कविता से वही माँग करें, जो वह दे सकती है
मेरी आधुनिकता की एक चिंता यह है कि उसमें लालमोहर कहाँ है? मेरी बस्ती के आख़िरी छोर पर रहने वाला लालमोहर वह जीती-जागती सचाई है, जिसकी नीरंध्र निरक्षरता और अज्ञान के आगे मुझे अपनी अर्जित आधुनिकता कई बार विडम्बनापूर्ण लगने लगती है।
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मैं चाहूँ या न चाहूँ, अपने समाज में अपने सारे मानववाद के बावजूद, मैं एक जाति-विशेष का सदस्य माना जाता हूँ। यह मेरी सामाजिक संरचना की एक ऐसी सीमा है, जिससे मेरे रचनाकार की संवेदना बार-बार टकराती है और क्षत-विक्षत होती है।
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बहैसियत एक रचनाकार के मेरे लिए आधुनिकता सबसे पहले मेरा अनुभव है। यह अनुभव बहुत-सी मानसिक प्रतिक्रियाओं, दृश्यों, घटनाओं, उम्मीदों और मोहभंगों का एक मिला-जुला घोल है, जो कि असल में मेरी दुनिया है।
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मेरा टेलीविज़न लगभग प्रलाप जैसी भाषा में जो लगातार बोलता रहता है, एक ख़ास तरह का प्रदूषण मेरी भाषा की दुनिया में—उसके ज़रिए भी फैलता है।
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मेरी आधुनिकता में मेरे गाँव और शहर के बीच का संबंध किस तरह घटित होता है, इस प्रश्न की विकलता मेरे भाव-बोध का एक अनिवार्य हिस्सा है।
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साहित्यिक आदान-प्रदान की दुनिया में कोई भी प्रभाव आकस्मिक नहीं होता। यह एक ऐसी दुनिया है जहाँ कोई भी प्रभाव तभी सक्रिय रूप से काम करता है, जब उसके लिए ग्राहक समाज की युगीन परिस्थितियाँ पूर्णतः पर्युत्सुक और परिपक्व हों।
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कई बार एक आलोचक जो कहता है, उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण वह होता है जो वह नहीं कहता।
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आज के कवि का ‘मैं’ एकवचन प्रथम पुरुष का ‘मैं’ न होकर ‘हम’ की तरह अमूर्त और व्यापक हो गया है, और ऐसा किसी बड़े आदर्श के प्रति आग्रह के कारण नहीं, बल्कि अमानवीकरण की एक बृहत्तर प्रक्रिया के अंतर्गत अपने आप और बहुत कुछ कवि के अंजान में ही हो गया है।
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निस्संदेह एक श्रेष्ठ मौलिक कवि की शक्ति की पहचान आगे चलकर इसी बात से की जाएगी कि वह अपने समय की रचना के सामूहिक व्यक्तित्व से किस हद तक अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखने में समर्थ हो सका है।
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क़ब्रिस्तान वह जगह है, जहाँ सारी पंचायतें ख़त्म हो जाती हैं।
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मुझे कई बार लगता है कि पेड़ शायद आदमी का पहला घर है।
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समाज नामक इस विराट इमारत में वह कौन-सा कमरा है, जो माँ का कमरा है?
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मैं ठीक-ठाक कारण तो नहीं बता सकता, पर इस ‘शास्त्र’ शब्द से मुझे डर लगता है—शायद इसलिए कि उसमें एक शासक की-सी ध्वनि है।
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कविता अपने अनावृत रूप में केवल मात्र एक विचार, एक भावना, एक अनुभूति, एक दृश्य, इन सबका कलात्मक संगठन अथवा इन सबके ‘अभाव’ की एक तीखी पकड़ होती है।
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बिना चित्रों, प्रतीकों, रूपकों और बिंब की सहायता के मानव अभिव्यक्ति का अस्तित्व प्रायः असंभव है।
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कविता यथार्थ के बिना जीवित नहीं रह सकती और दूसरी ओर यथार्थवाद के अलावा वह एक ख़ास तरह की विचार-परंपरा से भी जुड़ी होती है।
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समाज और यथार्थ, और वह सब कुछ जो जीवन और जगत में है, कविता में आना चाहिए, लेकिन कविता की शर्तों को भूले बिना।
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रचना का कहीं न कहीं एक ख़ास तरह की रचनात्मक मुक्ति से गहरा संबंध होता है और उसी मुक्ति में मेरा विश्वास है।
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कवि को लिखने के लिए कोरी स्लेट कभी नहीं मिलती है। जो स्लेट उसे मिलती है, उस पर पहले से बहुत कुछ लिखा होता है। वह सिर्फ़ बीच की ख़ाली जगह को भरता है। इस भरने की प्रक्रिया में ही रचना की संभावना छिपी हुई है।
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कविता की बुनियाद भाषा में है।
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विचार, अनुभूति और संवेदना—सबका संबंध शब्द से होता है और कविता शब्द है। शब्द—जो कवि के लिए सबसे रहस्यमय वस्तु है।
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भाषा स्मृतियों का पुंज है और विलक्षण यह है कि स्मृतियाँ पुरानी और एकदम ताज़ा भाषा में घुली-मिली होती हैं।
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किसी रचना की प्रक्रिया की पड़ताल वस्तुत: वह जिस तरह से भाषा में ढली है, उसकी पड़ताल है।
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भाषा के भीतर कविता की भाषा की अतिगामी प्रकृति कविता की भाषा को ज्ञान की भाषा से अलग करती है।
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कविता एक ऐसी चीज़ है जिसका अपनी चली आई परंपरा के सूत्रों से इतना गहरा रिश्ता है कि उसके बिना कविता संभव ही नहीं है, क्योंकि हम शब्द से कविता लिखते हैं और शब्द हमारी बनाई हुई चीज़ नहीं है।
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जो शब्द जितने लंबे समय से लोक-व्यवहार में रहता है, उस पर उतनी ही ज़्यादा मानवीय जीवन की ऐतिहासिक छाप पड़ती चली जाती है।
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हमारी पुरानी स्मृति में पड़े हुए शब्द हमारी कई स्मृतियों को एक साथ जगाते हैं।
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कविता पढ़ना सौ मीटर की दौड़ नहीं। कविता अच्छी तभी होगी जब वह सरपट न दौड़ाए। बाधा दे, रोके।
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मुझे ग़लत भाषा बहुत आकृष्ट करती है। अजब बात है, क्योंकि जीवंतता उसी में होती है और लगातार चुनौती के रूप में वहाँ रहती है। और मैं इधर मानने लगा हूँ कि जो भाषा ग़लत लिखने और बोलने की जितनी छूट देती है अपने समाज में, वह उतनी ही ज़िंदा रहती है।
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कविता यदि सम्मूर्तन है तो वह बिंब के बिना संभव नहीं है।
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कविता में बिंब हों, यह तो ठीक है, लेकिन कविता बिंब-बहुल न हो, बिंब से बोझिल न हो। उससे बचना चाहिए।
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बिंब-बहुल कविता अपने आशय को क्षतिग्रस्त करती है। …बिंब-मोह नहीं होना चाहिए। बिंब-नियोजन की प्रक्रिया में कवि को निर्मम होना चाहिए।
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कविता में बिंब की घुलावट महत्त्वपूर्ण है, बिंब की प्रमुखता नहीं।
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किसी भी भारतीय भाषा में छंद को इस तरह नहीं छोड़ा गया है जिस तरह हिंदी कविता में छोड़ा गया है। मुझे लगता है, नई शताब्दी में प्रवेश करते हुए कविता को जिन मूलभूत समस्याओं से दो-चार होना पड़ेगा, उनमें यह छंद की समस्या भी एक है।
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गीत की जन्मभूमि लोकगीत है, आदर्श भी लोकगीत है। गीत को हमेशा अपनी ताक़त अर्जित करने के लिए वहीं जाना पड़ेगा।
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यदि आपका कोई नैतिक संदेश है तो कविता में उसे अंतर्निहित होना चाहिए, मुखर नहीं। मैं अनुभूति से विचार की ओर अग्रसर होता हूँ, जिनके बीच एक द्वंद्वात्मक संबंध होता है। पर मैं कविता को कभी अवधारणाबद्ध नहीं करता।
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कविता के पास अपना विचार होना चाहिए और जीवन-जगत के बारे में उसका विचार जितना ही गहरा और पुख़्ता होगा, उसकी रचना उतनी ही मज़बूत होगी, इसमें मुझे कोई संशय नहीं।
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प्रतिबद्धता एक रचनाकार की अगर होती है तो वह उस मनुष्य के प्रति ही होती है जिसको सामने रखकर वह रचना करता है।
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कविता विचारहीन नहीं हो सकती, परंतु विचारात्मक प्रतिबद्धता को मैं कविता के लिए अनिवार्य नहीं मानता।
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रचनाकार का वैचारिक धरातल ज़्यादा खुला हुआ होना चाहिए। खुलापन एक तरह की मुक्ति है और रचना का इस मुक्ति से बहुत गहरा रिश्ता है।
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कविता के लिए मनुष्य की पक्षधरता के अतिरिक्त मैं किसी अन्य पक्षधरता को आवश्यक नहीं मानता।
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कविता क्रांति ले आएगी, ऐसी ख़ुशफ़हमी मैंने कभी नहीं पाली, क्योंकि क्रांति एक संगठित प्रयास का परिणाम होती है, जो कविता के दायरे के बाहर की चीज़ है।
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कविता से वही माँग करें, जो वह दे सकती है।
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मेरी मान्यता है, एक अच्छी कविता क्रांति के लिए उपयुक्त वातावरण बनाने में सैकड़ों राजनीतिक प्रस्तावों से कहीं ज़्यादा काम करती है और कविता यही कर सकती है। जो लोग उससे सीधे क्रांति या युद्ध में शिरकत की अपेक्षा रखते हैं, वे कविता की मूल प्रकृति को ही नहीं समझते हैं।
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एक ख़ास तरह का मध्यवर्ग शहर में विकसित होता रहा है, जो गाँवों से आया है। आधुनिक हिंदी साहित्य उन्हीं लोगों का साहित्य है।
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हिंदी की मुख्य रचनात्मक धारा शुरू से ही ग्रामोन्मुखी रही है। हिंदी की यह ग्रामोन्मुखता एक प्रमुख कारण थी, जिसके चलते ही खड़ी बोली के दो हिस्से हो गए। वह हिस्सा जो ग्रामोन्मुख था, हिंदी कहलाया और जो शहर-केंद्रित था; उसे उर्दू कहा गया। दुनिया की किसी भी भाषा में इस तरह का बँटवारा नहीं हुआ है। अज्ञेय से पहले हिंदी का कोई ऐसा कवि नहीं हुआ जो शुद्ध रूप से नागरिक कवि हो।
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मैं ऐसा नहीं मानता कि विश्व-बाज़ार कविता को निगल जाएगा और कविता हमेशा के लिए अपना प्रभाव खो देगी।
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कविता के लिए समाज की हर गतिविधि एक कच्चे माल की तरह होती है।
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विश्व-बाज़ार विश्व-समाज की नई गतिविधि है और उसमें बहुत कुछ ऐसा हो सकता है जिससे नए ढंग की कविता जन्म ले।
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कविता अपनी प्रकृति से ही हर स्थिति का सामना करती है। वह उसे तोड़ती-फोड़ती है, जिससे नई संभावनाएँ जन्म लेती हैं। यह उसके वजूद की निशानी है।
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बाज़ार चाहे भी तो भाषा के बिना ज़िंदा नहीं रह सकता जबकि भाषा की प्रकृति में वह अंतर्निहित शक्ति होती है कि वह बाज़ार के साथ भी ज़िंदा रहे और बाज़ार के बिना भी ज़िंदा रह सके।
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उपभोक्ता समाज को टी.वी., रेडियो, कॉस्मेटिक्स और संचार के आधुनिक साधन चाहिए। कविता सबसे बाद में चाहिए, या फिर नहीं चाहिए। ऐसा एक समाज हमने बनाया है।
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जैसा समाज हम बनाएँगे, उसी के अनुसार कला और साहित्य की क़ीमत तय होगी।
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उपभोक्ता-संस्कृति में कविता बेकार की चीज़ समझी जाने लगी है। मनोरंजन के अन्य साधन मनुष्य की स्वाद-वृत्ति को बहुत आसानी से संतुष्ट कर सकते हैं।
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कविता के आनंद तक पहुँचने में समय लगता है।
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भारत की सारी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ हैं। हिंदी ही सिर्फ़ राष्ट्रभाषा है, यह मानना भी एक खंडित सत्य होगा।
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मीडिया का डर एक व्यर्थ का डर है।
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साहित्य की यह ताक़त कि वह हर चीज़ को खाद में बदल ले, बड़ी ताक़त है। मीडिया को भी इस रूप में पचाने की ताक़त साहित्य रखता है, कला रखती है, ऐसा मेरा विश्वास है।
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मुद्रित पाठ को उच्चरित पाठ में बदलने की चुनौती आज के कवि को स्वीकार करनी चाहिए और न समझे जाने का ख़तरा उठाकर भी बड़े समुदाय तक अपनी बात को पहुँचाने की कोशिश करनी चाहिए।
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आज की कविता शुद्ध रूप से पाठ्य कविता बन गई है जबकि उसकी प्रकृति में ही निहित है कि वह जितनी पाठ्य उतनी ही श्रव्य होगी। कविता को लगातार ज़िंदा रहने के लिए समाज की आँख एवं कान दोनों का विषय बनना चाहिए।
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मैं शब्द के अस्तित्व को लेकर चिंतित नहीं हूँ क्योंकि उसकी उच्चरित शक्ति में मुझे विश्वास है, पर यह ख़तरा ज़रूर देखता हूँ कि लिखित शब्द की पहुँच का दायरा कम हुआ है, यानी साहित्य का पाठक वर्ग सिकुड़ा है।
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अभिव्यक्ति के सारे माध्यम जहाँ निरस्त या समाप्त हो जाते हैं, शब्द वहाँ भी जीवित रहता है। मुझे मानवीय शब्द की गरिमा में विश्वास है।
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कविता चली जाती है या चली जाएगी, यह सोचना ही ग़लत है। कविता रहती है और वह लगभग पत्थर पर उगने वाली घास की तरह होती है जो पत्थर को तोड़कर भी उग आती है, इसलिए वह रहेगी ही।
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कविता केवल उसी दिन निरस्त हो सकती है, जिस दिन किसी विस्फोटक से मानव-मन से भाषा को उड़ा दिया जाएगा।
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भाषा का होना कविता के होने की गारंटी है।
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केदारनाथ सिंह के यहाँ प्रस्तुत उद्धरण ‘क़ब्रिस्तान में पंचायत’ (राधाकृष्ण प्रकाशन, संस्करण: 2003), ‘तीसरा सप्तक’ (भारतीय ज्ञानपीठ, संस्करण : 2013), ‘मेरे समय के शब्द’ (राधाकृष्ण प्रकाशन, संस्करण: 1993) ‘मेरे साक्षात्कार : केदारनाथ सिंह’ (किताबघर प्रकाशन, संस्करण : 2008) शीर्षक पुस्तकों से चुने गए हैं। केदारनाथ सिंह की प्रसिद्ध और प्रतिनिधि कविताएँ यहाँ पढ़ें : केदारनाथ सिंह का रचना-संसार