‘मानव मानव से नहीं भिन्न’

नलिनी सिन्हा ने एनडीटीवी के पोर्टल पर लिखा है कि अँग्रेज़ी राज-परिवार की सामयिक घटनाओं के प्रति हिंदुस्तानी समाज उदासीन है। इस उदासीनता से वह प्रसन्न दिख रही हैं। इस उदासीनता को उन्होंने प्रेमचंद की कहानी ‘ग़रीब की हाय’ की संगति से सँवारा है। इस लेख में मेगन मर्केल के उस तात्कालिक साक्षात्कार का हवाला है, जहाँ उन्होंने पहली बार विंडसर राजभवन के रंगभेद और भेद-भाव के प्रसंगों पर बात की और इसी कारण पति-संग राज-परिवार से अलग होने का फ़ैसला लिया।

अँग्रेजी राज-परिवार की घटनाओं से हम तब उद्वेलित होते थे; जब हम रानी विक्टोरिया, जॉर्ज पंचम को अपना ‘भाग्य विधाता’ मानते थे। अगर आज हिंदुस्तानी समाज उसे नोटिस नहीं ले रहा है तो अच्छी बात ही है।

महारानी विक्टोरिया हिंदुस्तान की भी महारानी थीं। हिंदी के बहुतों कवियों ने महारानी के गुण गाए हैं। हिंदी नवजागरण के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी गाए हैं। महारानी विक्टोरिया के बाद एडवर्ड सप्तम हुए। भारतेंदु ने फिर कविता लिखी—‘एडवर्ड सप्तम के प्रति’। हिंदी साहित्य के इतिहास में राज-भक्ति का यह चरम अभ्यास संक्रामक था।

एडवर्ड सप्तम के मृत्युपरांत उनके सुपुत्र जॉर्ज पंचम आते हैं। इस आगमन के साथ ही महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर भी भारतेंदु की चाल चलते हैं! अभी जो भारतवर्ष का राष्ट्रगान है, उसके बारे एक लोकप्रिय धारणा ‘रूढ़’ हो गई है कि वह जॉर्ज पंचम के भारत-आगमन के स्वागत के रूप में लिखा गया गीत है। हालाँकि इस धारणा को ‘बौद्धिकों’ ने विवादित प्रसंग क़रार दिया है और ख़ुद रवींद्रनाथ टैगोर भी इस बारे में सफ़ाई दे चुके हैं।

फिर भी, हिंदी कवि रघुवीर सहाय लिखते हैं :

राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है

यह कविता—इन पंक्तियों समेत—हिंदी की बहुउद्धृत कविताओं में से एक है।

सारांश यह कि हिंदी की सैकड़ों कविताएँ निकल आएँगी जो ब्रिटिश शाही परिवार के गुणगान और उसकी भक्ति में लिखी गई हैं। अगर उनका एक जिल्द में संकलन हो तो वह हिंदी के शर्मनाक पृष्ठों के एक संकलन के अतिरिक्त कुछ और नहीं होगा।

महारानी विक्टोरिया, उनके पुत्र एडवर्ड सप्तम और उनके पुत्र जॉर्ज पंचम

जॉर्ज पंचम के बाद एक घटना घटती है। जॉर्ज पंचम के बड़े बेटे एडवर्ड अष्टम अपने पिता की मृत्यु के बाद राजा बने, लेकिन वह दिल से मज़बूत और ‘क्राउन’ की ज़िम्मेदारियों से कमज़ोर निकले। इस संदर्भ को वे जन जिन्होंने ‘क्राउन’ वेब सीरीज़ देखी है, तुरंत समझ सकते हैं। इस सीरीज़ में कहा गया है : ‘‘एक रानी, एक राजा के रूप में वे कोई व्यक्ति मात्र नहीं, बल्कि ताज हैं, और ताज की गरिमा होती है।’’ आप ताज की व्याख्या कर सकते हैं, लेकिन ताज की गरिमा को परिभाषित नहीं कर सकते हैं, क्योंकि यह पूर्वनिर्धारित-पूर्वाभ्यासित भेदों के क्रम का अनुयायी है।

लेकिन यह सब ऊपर लिखने का क्या मतलब है? नलिनी सिंह परिचित ही होंगी कि अँग्रेज़ी राज-परिवार की गतिविधि में रुचि लेने वाले  भारतीय अभिजात वर्ग का प्रचार-तंत्र इतना बड़ा था कि उनकी सोच ही समाज की सोच लगती थी, किंतु अभी की वास्तविक स्थिति यह है कि अभिजात-गॉसिप का हिंदुस्तानी स्पेस ठेले में सिकुड़कर हाशिए पर है, हालाँकि यह हाशिया उन्हें इज़्ज़त से नहीं दिया गया है, मतलब ‘उत्तरोत्तर सामाजिक विकास’ के हवाले से नहीं दिया गया है।

अँग्रेज़ी राज-परिवार की घटनाओं के प्रति भारतीय समाज की उदासीनता का एक कारण यह भी संभव है।

राज-परिवार का केंद्र में होना, सारी हिंदुस्तानी प्रचार-शक्तियों का उस परिवार के साथ होना, हिंदी को नई चाल में ढालने वाले से लेकर हिंदुस्तान को पहला नोबेल देने वाले तक का उनके साथ होना; उस समय-समाज में भिन्न सोच रखने वाला ‘अपनी ज़मीन मिले वाली मृगतृष्णा’ में भटकता होगा! निराला—सूर्यकांत त्रिपाठी निराला—ऐसे ही कवि थे। उनका रवींद्रनाथ टैगोर से एक तरह से चुनौती वाला आभासी-संबंध था। वह टैगोर को टिकाकर कहते थे, ‘‘मैं प्रिंस द्वारकानाथ टैगोर का नाती होता और अमीर होता तो लोग मुझे भी महान समझते।’’

रवींद्रनाथ टैगोर ने जॉर्ज पंचम के लिए कविता लिख ही रखी थी। जनमानस में उनकी यह कविता अपनी रचना-प्रक्रिया के संदर्भ में भी रूढ़ हो रखी थी।

निराला ने जॉर्ज पंचम के बेटे राजा एडवर्ड अष्टम के लिए कविता लिखी। क्यों लिखी? क्या यह पूर्व के कवियों की तरह दरबार से मान-मक्खन की चिकनाई की उम्मीद में फिसली हुई कविता थी? नहीं।

एडवर्ड अष्टम राजा बने और राजा बनकर भी ताज की गरिमा का ख़याल न कर दिल की गरिमा को ही ताज बना दिया। प्रभावशाली अमेरिकी महिला, वालिस सिम्पसन के प्रेम में वह क़ैद हो गए। समस्या सिर्फ़ इतनी थी कि सिम्पसन दो मर्दों को तलाक़ दे चुकी थी। ‘राजभवन’ के लिए गरिमा आड़े आ गई कि दो जन-सामान्य की तलाक़शुदा ब्रिटेन की महारानी बनेगी? पूरा अँग्रेज़ी-अभिजात-वर्ग इस संबंध के ख़िलाफ़ खड़ा हो गया। एडवर्ड अष्टम के सामने चुनाव के सिर्फ़ दो ही विकल्प थे—क्राउन (ताज) या प्रेमिका। 11 दिसंबर 1936 को एडवर्ड अष्टम ने रेडियो पर एक व्यक्तिगत प्रसारण में अपने प्रेम को ताज के ऊपर वरीयता दी। राजा अब किरीटहीन सम्राट था। 12 दिसंबर को निराला ने कविता लिखी—‘एडवर्ड अष्टम के प्रति’। यह कविता ‘सरस्वती’ पत्रिका के जनवरी-1937 अंक में प्रकाशित हुई। यहाँ इस कविता के कुछ अंश :

जो करे गंध-मधु का वर्जन
वह नहीं भ्रमर;
मानव मानव से नहीं भिन्न,
निश्चय, हो श्वेत, कृष्ण अथवा,
वह नहीं क्लिन्न;
भेद कर पंक
निकलता कमल जो मानव का
वह निष्कलंक,
हो कोई सर

एडवर्ड अष्टम के गद्दी छोड़ने के बाद छोटे भाई जॉर्ज छठवें राजा बने। जॉर्ज छठवें के कोई पुरुष संतान कोई नहीं थीं, इसलिए उनकी बड़ी बेटी एलिज़ाबेथ द्वितीय महारानी विक्टोरिया के बाद महारानी बनीं। महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय के पति का नाम फ़िलिप है। फ़िलिप का पूरा नाम फ़िलिप माउंटबेटेन है। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि नेहरू के क़रीबी लेडी माउंटबेटेन और लॉर्ड माउंटबेटेन के भांजे ब्रिटेन के भावी राजा के पिता हैं।

शायद यह अनुभव भी एक वर्ग को आश्चर्यचकित कर सकता है कि अँग्रेज़ी राज-परिवार में इतना कुछ चल रहा है और नेहरू का भारत चुप है! घोर आश्चर्य!!

ख़ैर, महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय के पुत्र चार्ल्स भविष्य के राजा हैं। चार्ल्स और डायना के प्रसंग से ज़्यादातर जन परिचित हैं। इसी दंपति के द्वितीय पुत्र हैं—प्रिंस हैरी। प्रिंस हैरी की पत्नी हैं—मेगन मर्केल। यही अभी की कड़ी है जिनके कारण ऊपर का टेक्स्ट संभव हुआ है। यही वह कड़ी है, जिसके बारे में प्रिंस हैरी के परदादा एडवर्ड अष्टम निराला के शब्दों में कह गए थे :

मानव मानव से नहीं भिन्न,
निश्चय, हो श्वेत, कृष्ण अथवा,
वह नहीं क्लिन्न

निराला की पूरी कविता इस तरह है :

सम्राट एडवर्ड अष्टम के प्रति

वीक्षण अगल :
बज रहे जहाँ
जीवन का स्वर भर छंद, ताल
मौन में मंद्र,
ये दीपक जिसके सूर्य-चंद्र,
बँध रहा जहाँ दिग्देशकाल,
सम्राट! उसी स्पर्श से खिली
प्रणय के प्रियंगु की डाल-डाल!

विंशति शताब्दि,
धन के, मान के बाँध को जर्जर कर महाब्धि
ज्ञान का, बहा जो भर गर्जन—प
साहित्यिक स्वर—
‘‘जो करे गंध-मधु का वर्जन
वह नहीं भ्रमर;
मानव मानव से नहीं भिन्न,
निश्चय, हो श्वेत, कृष्ण अथवा,
वह नहीं क्लिन्न;
भेद कर पंक
निकलता कमल जो मानव का
वह निष्कलंक,
हो कोई सर’’
था सुना, रहे सम्राट! अमर—
मानव के घर!

वैभव विशाल,
साम्राज्य सप्त-सागर-तरंग-दल-दत्त-माल,
है सूर्य क्षत्र
मस्तक पर सदा विराजित
ले कर-आतपत्र,
विच्छुरित छटा—
जल, स्थल, नभ में
विजयिनी वाहिनी-विपुल घटा,
क्षण क्षण भर पर
बदलती इंद्रधनु इस दिशि से
उस दिशि सत्वर,
वह महासद्म
लक्ष्मी का शत-मणि-लाल-जटिल
ज्यों रक्त पद्म,
बैठे उस पर,
नरेंद्र-वंदित, ज्यों देवेश्वर।

पर रह न सके,
हे मुक्त,
बंध का सुखद भार भी सह न सके।
उर की पुकार
जो नव संस्कृति की सुनी
विशद, मार्जित, उदार,
था मिला दिया उससे पहले ही
अपना उर,
इसलिए खिंचे फिर नहीं कभी,
पाया निज पुर
जन-जन के जीवन में सहास,
है नहीं जहाँ वैशिष्टय-धर्म का
भ्रू-विलास—
भेदों का क्रम,
मानव हो जहाँ पड़ा—
चढ़ जहाँ बड़ा सम्भ्रम।
सिंहासन तज उतरे भूपर,
सम्राट! दिखाया
सत्य कौन-सा वह सुंदर।
जो प्रिया, प्रिया वह
रही सदा ही अनामिका,
तुम नहीं मिले,—
तुमसे हैं मिले हुए नव
योरप-अमेरिका।

सौरभ प्रमुक्त!
प्रेयसी के हृदय से हो तुम
प्रतिदेशयुक्त,
प्रतिजन, प्रतिमन,
आलिंगित तुमसे हुई
सभ्यता यह नूतन!