तुम गर्मी की सबसे सुंदर शुरुआत

मृग-मरीचिका

बरस दर बरस घुमक्कड़ी मेरे ख़ून में घुलती जा रही है। ये यायावर सड़कें मुझसे दोस्ती पर फ़ख़्र करती हैं। इन ख़ाली सड़कों पर कोई मेरा इंतज़ार करता रहता है। उसका कोई भविष्य नहीं है और न ही अतीत! एक सजग वर्तमान है उसके पास। इसी जुगत में सारा जग जाग रहा है। धूप चढ़ते ही मैं उससे मिलूँगी—एयरपोर्ट रोड पर, जहाँ दोनों ओर बोगनवेलिया के गहरे रानी रंग के फूल और उतने ही गहरे हरे रंग के पत्ते मेरा और उसका स्वागत करेंगे। यक़ीनन वे घुलमिल जाएँगे उसकी पनीली छवि में, जिस पर मैं मोहित हूँ। हम मिलेंगे पर क्षणांश भर… उसके बाद मैं वहीं ठिठकी रह जाऊँगी और वह मेरे सामने देखते-देखते अदृश्य हो रहेगा!

प्रिय मृग-मरीचिका!

तुम गर्मी की सबसे सुंदर शुरुआत, सबसे ताज़ा दौलत हो मेरे लिए।

बारकोड

डियर मार्च,

तुम बेरंग होते जा रहे हो… तुम्हारे लाल बहीखाते अब काले सफ़ेद काग़ज़ में बदल गए हैं। हिसाब-किताब सँभाले तुम्हारे प्रेमी बैंक शीशे की दीवारों के पार, कम्प्यूटर-स्क्रीन पर माया का तरल रूप बरत रहे हैं। मोबाइल-स्क्रीन पर छाई इन्वेस्टर्स की गिद्ध-दृष्टि भ्रमित से ज़्यादा चकित करती है कि हाल ही में निकट मित्र से की गई वित्तीय चर्चा के निष्कर्ष सार्वजनिक कैसे हैं!

प्रगति दिखाती सफ़ेद पट्टी वाली ग्रे सड़क, ख़र्च करने की विधि बताते काली सफ़ेद लाइनों वाले बारकोड और ऊँचे-हरे पेड़ों की जगह पत्थर की मज़बूत इमारतें माया को सुरक्षित रखने की जुगत बताती हैं। अब दौलत या उसको पाने की जिद्द-ओ-जहद तुम्हारे साथ हरदम है। क्या काली-सफ़ेद दुनिया के चमकीले रंगों से इतर दुनिया अब भी तुम्हें पुकारती है। दादी होती आज तो ज़रूर कहती कि ये निगोड़ी कविता का असर है। नानी मंद-मंद मुस्काते हुए सोचतीं कि उनकी कहानी लंबी थी, पर झूठी नहीं।

धूसर रंग

जब पर्व, शादी-ब्याह वाले सीजन में बेहिसाब रंगों से उकता जाओ तो वार्डरोब खोलते ही सफ़ेद-काले, धूसर रंग के कपड़े रोब झाड़ते दिखते हैं और उन्हें लपक कर पहनने का मन हो उठता है। तब वे भी निहायत अकड़ की बानगी के साथ अपनी पुरानी अड़ियल क्रीज़ लिए निकलते हैं—इस ताक़ीद के साथ कि हुज़ूर जल्दी मिला करिए हमसे।

आधी आबादी, पूरा सच

डियर मार्च,

तुम्हारी हरिकथा तो मैं बाँच लूँ बेशक, मसलन वह बारकोड पर लाला की पान की पीक का कभी न धूमिल होने वाला रंग, समय के अपने हस्ताक्षरों जैसा, पर सृष्टि की धुरी के लिए पूरे साल का एक दिन चुनकर महिला दिवस मनाने का तुम्हारा ये हिसाब मेरे गले कभी नहीं उतरा! ख़ैर!!

तुम जीत रहे हो बेरंग होकर भी और ये बाज़ार भी—बसंत में…

ये आज भी आधी आबादी का पूरा सच ही है!

बोलते रंग

अलबेला संयोग है यह कि एक मृग-मरीचिका हमारे भीतर निरंतर चलती रहती है। इसका साबका मार्च के हिसाब-किताब से भी होता है, बारकोड से भी और भीतर ख़ुद को खोजने की जुगत से भी… यह द्वंद्व निरंतर चलता है : माया चाहिए या मन के भीतर की असीम शांति जो क़ीमती चीज़ के बिछुड़ जाने के बाद के वैराग्य से मिलती है कि चलो इसकी देखरेख से छुट्टी मिली।

अपना एकांत और एकालाप संघर्ष से साधे जिजीविषा से भरे चेहरे भी दिखाता है और उन चेहरों को रंग में एकाकार करता फागुन भी। इन रंगों के पास उछाह की बोली है, तारतम्य का छलकता जल और ढोल-चंग की मदमस्त थाप जो भीतर की सारी बर्फ़ को पिघला दे। इसके बाद जो भीतर मौन सधेगा—उसका आनंद लूँगी मैं।

इस सारी तरंग की ख़ुमारी तारी है मुझ पर…