिन्न है। और तथाकथित ‘प्रतिबद्ध’ कवियों को यह बात समझने की कोशिश करनी चाहिए।

आप कविताएँ लिखते हैं, पेंटिंग करते हैं, फ़ोटो खींचते हैं। यह तीनों काम एक ही रुस्तम करता है, या कि ये तीनों अलग-अलग रुस्तम हैं?

इन तीन कामों के अलावा मैं दार्शनिक और अकादमिक क़िस्म के लेख भी लिखता हूँ, जो अँग्रेज़ी में लिखे जाते हैं। मुझे लगता है कि ये सब एक ही शख़्सियत के अलग-अलग पहलू हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह ज़रूरी नहीं कि वे आपस में जुड़े हुए हों या उनमें कोई सामंजस्य हो। मैंने देखा है कि जो चीज़ें मैं अपने लेखों में नहीं कह पाता उनमें से कई कविताओं में आ जाती हैं। और कई बार लेखों और कविताओं में कही गई चीज़ें एक-दूसरे के प्रति विरोधाभासी होती हैं।

इसके दो मतलब हैं। एक यह कि हरेक विधा की अपनी सीमाएँ होती हैं। आप सब कुछ एक ही विधा के माध्यम से नहीं कह सकते। दूसरा यह कि आपके भीतर विभिन्न दृष्टियाँ हैं जो चीज़ों को अपने-अपने ढंग से देखती हैं। और ज़रूरी नहीं कि उनमें आपस में कोई तालमेल हो। जैसा कि मैंने ऊपर भी इंगित किया है जो कुछ ये दृष्टियाँ देखती हैं, न केवल वह उससे भिन्न होता है जो कोई दूसरी दृष्टि देखती है, बल्कि यह उसके विरोध में भी खड़ा हो सकता है।

आपकी कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है, और आपने भी कई कवियों का अनुवाद किया है। अनुवाद के लिए कौन-सी चीज़ों को ध्यान में रखना ज़रूरी है? क्या अनूदित कविता वैसी ही बन जाती है जैसी कि मूल कविता होती है?

हरेक भाषा की अपनी एक ख़ास ताक़त होती है। और उसकी अपनी सीमाएँ भी होती हैं। ये गुण या उनकी कमी न केवल उस भाषा में किए गए लेखन को प्रभावित करते हैं, बल्कि दूसरी भाषाओं से उसमें किए गए अनुवाद को भी प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि, उदाहरण के लिए, हिंदी कविताओं के अँग्रेज़ी में किए गए अनुवाद अक्सर अच्छे नहीं बन पाते।

कविता के अनुवाद को लेकर मूलत: दो धारणाएँ हैं। एक यह कि कविता का अनुवाद करते हुए हमें मूल कविता के ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब रहना चाहिए। दूसरी यह कि कविता का अनुवाद करते हुए हम कुछ सीमा तक प्रयोगात्मक हो सकते हैं, ज़्यादा स्वतंत्रता से अनुवाद कर सकते हैं, ऐसा करते हुए चाहे कविता कुछ सीमा तक बदल ही क्यों न जाए।

मैं इन दोनों धारणाओं को मानता हूँ। मेरा ख़याल है कि मुख्य बात यह है कि अनुवाद की भाषा में कविता बन रही है या नहीं। यदि मूल कविता के अर्थों, भावों और काग़ज़ या स्क्रीन पर उसकी संरचना को बनाए रखने की कोशिश में अनुवाद की भाषा में उसकी काव्यात्मकता टूट रही है, भंग हो रही है, तो हमें मूल कविता के अर्थों, भावों और संरचना से चिपटे नहीं रहना चाहिए।

यहाँ यह कहने की ज़रूरत है कि न केवल कविता लिखते हुए, बल्कि किसी कविता का अनुवाद करते हुए भी, जो चीज़ सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण होती है, वह है—लय (rhythm)। अनूदित कविता में यदि किसी एक या अधिक जगहों पर लय नहीं बन पा रही या टूट रही है, तो उन स्थानों पर हमें अनुवाद को बदलना पड़ेगा। और ऐसा करते हुए संभव है कि हमें मूल कविता में अर्थों, भावों या उसकी संरचना से थोड़ा या अधिक दूर जाना पड़े। कहने की ज़रूरत नहीं कि कवि की तरह कविता के अनुवादक के कान भी मँझे हुए होने चाहिए, क्योंकि लय ठीक है या नहीं यह कानों से ही पता चलता है। मेरा मानना है कि लय को जाँच पाने, तौल पाने की क्षमता (faculty) जन्मजात होती है। इसलिए जिस प्रकार हरेक व्यक्ति अच्छा कवि नहीं हो सकता, उसी प्रकार हरेक व्यक्ति अच्छा अनुवादक भी नहीं हो सकता।

इसके अलावा, अनुवाद अच्छा बन पाएगा या नहीं, यह कविता पर भी निर्भर करता है। कुछ कविताओं का अनुवाद बड़ी आसानी से हो जाता है। कुछ कविताओं का अनुवाद करने में बहुत मेहनत लगती है। और कुछ अन्य कविताएँ ऐसी भी होती हैं कि उनका अनुवाद करना संभव ही नहीं होता। अनुवाद करते हुए हम अक्सर इन बाद वाली कविताओं को छोड़ देते हैं, हालाँकि कई बार वे उस कवि की सबसे महत्त्वपूर्ण कविताएँ होती हैं। जो कविता अपने क्षेत्र के इतिहास, संस्कृति और भाषा में बहुत गहरे धँसी होती है, उसका अनुवाद करना उतना ही कठिन होता है। लेकिन इतना ही नहीं, अक्सर गहरी दार्शनिक दृष्टि वाली कविताओं का अनुवाद करना भी कठिन होता है। दूसरी भाषा में अनुवाद करते ही वे अपनी गहराई खो देती हैं और सपाट हो जाती हैं, साधारण लगने लगती हैं। ऐसी कविताओं को अनुवाद की भाषा में लगभग दुबारा लिखना पड़ता है।

अंत में, कच्चे तथा लापरवाह अनुवादक मूल कविता में लगे हुए विरामों (पूर्ण विराम [।], अर्धविराम [;], डैश [—], हाइफ़न [-]) तथा अंतरालों (spaces) को महत्त्वपूर्ण नहीं मानते और अनुवाद करते हुए उन्हें बदल देते हैं या छोड़ देते हैं। जबकि जहाँ तक संभव हो सके इनको अनुवाद में बनाकर रखना चाहिए, क्योंकि कवि ने सोच-समझकर ही इनका उपयोग किया होता है और ये सब कविता में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

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रुस्तम (जन्म : 1955) सुपरिचित हिंदी कवि, दार्शनिक और अनुवादक हैं। अब तक उनके छह कविता-संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें एक संग्रह किशोरों के लिए कविताओं का है। अँग्रेज़ी में भी उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं। गुरप्रीत (जन्म : 1968) इस समय के पंजाबी के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। अब तक उनके चार कविता-संग्रह प्रकाशित हुए हैं।