[एक]
19 अगस्त 2003
प्रिय भाई,
नमस्कार!
तुम्हें शायद न याद हो कि हमारी मुलाक़ात हो चुकी है—लखनऊ में एक बार। हालाँकि ज़्यादा मुकम्मल मुलाक़ात तो अभी-अभी ‘उत्तर प्रदेश’ पत्रिका में छपी तुम्हारी डायरी पढ़कर हुई—एक किशोर सफ़र में। मैं स्तब्ध हूँ और मुग्ध! ऐसा लगा जैसे यह डायरी ख़ुद मेरे ही एकांत का आख्यान है। एक बहुत ही निजी, मासूम और पवित्र भाषा के लिए बधाई! काफ़ी दिनों बाद इतना निजी और अल्हड़ गद्य पढ़ा। सोचने लगा कि बहुत सारी समझदारी ने कहीं हमारी भाषा को ज़रूरत से ज़्यादा सार्वजनिक तो नहीं कर दिया… पता नहीं! तुम अपने बारे में लिखना। मैं आजकल दिल्ली में हूँ—‘अमर उजाला’ में। तुम्हारे पास शायद रुद्रपुर या बरेली का पता हो।
शुभकामनाओं सहित।
तुम्हारा
शशि
[दो]
17 जनवरी 2004
प्रिय भाई मनोज,
प्रेम!
तुम्हारा बहुत ही प्यारा कार्ड मिला। कई बार पढ़ा। जियरा जुड़ा गया। कार्ड ऐसे समय मिला जब सचमुच मुझे इसकी ज़रूरत थी। असल में तब भावनात्मक रूप से मैं कुछ परेशान चल रहा था। ठीक एक जनवरी को ‘अमर उजाला’ की नौकरी भी छोड़ चुका हूँ। नया साल कुछ दिक़्क़तें लाया, मगर तुम्हारे कार्ड ने बहुत सहारा दिया। उम्मीद है कि जल्द ‘सहारा’ या ‘हिंदुस्तान’ join करूँगा। ‘अमर उजाला’ में तो मेरे ख़िलाफ़ बहुत ही गंदा षड्यंत्र रचा गया, मगर उम्मीद बाक़ी है। वीरेन डंगवाल के शब्दों में कहूँ तो ‘‘आएँगे उजले दिन ज़रूर आएँगे…’’ बाक़ी सब ठीक है। नए साल में और अच्छा लिखो, इस कामना के साथ चाहता हूँ कि तुम्हारी झोली हर तरह की ख़ुशियों से भरी रहे और हमेशा तुम इतने ही मासूम बने रहो।
तुम्हारा
शशि
[तीन]
30 जुलाई 2005
प्रिय भाई
नमस्कार!
तुम्हारा पत्र मिला, सुख मिला। तुम लोग लखनऊ आ गए, यह बहुत अच्छी बात है। पता पढ़कर लगा कि यह तो वही मकान है, जिसमें पहले अखिलेश जी रहते थे। उनका बहुत स्नेह रहा है मुझ पर। ‘वागर्थ’ में उन्होंने जो कुछ लिखा, वह सब उसी के चलते था। यह ठीक है कि मेरा अब तक का जीवन बार-बार असफल होते जाने और फिर कुंठाओं के बीच ख़ुद को सज़ा देते जाने का ही क़िस्सा है। मगर यह सब अकेले मेरे साथ ही तो नहीं होता। कितने मुझसे ज़्यादा ख़राब स्थिति में हैं। ख़ैर… यह अच्छा है कि तुम्हारा परिवार तुम्हारे साथ है। मैं इस मोर्चे पर भी नकारा ही साबित हुआ। सफलता एक निरर्थक शब्द है दोस्त। इसका खोखलापन भी मैंने बहुत नज़दीक़ से देखा है। इसलिए किसी ग्लैमर का कोई मतलब नहीं है। कम से कम मेरी अब तक की सारी जद्दो-जहद रोने के लिए एक ईमानदार कंधे की तलाश भर रही। शायद हम सबकी तलाश यही है, बाक़ी सारी हड़बोंग उसे भूलने की एक कोशिश। ख़ैर… अपने बारे में लिखना। अखिलेश जी को मेरा प्रणाम कहना। 13-14 अगस्त को दूरदर्शन के एक कार्यक्रम के लिए लखनऊ आना है। तब मुलाक़ात होगी।
तुम्हारा
शशि
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शशिभूषण द्विवेदी (26 जुलाई 1975—7 मई 2020) असमय दिवंगत हिंदी के चर्चित और सम्मानित कहानीकार हैं। उनके दो कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए—‘ब्रह्महत्या और अन्य कहानियाँ’ और ‘कहीं कुछ नहीं’। मनोज कुमार पांडेय (जन्म : 1977) मशहूर और महत्त्वपूर्ण कहानीकार हैं। उनकी अब तक चार कथा-कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी नवीनतम कहानी ‘हिन्दवी’ पर हाल ही में प्रकाशित हुई है : उसी के पास जाओ जिसके कुत्ते हैं