‘लिखना ख़ुद को बचाए रखने की क़वायद भी है’

संतोष दीक्षित से अंचित की बातचीत

संतोष दीक्षित सुपरिचित कथाकार हैं। ‘बग़लगीर’ उनका नया उपन्यास है। इससे पहले ‘घर बदर’ शीर्षक से भी उनका एक उपन्यास चर्चित रहा। संतोष दीक्षित के पास एक महीन ह्यूमर है और एक तीक्ष्ण दृष्टि जो समय को बेधती है। इस नाते वह हिंदी के अनूठे लेखक ठहरते हैं। यह बातचीत ‘बग़लगीर’ के प्रकाशित होने के आस-पास संभव हुई।

— अंचित

संतोष दीक्षित │ स्रोत : फ़ेसबुक

‘बग़लगीर’ की कहानी कैसे बनी?

कोई भी कहानी किसी भी रचनाकार पर अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवेश के गहरे दवाब से उत्पन्न होती है। बेशक रचनाकार का व्यक्तिगत अनुभव और उसके खुद का विजन इस कहानी को एक ख़ास रूपाकार में ढ़ालता है। मैं जिस इलाक़े पटना सिटी में रहता हूँ, वह पटना शहर का एक पुराना हिस्सा है, जहाँ की रवायत, सोशल टोपोग्राफी वग़ैरह नई कॉलोनियों या सेक्टरों में बँटे आधुनिक शहरों से भिन्न है। मैंने जिस विभाग (पशुपालन) में काम किया लगभग पैंतीस वर्ष से ऊपर, वह विभाग एक समय में अपने चर्चित घोटाले के लिए काफ़ी बदनाम रहा। वहाँ के कुछ मेरे निजी और कुछ गपशप में शामिल होकर आए दूसरों के अनुभव भी ऐसे थे जो कहानी में एक ख़ास तरह के भ्रष्टाचार को इंगित करते हैं। वैसे मेरा ध्यान पूँजीवादी व्यवस्था और इससे उत्पन्न राजनीति द्वारा संस्थानिक और व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के साथ-साथ बदलते और दरकते सामाजिक, राजनीतिक मूल्यों को भी चित्रित करने के तरफ़ था।

हमारे समय में एक युवा का जो स्वप्न था, वही स्वप्न उपन्यास के नायक किशोर किरण का था। किशोर किरण उस स्वप्न का निर्वाह करना चाहते थे। उसी को टटोलते अपनी मंज़िल तक पहुँचना चाहते थे। लेकिन उसी दौरान उदारवाद एवं बाज़ारवाद के आगमन के साथ बहुत तेजी से बदलते हमारे समाज की दिशा कहाँ जाकर एक घुमावदार मोड़ पर पहुँचती है, यह कहानी वहाँ तक की एक यात्रा है। वहाँ से फिर कई-कई कहानियाँ निकल सकती हैं। निकली भी हैं।

संक्षेप में कहूँ तो ‘बग़लगीर’ की कहानी एक विशेष कालखंड में मेरे द्वारा अर्जित अनुभवों की एक ऐसी नदी है, जिसके प्रवाह में शामिल मेरी कल्पनाओं के पात्र अपनी अपनी नौकाओं के साथ एक यात्रा पर निकले हुए हैं। कहानी उनकी यात्राओं का लेखा-जोखा है। कोई धारा के विपरीत चल रहा है तो कोई प्रवाह में बहता, उसे अपने साथ बहा ले जाना चाहता है। एक कशमकश है, यहाँ जो आज हर किसी के जीवन में है।

‘बग़लगीर’ पढ़ते हुए बार-बार इसकी प्रासंगिकता स्थापित होती है। हालाँकि कहानी वर्तमान तक नहीं आती। व्याप्त भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता के सूत्र पकड़ने की कोशिश में रहती है।

किसी भी उपन्यास की प्रासंगिकता इस पर निर्भर करती है कि उसमें वर्णित सत्य हमारे समय और समाज के अनुभूत सत्य के कितने निकट से होकर गुज़रता है। सांस्थानिक भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, समाज की बढ़ती लोलुपता, संयुक्त परिवार का विघटन, राजनीति में एक ख़ास तरह का पतन आदि कुछ ऐसे बिंदु हैं, जिससे गुज़रते हुए यह उपन्यास अपनी यात्रा पूरी करता है। हर यात्रा एक टाइम स्पेस में पूरी होती है और उसके आगे एक नई यात्रा शुरू होती है। एक कथा का अंत कई अन्य कथाओं का प्रस्थान-बिंदु हो सकता है। ‘बग़लगीर’ दरअसल आज के समय तक पहुँचने का एक आख़िरी पड़ाव भर है। कहानी जहाँ समाप्त होती है, वहीं से आगे भारतीय राजनीति में एक ऐसा आमूलचूल परिवर्तन आता है, जिससे हमारे बने-बनाए और अब तक के देखे-भाले कई सामाजिक मानदंड दरकने लगते हैं। परिवेश में इतनी तेज़ी से और इतना अचंभित करने वाला बदलाव आता है कि हमें दाँतों तले उँगली दबा हैरान होना पड़ रहा है। इसके आगे की कथा अभी लिखी जा रही है। और भी कई लोग अपनी अपनी तरह से लिख रहे है। साहित्य एक सामूहिक, सामाजिक कर्म है। एक समय में लिखी जा रही कई कई रचनाएँ मिल-जुलकर अपने समय का एक ठोस रूपक स्थापित करती हैं। अपने समय समाज की हलचल को रेखांकित और विश्लेषित करती हैं।

किताब में जो सेक्स-संबंध है, वह बार-बार फ़ार्स स्थापित करते हैं। कई बार यह भी होता है कि पूँजीवादी पतन का चित्रण करते हैं।

तमाम पूँजीवादी संबंध ही फ़ार्स हैं। यूज एंड थ्रो वाले संबंध। यह इधर ख़ूब देखने को मिल रहा है। जब तक आप एक दूसरे के लिए उपयोगी हों तो ठीक, वरना रास्ते और भी हैं। एकदम से संवेदनहीन अर्थगामी संबंध। उपन्यासों में सेक्स-संबंध पहले सामाजिक ऊँच-नीच या वर्गीय भेदभाव को ध्वस्त करने को दिखाए गए थे। मसलन ‘लोलिता’ उपन्यास में वर्णित सेक्स-प्रसंग या प्रेमचंद के ‘गोदान’ में सिलिया चमारिन का एक ब्राह्मण के साथ का प्रेम-प्रसंग। आज़ादी के बाद के ढेरों उपन्यासों में बतौर फ़ैशन या स्त्री की बोल्डनेस के रूप में यह चित्रित हुआ। यहाँ इस उपन्यास में ऐसे तमाम संबंध महज़ एक भोगवादी संस्कृति का हिस्सा हैं। बिना किसी आवेग या संवेदना से युक्त केवल दैहिक सुख के लिए बनाए गए संबंध। ऐसे संबंध हमारी सामाजिक विवेचना के विषय भी नहीं हो सकते। लेकिन आज के समाज की यह एक भयानक सच्चाई भी है। उपन्यास में वर्णित इमरान और गुड़िया का संबंध ठीक ऐसा संबंध नहीं है। यह संबंध आवेगमय, प्रेममय तथा गरिमामय है और उनके माता-पिता के फ़ार्स संबंधों के प्रतिरोध में उपजा एक ऐसा सहज, स्वभाविक और गतिमान संबंध है जो उन्हें एक अवसाद, अपराधबोध या कुंठा से बाहर निकल पाने का सबब भी बनता है।

हिंदी कथा साहित्य में ह्यूमर और इसको लेकर आपका अप्रोच?

हिंदी कथा साहित्य में जब मैंने आँखें खोलीं, यह समय पिछली सदी के आख़िरी दशक की शुरुआत का समय था। उन दिनों हिंदी जगत में मिलान कु़ंदेरा के प्रभाव का बहुत शोर था। कई प्रमुख लेखकों में इनका थोड़ा बहुत प्रभाव दिखता भी था। मैंने भी मिलान कुंदेरा को पढ़ा। इसके पहले सलमान रश्दी को पढ़ रखा था। हिंदी में परसाई, शरद जोशी एवं रवींद्रनाथ त्यागी की तिकड़ी व्यंग्य लेखन में जमी हुई थी। इन्हीं सबसे प्रेरणा लेकर मैं व्यंग्य-लेखन की शुरुआत कर चुका था। लेकिन कुछ ही वर्षों में यह महसूस हुआ कि व्यंग्य एक विधा नहीं, बल्कि एक शैली है जो मेरी घुट्टी में शामिल हो चुकी है। व्यंग्य की यह शैली मुझे अपने पिता से विरासत में मिली थी जो कभी एक वाक्य भी सरल नहीं बोलते थे। हमेशा लक्षणा अथवा व्यंजना में ही कुछ कहते। जैसे कि मैं शुरू से ही एक सेकेंड डिविजनल विद्यार्थी रहा। जब भी पारिवारिक संस्कारवश एवं विशेषकर माँ के आग्रह पर परीक्षा देने से पहले पिता के पास आशीर्वाद लेने जाता, हमेशा एक ही वाक्य कहते, ‘‘देखना कहीं थर्ड डिवीजन न आ जाए!’’ उनका यह एक वाक्य किसी विस्फोट की तरह पूरे परीक्षा-सत्र में गूँजता रहता—मेरे कानों में और मैं कई-कई लापरवाहियों से ख़ुद को बचा पाता। ज़ाहिर है, पिता मेरी इन कमज़ोरियों को जानते थे। कभी-कभी मूड में किसी तीसरे व्यक्ति से मेरी तारीफ़ में कहते भी थे कि है तो यह जीनियस, लेकिन लापरवाह बहुत है। कोई बड़ा सपना नहीं देखने वाला। और हैंडराइटिंग इतनी ख़राब है इसकी कि इसका लिखा कौन परीक्षक पढ़कर इसे सही सही नंबर देगा भला? ‘बग़लगीर’ में पिता की इस छवि की थोड़ी बहुत आभा विराजमान है।

तो मेरे गद्य में अंडरटोन के रूप में जो ह्यूमर आता है, उसके पीछे की पूरी पृष्ठभूमि यही है। लेकिन यह हर जगह नहीं चलता—ख़ासकर कहानियों में। उपन्यास में थोड़ा चल जाता है क्योंकि मेरे पात्र इतने मिजरेबल रहे हैं कि इनके चरित्र की पूरी निर्मिति में ह्यूमर का एक ख़ास रोल रहता है। वह उन्हें एक संपूर्णता प्रदान करता है। जैसे ठंड के दिनों में वर्षा में भीगने को मजबूर कोई व्यक्ति। हमारा समाज भी अब ऐसा हो चुका है कि वह लाखों करोड़ों के लिए इस तरह की परिस्थितियाँ पैदा करता रहता है। उनके जीवन को निहायत कष्टपूर्ण, अवसादपूर्ण बनाने के साथ-साथ उन्हें जिलाए रखने का उपक्रम भी करता है। यह सब कुछ मिलकर ट्रेजेडी के साथ-साथ एक ह्यूमर भी पैदा करता है। एक दयनीयता के साथ पराक्रम की भी स्थिति। इस स्थिति में मेरा अप्रोच बस इतना है कि मैं कथा की गरिमा को बचाए रखना चाहता हूँ। कोई भी कटाक्ष व्यक्तिगत न हो। कोई भी चरित्र समाज के एक वर्ग चरित्र की ओर इशारा करता हो या कि उसमें ही खप जाता हो।

आपके एक अन्य उपन्यास ‘घर बदर’ के कुंदन बाबू एक तरह से आदर्शवादी ठहरते हैं, ‘बग़लगीर’ के किकि बाबू के सामने।

समाज हर तरह के व्यक्तियों के मेल से बनता है—ख़ासकर हमारा भारतीय समाज। यहाँ आदर्श की पराकाष्ठा से लेकर पतन की चरम सीमा तक सब कुछ मौजूद है। भारतीय समाज बहुत विविध और विशाल भी है। कई तरह की भाषाई और सांस्कृतिक विविधताओं से भरा-पूरा। ऐसे में बतौर एक लेखक मेरे अंदर हमेशा एक प्रश्न तैरता रहता है कि आख़िर हम अपने इस समाज को कितना जानते है? यह प्रश्न बहुधा कुंठा और निराशा से भी भर देता है। फिर भी मैं अपने अनुभवों को टटोलता हूँ। अपने उस विहंगम जीवन पर एक नज़र डालता हूँ। कविता की भाषा में कहूँ तो अपनी पूँजी को टटोलता हूँ और किफ़ायत से ख़र्च करता हूँ। चाहता हूँ यह भी… वह भी… और वह सुदूर का… जो थोड़ा अस्पष्ट-सा… लेकिन वह भी…। इसीलिए मेरी कहानियों में बहुत अलग-अलग तरह के पात्र और स्थितियाँ मिलती हैं। एक पशु चिकित्सक के रूप में जिन दिनों मैं प्रैक्टिस करता था, मेरे मरीज़ (मवेशी) मेरे पास नहीं आ पाते थे, बल्कि मुझे उनके क़रीब, उनके निवास-स्थल तक जाना पड़ता था। पशु चिकित्सकों के बीच यह बात बहुत प्रचलित है कि उन्हें इलाज भले पशुओं का करना पड़ता हो, लेकिन उनका साबक़ा उन पशुओं के मालिक के तौर पर अलग-अलग मनुष्यों से ही पड़ता है और उन्हें पैसा भी उन्हीं की टेंट से निकलवाना होता है। इस नाते समाज के अलग-अलग व्यक्तियों को उनकी परिस्थितिकी के साथ जानने का अवसर एक पशु चिकित्सक के रूप में मुझे बहुत अधिक मिला और मैंने इसका लाभ अपने लेखन में उठाया।

जहाँ तक ‘घर बदर’ के कुंदन बाबू और ‘बग़लगीर’ के किकि बाबू का प्रश्न है, तो मैं बस इतना ही कहूँगा कि हर व्यक्ति अपने जीवन की शुरूआत एक आदर्शवाद के साथ ही करता है। एक भोलेपन और खिच्चापन के साथ ही समाज में अपनी आँखें खोलता है। लेकिन वह अलग-अलग परिवेशगत परिस्थितियाँ होती हैं, जिनके नियत्रंण में मनुष्य एक कठपुतली की तरह जीवन भर नाचता रह जाता है, ज़ाहिर है हूबहू ऐसा नहीं होता। फिर भी यह किसी समाज का एक बड़ा सच है। कुछ लोग नदी में तैरने के लिए उतरते हैं और कुछ किनारे पर नहाने, तर्पण के लिए। लेकिन डूबने की संभावनाएँ इन दोनों के साथ लगी रहती हैं। जैसे कि ‘मनुस्मृति’ में लिखा है कि जन्मकाल की जाति हर किसी के लिए शूद्र ही होती है। यह परिवार, समाज और सामाजिक पर्यावरण होता है जो मनुष्य की निर्मितियों का सबसे बड़ा कारक होता है। ‘घर बदर’ के कुंदन बाबू का पारिवारिक संस्कार एकदम अलग तरह का है और किकि बाबू का परिवार एकदम अलहदे क़िस्म के चाल-चलन वाला है। मैंने दोनों तरह के चरित्र-निर्माण की पृष्ठभूमि का भी पूरा ध्यान रखा है और इतनी डिटेलिंग तो हर लेखक को करनी चाहिए। कोई भी व्यक्ति अपने आप में एक स्वतंत्र इकाई होते हुए भी उस तरह से स्वतंत्र और स्वेच्छाचारी नहीं होता जैसा कि आजकल लिखा जा रहा है। हम अपने लेखन में समाज और व्यक्ति के अन्योन्याश्रित संबंध एवं संदर्भों से बुरी तरह से कटते जा रहे हैं। आज की कहानियाँ या उपन्यासों में एक व्यक्ति होता है या उसका एक छोटा-सा ग्रुप। जैसे कि लोग व्हाट्सअप ग्रुप वग़ैरह बनाते हैं। समाज बहुत पीछे छूट जा रहा है, क्योंकि समाज के बीच लेखक का विचरण लगातार घटता जा रहा है।

अभी की राजनीतिक स्थिति को लेकर एक गहन निराशा का सामना होता है। कोई उम्मीद नहीं?

राजनीति से गहन निराशा स्वाभाविक है। एक लेखक जनता के दुख-दर्द, उसकी आकांक्षाओं और स्वप्न में भागीदार बनता है, जबकि राजनीति कुछ लोगों को लाभान्वित करने और अपनी सत्ता को बचाए रखने का एक ऐसा चातुर्यपूर्ण उपक्रम है, जिसे जनता के दुख-दर्द की कोई वास्तविक परवाह नहीं होती। पूँजीवाद के विकास ने राजनीति को भ्रष्टतम और बाहुबलियों का ऐसा समूह बना दिया है जो सांस्थानिक लूट के ज़रिए अपना घर भर रहे हैं। आज धरती का जिस तरह से निर्मम शोषण हो रहा है, पर्यावरण के संकट से जिस तरह से आम जन बेहाल है, राजनीति इन संवेदनशील और वैश्विक मुद्दों पर भी अपनी रोटी सेंकने में लगी हैं। विश्व बैंक और आई.एम.एफ़. के क़र्ज़ा तले दबे अधिकांश देशों पर विकास के ऐसे ख़ास पैर्टन को अपनाने का दबाव है जो पूरी तरह जनविरोधी हैं और पर्यावरण के लिहाज़ से भी बेहद घातक। पूरे विश्व में जगह-जगह जिस तरह से दक्षिणपंथी राजनीति अपना सिर फिर से उठाने लगी है, इससे पूरे विश्व की तबाही का ख़तरा दिख रहा है।

हमारे अपने देश में जनता के बीच वैमनस्य और शंका के इतने बीज लगातार बोए जा रहे हैं, जिससे आपसी भाईचारे में चिंताजनक गिरावट आई है। बढ़ती सामाजिक, आर्थिक विषमता अनेक तरह के अपराधों का एक बड़ा कारण बनकर उभर चुका है। निकट भविष्य में इनके निराकरण का कोई मार्ग नहीं दिख रहा। स्थितियाँ लगातार बदतर ही होती जा रही हैं। ऐसे में आशा की एक किरण युवाओं की ओर से दिखती है। महँगाई, बेरोज़गारी, स्वप्न-भंग और बहुलतावादी संस्कृति के नष्ट होने की सर्वाधिक क़ीमत युवाओं को ही चुकानी पड़ती है। आज इनमें एक प्रत्यक्ष आक्रोश दिख रहा है जो निकट भविष्य में किसी बड़े राजनीतिक परिवर्तन को दिशा दे सकता है। वैसे देश में नेतृत्व का संकट भी सरे आम दिख रहा है। जनप्रतिनिधि अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं, भले ही जनता ने अभी तक अपना धैर्य नहीं खोया है। राजनीति लगातार जनता को भरमाए रखने का यत्न कर रही है। लोग लगातार ठगे जा रहे हैं, फिर भी ख़ुश दिख रहे हैं। ऐसा लंबे समय तक नहीं चल सकता।

लेखक संघ अप्रसांगिक होते जा रहे हैं?

जैसी राजनीति अभी पूरे देश में हावी है, तमाम ट्रेड यूनियंस और ऐसे तमाम संगठनों की स्थिति दयनीय है जो आम लोगों के मौलिक अधिकार और हित के लिए काम कर रहे हैं। अब जगह जगह एनजीओ सक्रिय हो चुके हैं। इनमें से अधिकांश की भूमिका संदिग्ध हैं। साहित्य के बीच भी ऐसे एनजीओ सक्रिय हो चुके हैं। आज लिट-फ़ेस्ट, लोकार्पण और पुरस्कारों की एक ऐसी दुनिया जगमगाने लगी है, जहाँ ज्वलंत मुद्दों पर बहस या चर्चा नहीं होती। संगठनों का जो मुख्य कार्य था— अच्छे, जनोन्मुखी लेखन का चयन कर उन्हें रेखांकित करना, यह प्रयास समाप्त होता दिख रहा है। आज लेखन एक व्यक्तिवादी कर्म बनकर रह गया है और लेखक व्यक्तिगत उपलब्धियों की प्राप्ति को प्रयासरत दिखते हैं। इसी कारण सोशल मीडिया भी लेखकों का इतना सारा वक़्त ले लेता है जो वह पहले लेखक संगठनों को दिया करते थे। प्रलेस जिस राजनीतिक दल से जुड़ा है, उसकी ख़ुद की हालत इतनी ख़स्ता है कि वह अपना वर्चस्व बनाए रखने को जातिवादी दलों के साथ तालमेल करता नज़र आ रहा है। ज़ाहिर है लेखक भी इस तरह का जातिगत, धार्मिक और कुछ अन्य सुविधाजनक आधार देख बँटते जा रहे हैं। प्रलेस में नए लोगों का प्रवेश भी पहले की तरह नहीं हो पा रहा है और जो इनकी गोष्ठियों में उपस्थित होते भी हैं तो उनकी कोई प्रतिबद्धता स्पष्ट नहीं होती। प्रलेस के द्वारा लेखकों को अब कोई फ़ायदा भी नहीं मिलता। पहले कुछ पुरस्कार, भ्रमण, सम्मेलन, विदेश-यात्रा आदि का लोभ भी रहता था। यह दरिया भी अब पूरी तरह सूख चुका है। फिर भी ऐसा नहीं कि एकदम निराशा की स्थिति है। अभी भी साहित्य में सक्रिय अधिकांश बड़े नाम किसी न किसी लेखक संगठन का प्रतिनिधित्व करते ही हैं और यह आगे भी रहेगा क्योंकि लेखक कोई ‘बेंग’ नहीं जो उछल-कूदकर इस पड़ले से उस पड़ले पर जाते रहेंगे। फिर भी सामूहिकता की जगह एक व्यक्तिवादी प्रवृत्ति और सोच का हावी होना गहन निराशा का लक्षण है।

फ़िलहाल क्या पढ़ रहे हैं?

पढ़ना तो लगभग नित्य का कारोबार है। कुछ न कुछ पढ़ता ही रहता हूँ। दोपहर बाद से रात का कुछ समय पढ़ने के ही हवाले रहता है। पढ़ना मेरे लिए एक तरह का मनोरंजन भी है और मस्ती का साधन भी। समकालीन पत्रिकाएँ नियमित रूप से लेता और पढ़ता हूँ। लिखना सुबह के समय होता है। वह भी रोज़ नहीं। जब मूड बना तो हुआ वरना ज़्यादा समय तो मूड बनाने में ही ज़ाया हो जाता है। फ़िलहाल तो नंद किशोर नवल के आलोचना-कर्म पर संपादित एक पुस्तक ‘लेख आलेख’ पढ़ रहा हूँ। नवल जी हमारे शहर के ही थे, लेकिन उनके लेखन से बहुत परिचित नहीं था। अब उन्हें पढ़कर लग रहा है कि हमारे बीच वह कितने सहज और ज़रूरी आलोचक थे। कई उपन्यास भी क्रम में लगे हुए हैं। अपने लेखन के क्रम में आने वाले बहुत सारे संदर्भों को भी पढ़ना पड़ता है।

आगे की क्या योजना है?

योजना बनाकर कभी कुछ नहीं कर पाया। सरकारी नौकरी में रहने के कारण ऐसा नहीं हो सका। आजकल के लेखक ख़ूब कर रहे हैं। किसी विषय पर शोध कर उपन्यास वग़ैरह लिखना। मैं तो अपनी मस्ती में लिखता हूँ और कबीर के ‘आँखिन देखी’ पर अमल करता हूँ। ‘कागद की लेखी’ मुझे बहुत नहीं सुहाती। आख़िर किसी ख़ास विषय को पढ़ने को लोग आपका उपन्यास क्यों पढ़ेंगे…? …उस विषय से संदर्भित मूल पुस्तकों को ही क्यों न पढ़ेंगे जहाँ से आपने विषय उठाया है। उपन्यास को मैं जीवन के समानांतर रख आँकता हूँ और इसमें जीवनानुभव के साथ साथ ह्यूमन मोमेंट्स के सृजन पर ख़ासा बल देता हूँ। मेरे उपन्यास में टुकड़ों में ऐसे कई प्रयास मिलेंगे। पठनीयता का भी भरपूर ध्यान रखता हूँ। उपन्यास को पाठक किसी पुरानी शराब की तरह घूँट-घूँट भरते हुए पिए और जितना पीता जाए, और भी पीने की इच्छा बढ़ती जाए, तभी इसे पढ़ने का लुत्फ़ पाठक को मिलता है। पाठकों के इस लुत्फ़ का ख़याल तो हर लेखक को करना चाहिए।

इधर एक पशु चिकित्सक के रूप में ग्रामीण इलाक़े में काम करने के अपने अनुभवों और ग्रामीण क्षेत्र में फलने-फूलने वाली सरगर्मियों को लेकर एक उपन्यास की समाप्ति की है। एक अन्य उपन्यास पुराने पटना शहर (अज़ीमाबाद) के अंदर 1857 के बाद की गतिविधियों पर आधारित है, उस पर भी काम चल रहा है। बीच-बीच में जैसे बगुले की नज़र मछली पर होती है, कुछ वैसा कोई विषय नज़र आ जाए तो ‘टप्प’ से एक कहानी भी लिख मारता हूँ। पहले ही कहा, योजना बनाकर कुछ नहीं करता, लेकिन कुछ-कुछ करता भी रहता हूँ। ख़ुद को क्रियाशील रखने से ही उम्र पर बुढ़ापे का असर उतना नहीं पड़ता। लिखना ख़ुद को क्रियाशील रखने की, बचाए रखने की, एक क़वायद भी है।