निराशा जब आती है

एक

भागने से थकान होती है। पेड़ नहीं भागते। अपनी जगह पर खड़े रहते हैं। वे न हत्या करने जाते हैं और न अपने हत्यारों से भाग पाते हैं। मैं किसी पेड़ को नहीं जानता। तय है कि कोई पेड़ भी मुझे नहीं जानता। वे निहत्थे खड़े हैं। उनकी बेबसी अलग है। फिर लगता है कि शौर्य कई बार उन स्थितियों में भी जन्म लेता है जिनमें भाग्य हमें ला पटकता है। आकाश के पास, अब याद करने से याद आता है कि कोई बंदूक़ नहीं। उस पूरे स्टेशन पर किसी के पास नहीं। प्लेटफ़ॉर्म के आख़िर में जहाँ सीढ़ियाँ शुरू होती हैं, माँ खड़ी है। धार-धार आँसू उसकी आँखों से गिर रहे हैं। उसने वही कपड़े कैसे पहने हैं जो पहनकर वह कैंसर अस्पताल में बहन के पास जाया करती थी।

मैं चाहता हूँ दृश्य बदल जाए। अभिनेता अभी भी रो रहा है।

कहीं और एक सफ़ेद गोल मेज़ पर कविताओं की किताबें धरी हैं। विल्फ़्रेड ओवेन, सिग्फ़्रीड ससून, रूपर्ट ब्रुक—सारी किताबों पर भूरी जिल्द और उनकी नीली रीढ़ है। इन सबके बीच नृत्य करती हुई-सी फ़रीद ख़ान की एक कविता जिसमें कुत्ते का एक बच्चा सूरज को मुँह में दबा समंदर में उछाल देता है। यह मेरा कमरा नहीं है। यह वह कमरा है जो बंदरगाह से बहुत दूर है। जिनको स्टेशन पर छोड़ आया हूँ, वे सब लोग इस दुनिया का हिस्सा नहीं हैं।

एक ट्यूबलाइट जल रही है। तेज़ रौशनी। ठंडक। भयहीनता। मुझे इस सपने में छिप जाना चाहिए। यहाँ जाते हुए लोगों के प्रति उदासीन सरकारें नहीं हैं, यहाँ युद्ध की आकांक्षा में जीते दैत्य नहीं। यहाँ हवा है बहुतायत में और साँस खींचते हुए फेफड़े में कुछ फँसता नहीं। यहीं उसी गोल मेज़ पर सिगरेट धरी है। लेकिन मुझे उस ब्रांड की तलब नहीं। जो व्यक्ति मेरे साथ उस कमरे में है, उससे कहता हूँ। चूँकि यह अस्पताल नहीं और यह कमरा बिना मजबूरियों के बना है, वह व्यक्ति तुरंत मेरी बात सुनता है। वह ताखे पर से कूट का एक डब्बा उतारता है। मेज़ पर धरी कविताओं के बरअक्स रख देता है। धीमे से खोलता है। उस डिब्बे में भूरे पत्ते में लपेटा वह तंबाकू रखा है जिसको पीना चाहता हूँ। एक सिगरेट उठा उसको सूँघना चाहता हूँ। तय है कि अभी सपनों में भी सिर्फ़ मृत्यु-गंध तारी है। कलेजा इससे ज़्यादा नहीं ऐंठ सकता। गर्म-गर्म आँसू गिरते हैं जो देह पर गहरे निशान बनाते हैं। दृश्य फिर बदलता है।

दो

मैंने एक नई साइकिल ली है। मैं रोज़ उसे चलाना चाहता हूँ। जिस शाम मैं उसे लेकर निकलता हूँ, पाता हूँ, उसमें हवा नहीं है। इंद्रनिल बसाक, मेरा सबसे पुराना दोस्त मुझे एक पंक्चर बनाने वाले के पास ले जाता है। यह दुकान एक हनुमान मंदिर के पास है। वहाँ हनुमान को इसीलिए स्थापित किया गया है, क्योंकि वहाँ सड़क दुर्घटनाएँ आम हैं। एक बार मैं, विनीत और रोज़र वहाँ मोटरसाइकल से गिर पड़े थे। मेरे गाल पर एक गहरा निशान महीनों रह गया था। रोज़र का एक और ऐक्सिडेंट वहाँ हुआ था। एक बार आसिया का। बहुत पहले एक बार और मेरा भी और तब भी फेफड़े पर भयानक चोट लगी थी और पैर में बारह टाँके।

कौन फिर मुझे इसी सड़क पर लेकर क्यों आया है? मैं सड़क पर बहुत ज़्यादा नहीं निकलता कोई वाहन लिए। फिर इन घावों की स्मृति? साइकिल जिस भी सड़क चलती है, वापस उसी स्टेशन पर पहुँच जाती है जहाँ आकाश खड़ा अपने सहयात्री की चिंता करता हुआ उसको बच्चा बताता है। मैंने नीली पोशाक पहनी है। उसने दूसरी, गहरे हरे रंग की। कई जाने-पहचाने चेहरे हैं जिनसे दुआ-सलाम होती है, जिनसे नहीं भी होती। कोई उस गाड़ी में सवार नहीं होना चाहता, जिसका सब इंतिज़ार करते हैं।

निराशा जब आती है तो सबसे पहले सिर का एक हिस्सा भारी होता है, फिर गर्दन, फिर साँस आपसे छूट जाती है। जितनी बार साँस खींचो उतनी बार घुटनों में कोई भूत जागता है। मनुष्यता को नींद से उठकर भी थकान से भरे रहना है। अनिश्चितता पिछले पाँच सौ सालों का कुल जमा है। एक लूप चलता है जो निष्कर्ष तक पहुँचने नहीं देता। मैं क्या करूँ?