बोंगा हाथी की रचना और कालिपद कुम्भकार
यदि कालिपद कुम्भकार को किसी जादू के ज़ोर से आई.आई.टी. कानपुर में पढ़ाने का मौक़ा मिला होता तो बहुत सम्भव है कि आज हमारे देश में कुम्हारों के काम को, एक नई दिशा मिल गई होती। हो सकता है कि घर-घर में फिर से मिट्टी के पात्र इस्तेमाल में आ जाते। या कि हम दुनिया के सबसे बड़े टेराकोटा एक्सपोर्टर होते, कुछ भी सम्भव हो सकता था यदि कालिपद कुम्भकार जैसे खाँटी दिमाग़ को एक ज़्यादा बड़ी दुनिया, ज़्यादा बड़ी ज़िम्मेदारी से दो- चार होने का मौक़ा मिलता।
अब यह अटकलबाज़ी तो है ही कि ऐसा हुआ होता तो उसका परिणाम वैसा होता। लेकिन हमारे पास सिवाय ऐसा करने के उपाय ही क्या है?
हमारी शिक्षा व्यवस्था में रातों-रात कोई आमूल-चूल परिवर्तन आ जाए कि जिससे सचमुच में गाँवों में बदलते समय और स्थितियों से जूझ रहे और नित नई राह खोज रहे हमारे हुनरमंद, जुझारू दिमाग़ को देश के नामी- गिरामी राष्ट्रीय संस्थानों में जौहर दिखाने का मौक़ा मिले, इसकी तो दूर-दूर तक कोई सम्भावना दीखती नहीं है।
जब गणित जैसा महाविज्ञान ‘शून्य’ और ‘अनंत’ जैसी अवधारणाओं यानी ‘मान ली गई’ (सपोज़्ड) सत्ताओं के सहारे ही अपना महल खड़ा करता है तो फिर हमने क्या बिगाड़ा है? हम भी अपना ख़याली पुलाव क्यों न पकाएँ कि यदि मणिमाला चित्रकार फ़ाइन आर्ट्स फ़ैकल्टी, वडोदरा में पढ़ाती तो आधुनिक भारतीय चित्रकला का परिदृश्य क्या कुछ अलग होता? या जैसा कि मैंने ऊपर प्रस्तावित किया—क्या होता यदि कालिपद कुम्भकार अथवा सहदेव राणा को आई.आई.टी. कानपुर में पढ़ाने, कुछ करने का मौक़ा मिलता?
पश्चिम बंगाल के बाँकुरा ज़िले के छोटे से गाँव—बाँकी संदरा के श्री कालिपद कुम्भकार से मेरी पहली भेंट 1993 में मिट्टी के पारम्परिक काम पर आयोजित ‘पड़ाव’ नामक एक राष्ट्रीय शिविर (इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय भोपाल के तत्कालीन निर्देशक श्री विकास भट्ट द्वारा आयोजित) में हुई थी। उस शिविर में देश भर से पारम्परिक कुम्हार अपनी मिट्टी, चाक आदि साजो-सामान लेकर आए थे।
हमारे यहाँ कुम्हार के पारम्परिक चाक (व्हील) में आमतौर पर बीच में एक छोटा गोल लकड़ी का पटा होता है, जिससे चार बाँस जुड़े रहते हैं। इन बाँसों के बाहरी छोर से परिधि बनाता एक बाहरी घेरा होता है जो बाँस, लोहे के तार, रस्सी आदि पर मिट्टी थाप कर बनता है। इस वज़नी और बड़े घेरे के कारण ही कुम्हार का चाक एक बार घुमाने पर काफ़ी देर तक घूमता रहता है। लेकिन इस भारी- भरकम और कच्चे चाक को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना लगभग असंभव है। इसलिए सारे कुम्हार बाहर से बुलाए जाने पर सिर्फ़ बीच का ढाँचा लेकर जाते थे और बाहरी घेरा हर बार नए सिरे से बनाते थे। लौटते समय इस घेरे को फिर तोड़ना होता था।
कालिपद कुम्भकार इस शिविर से लौट कर जब घर गए तो उन्होंने इस समस्या पर मनन किया। लम्बे समय तक मनन किया और वह उपाय खोज निकाला कि सुनकर आप भी दंग रह जाएँगे। दर्ज़ी के पास जा कर उन्होंने मज़बूत कपड़े की एक टायर-ट्यूब जैसी थैली सिलवाई।
अगली बार जब वह भोपाल आए तो चाक तैयार करने के लिए बाँस-मिट्टी की जगह उन्होंने एक बोरी रेत की माँग की। तब, किसी जादूग़र की तरह उन्होंने अपने झोले में से कपड़े की वह गोल, ट्यूब-नूमा थैली निकाली, उसमें रेत भरी, उसे बाहर के घेरे के ढाँचे पर जमा कर रस्सी से बाँध दिया! पाँच मिनिटों में चाक काम के लिए तैयार था।
शिविर के समाप्त होने पर थैली में से रेत ख़ाली की, फिर मोड़ कर उसे अपने झोले में रख लिया और अब चाक इतना हल्का था कि उसे उनका आठवीं दर्जे में पढ़ता, उनके साथ आया पोता आराम से उठा सकता था! इसे कहते हैं समस्या का हल निकालना। इसे कहते हैं रीझ-बूझ भरा, खाँटी देसी, खोजी दिमाग़। चलताऊ भाषा में इसे कभी कभी जुगाड़ू दिमाग़ कह दिया जाता है।
इसी प्रकार कालिपद जी ने अपने गाँव में बदलती हुई परिस्थिति में मिट्टी की वस्तुओं को पुआन (आवे) में पकाने की विधि में नायाब परिवर्तन किया था जिससे गाँव के कुम्हारों के ईंधन के ख़र्च में बहुत कमी आई। कालिपद जी के बाप-दादा पीढ़ियों से मिट्टी का सामान पकाने के लिए कोयले का इस्तेमाल करते आए थे, लेकिन कालिपद जी के समय में कोयला इतना मँहगा हो गया कि कुम्हारों की पहुँच से बाहर होने लगा। कालिपद जी ने मुँह बाए खड़ी समस्या पर मनन किया। उन्होंने पाया कि गाँव में अब, जगह- जगह आरा मशीन लगने से बुरादा सस्ता और आसानी से उपलब्ध था। अब ज़रूरत थी कोयले को छोड़, इस बुरादे से पुआन पकाने की। लेकिन इसके पहले, बहुत दिमाग़ लगा कर पुआन के पारम्परिक ढाँचे में कुछ मूलभूत फेर-बदल करने ज़रूरी थे। पिछला पुआन कोयले के ईंधन के रूप में उपयोग के लिए बना था। बुरादा सस्ता था और आँच भी तेज़ देता था, लेकिन पलक झपकते जल जाता था; यानी इसे बार- बार झोंकने का उपाय खोजना था।
बाँकी संदरा गाँव के कुम्हारों का पुआन दो खंडों वाला होता है जिसमें ईंधन के जलने और मिट्टी की वस्तुओं को रखने के खंड अलग-अलग होते हैं। कालिपद जी ने आवे के निचले खंड के मुहाने तक एक चौड़ी सी नाली खोदी जिसमें बैठ कर कुम्हार बुरादा झौंकता रह सकता है। पुआन के ऊपर छाजन भी बनाया ताकि धूप से भी बचाव हो सके। इस उपाय से काम और मज़बूत पकने लगा और समय और पैसे की भी बचत हुई।
बाद में आस-पास के गाँवों में इस नई संरचना का और भी नायाब उपयोग हुआ जो बेहद ग़ौरतलब है। हुआ यह कि तेज़ रफ़्तार ‘टिम्बर वुड’ उगाने की ग़रज़ से पूरे इलाक़े में ख़ूब यूकेलिप्टस के पेड़ लगाए गए। इतने कि गाँव की गालियाँ इनकी पत्तियों से पट गईं। यूकेलिप्टस की पत्तियों में तेल होता है, ये आसानी से सड़ती-गलती नहीं हैं। कुम्हारों ने पाया कि तेल के कारण इन पत्तियों की ज्वलनशीलता और पैदा होने वाली आँच दूसरी पत्तियों से कई गुना अधिक होती है और वे इसका बतौर ईंधन आवे में इस्तेमाल कर सकते थे। इन्हें आवे में झोंकने के लिए जो ज़रूरी बदलाव चाहिए था, वह तो इलाक़े में पहले से मौजूद था! पचमुरा गाँव के कुम्हार आज यूकेलिप्टस की पत्तियों से ही अपनी बनाई मिट्टी की वस्तुएँ पकाते हैं। उन्होंने एक लम्बे बाँस पर एक लोहे की बुहारी( झाड़ू–सी) बाँध ली है जिससे वे आवे के मुहाने तक जाने वाली नाली में इकट्ठा कर रखी गई पत्तियों के ढेर को धीरे-धीरे अंदर डालते रहते हैं। एक व्यक्ति की रीझ-बूझ कैसे पूरे इलाक़े की समझ को बदलती है, और सामुदायिक बन जाती है,यह घटना इसका अद्यतन उदाहरण है।
यह तो थी कालिपद कुम्भकार के तकनीक को विकसित करने के सिलसिले में उनके खोजी, वैज्ञानिक दिमाग़ की एक बानगी। अब ज़रा एक नज़र उनके द्वारा बनाए जाने वाले माटी के विविध रूपकारों पर डालें।
आज से लगभग पैंतीस बरस पूर्व कुछ संथाली युवक अट्ठारह किलोमीटर का रास्ता पैदल चल कर कालिपद कुम्भकार के पास आए थे। वे अपने बोंगा देव को प्रसन्न करने के लिए उन्हें हाथी चढ़ाना चाहते थे। उनके गाँव में किसी ने उन्हें कालिपद जी के बनाए हाथी-घोड़े आदि के बारे में बताया था और इसीलिए वे इतनी दूर चल कर ख़ासतौर पर कालिपद जी के पास आए थे। कालिपद जी ने उन्हें तीन-चार अलग-अलग तरह के हाथी जो वह बनाते थे दिखाए—ये मनसा हाथी, ये लक्खी हाथी (लक्ष्मी को चढ़नेवाला) ये बीयेर हाथी (ब्याह में रखा जाने वाला हाथी)। लेकिन संथाली युवक कुछ और ही चाहते थे; जिस तरह लक्ष्मी को चढ़नेवाला ख़ास हाथी है, वैसे ही बोंगा देव के लिए भी वे ख़ास—‘बोंगा हाथी’ चाहते थे। ऐसा कि जैसा आज से पहले कभी किसी ने न देखा हो। ऐसा कि जिसे सवारी के रूप में पा कर बोंगा देव प्रसन्न हो जाएँ।
कालिपद जी ने उन संथाल युवकों से पूछा, “बोंगा देव दिखते कैसे हैं? कहाँ वास करते है? क्या करते हैं?’’
वे बोले, “बोंगा देव का चेहरा तो आज तक किसी ने नहीं देखा है। लेकिन जब जंगल में आग लगती है तो बड़े-बुज़ुर्ग कहते हैं की बोंगा की सवारी जा रही है। और जहाँ तक करने की बात है, तो वो सबसे बड़े देवता हैं हमारे, सब कुछ कर सकते हैं।”
संथाली युवक फिर बोले, “हमें जल्दी नहीं है। हम आज से एक महीने बाद आपके पास फिर आएँगे, तब तक आप बोंगा हाथी तैयार कर लीजिएगा।”
इतना कह कर वे संथाली नवयुवक चले गए।
पर उस एक माह में कालिपद जी ने बताया था कि उनकी तो जैसे रातों की नींद ही उड़ गई थी। उन्हें इस बात का पूरा अंदाज़ा था कि संथाली युवकों ने उन पर कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपी थी। उन्हें ऐसा हाथी बनाना था, जिसे पा कर बोंगा देव प्रसन्न हो जाएँ। बोंगा देव प्रसन्न हो गए तो गाँव को खेती में लगातार हो रहे नुक़सान से निजात मिल पाएगी। गाँव भर का रोग-शोक भागेगा।
कालिपद जी ने मन ही मन बोंगा देव का आह्वान किया। उनके ज़हन में यह बात आई, कि यदि बोंगा देव का मुख आज तक किसी ने नहीं देखा तो फिर उनके हाथी का भी मुख नहीं हो सकता।
मिट्टी तैयार कर वे काम में जुट गए। हाथी का धड़, पैर आदि तो बनाए लेकिन, अलग से सिर नहीं बनाया। पर बिना झूले जैसी सूँड और सूप जैसे कान के तो हाथी की कल्पना हो ही नहीं सकती है। लिहाज़ा कालिपद जी के इस हाथी का शरीर ही नीचे को झुकते-झुकते सूँड में तब्दील हो गया। और तब सूँड पर ही तिरछी, छोटी-छोटी आँखें उभर आईं।
जब इस सूँड के दोनों ओर पंखनुमा कान और पीछे हवा में लहराती छोटी-सी पूँछ लगी, तो न जाने क्यों, हाथी की उस आकृति में जंगल की आग और बोंगा देव की रवानगी समा गई!
ठीक एक महीने बाद, वे संथाल युवक फिर से कालिपद जी के घर पहुँचे। कालिपद जी ने बताया था कि तैयार किए गए ‘बोंगा’ हाथी को देख वे लोग इतने ख़ुश हुए, कि जितने की बात हुई थी उससे दुगुना धान आदि दे कर गए।
इसी ‘बोंगा हाथी’ पर कालिपद जी को पश्चिम बंगाल सरकार का राज्य पुरस्कार और 1989 में राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त हुआ। फिर तो कालिपद जी ने हर साल एक से एक नए रूपाकार गढ़े और शायद वे अकेले ऐसे कलाकार होंगे जिनको लगातार अलग-अलग कृतियों पर बारह बार प्रथम राज्य पुरस्कार प्राप्त हुआ।
एक बार वह राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल में मेरे द्वारा क्यूरेटेड मुक्ताकाश प्रदर्शनी ‘मिथक वीथी’ में सर्प देवी मनसा के स्थान के लिए मनसा चाली(घर), मनसा घट, आदि तैयार कर रहे थे। उन्हें काम करते हुए तीन हफ़्तों से ऊपर हो गया था और वह हर रोज़ एक अलग क़िस्म का मनसा घट बनाते जा रहे थे।
मुझसे नहीं रहा गया, और मैं उनसे पूछ बैठी, “कालिपद जी, आपको कितनी प्रकार के मनसा घट बनाने आते हैं?”
उन्होंने मेरी चिंता को ताड़ कर हँसते हुए जवाब दिया, “दीदी, निर्देशक बाबू से कहिए; मुझे जीवन भर के लिए यहीं रख लें। मैं हर दिन अलग क़िस्म का मनसा घट तैयार करूँगा, एक भी घट दुबारा नहीं बनेगा!!”
ऐसा निर्भीक, आत्मविश्वास से भरा हुआ जवाब कदाचित एक परम्परा में पगा हुआ, लेकिन उसके दायरों से मुक्त दिमाग़ ही दे सकता था। उनके जैसी प्रतिभा, सृजनशीलता बिरले देखने मिलती है। यह वह सर्जनात्मकता है, जो किसी भी मृतप्रायः परम्परा को पुनर्जीवित करने का माद्दा रखती है।
कालिपद जी कोई आठ बरस के थे, जब उन्होंने अपने पिता के साथ मिट्टी में काम करना शुरू किया था। उनसे छोटे दो भाइयों ने बी.ए. तक पढ़ाई की और अध्यापक बन गए। कालिपद जी और उनकी पत्नी शेफाली कुम्भकार को इस बात का कोई दुःख नहीं है कि उन्हें सारा जीवन मिट्टी में खटना पड़ा। उन दोनों को ही मिट्टी का काम पसंद है। शेफाली कुम्भकार को चाय की केतली बनाना बहुत अच्छा लगता था और वह उसे हाथ से ही, बिना चाक के इस्तेमाल के बनाती थीं। यह भी एक नवाचार था, क्योंकि पारम्परिक रूप से कुम्हार हमारे यहाँ केतली नहीं बनाते। लेकिन बाँकुरा के टेराकोटा मंदिर देखने आने वाले टूरिस्टों के बीच शेफाली जी की केतलियों की ख़ूब माँग रहती थी। इनके बेटे सपन के मन में चाचाओं के परिवार को देख कर, ज़रूर यह बात आती कि पिता भी पढ़े-लिखे होते, तो इन्हें भी मिट्टी में भारी मेहनत से निजात मिली रहती। लेकिन दूसरे ही पल उन्हें यह भी ख़याल आता है कि तमाम पुरस्कारों के चलते उनके पिता का इलाक़े में जैसा नाम और सम्मान है वैसा तो और किसी का नहीं है।
जब हम (माँ, पिता, बहन और मित्र-सहकर्मी, श्री दुलाल मन्ना, जो मिदनापुर के हैं, के साथ की गई एक पारिवारिक यात्रा थी) 1996 में पहली बार कालिपद जी के घर, बाँकी संदरा पहुँचे तो मैंने उन्हें चाक पर काम करते हुए पाया था। वह लक्खी हाँडी बनाने में जुटे हुए थे।
उन्होंने बताया था कि पूस संक्रांति के दिन नए धान की पूजा होती है। बाद में इस धान को लक्खी हाँडी में भर कर रख दिया जाता है। सावन महीने के किसी शुभ दिन, फिर इस हाँडी से धान निकाल कर, ढेकी में कूटा जाएगा और उससे पूरपीठा (पिसे चावल, नारियल, गुड़ और दूध से बना) बना कर लक्ष्मी की फिर से पूजा होगी।
हर वर्ष इस पूजा के लिए नई हाँडी ख़रीदी जाती है और कालिपद जी ने घर के बाहरी छप्पर से लटकती कई पुरानी लक्खी हाँडियाँ दिखाई जो अब कबूतरों और दूसरे पक्षियों का रैन-बसेरा थीं!
बाँकुरा के सभी कुम्हारों के यहाँ घर में घुसते ही सबसे पहले एक छोटा-सा, बिन खिड़कीवाला, अँधेरा कमरा रहता है जिसमें कुम्हार साल भर के लिए तमाम जोड़ वाली आकृतियों( घोड़ा, हाथी, मनसा घट, मनसा चाली आदि) को बनाने के लिए मिट्टी तैयार कर, उसे एक ऊँचे चबूतरे का रूप देकर जमा देते हैं। मिट्टी जितने दिन गीली रहते हुए पुरानी होगी, उसमें लोच उतना ही अधिक और दरार आने की सम्भावना उतनी ही कम होती जाती है। गीली होने के कारण उसमें जैविक क्रिया चलती रहती है और वही उसे काम के लिए बेहतर बनाती है। ज़रूरत के अनुसार कुम्हार इसमें से मिट्टी लेते रहते हैं और इस ढेर पर रोज़ पानी का हल्का छिड़काव करते रहते हैं। मिट्टी को पानी से गूँथ कर इस तरह लम्बे समय के रखने का यह तरीक़ा इतना कारगर है कि हैरत होती है कि यह बाक़ी जगहों पर क्यों नहीं मिलता?
इस पूरे इलाक़े में हर परिवार के अपने ही कई छोटे पोखर होते हैं और लगभग सभी के पोखर की मिट्टी काम करने के लिए बढ़िया होती है। गर्मियों में जब पानी सूख जाता है, तब कुम्हार मिट्टी खोद कर साल भर के लिए सम्भाल कर रख लेते हैं। इस यात्रा के दौरान ही देखा कि चाक के धारा (बाहरी घेरे) पर कपड़े की ट्यूब में रेत भर कर लगाने की कालिपद जी द्वारा खोजी गई तरकीब गाँव के कुम्हारों को इतनी पसंद आई थी कि कई घरों में हमें उसी का प्रयोग रोज़मर्रा में दिखा।
यहाँ चाक को ज़माने का तरीक़ा भी कुछ हट कर होता है। चाक का आल (धुरी) जिस काथ में बैठ कर घूमेगी उसे एक गड्ढे में रखा जाता है। ऐसा होने से काम करते समय छिटकने वाली मिट्टी गड्ढे में ही गिरती है, जिससे काम करने की पूरी जगह साफ़-सुथरी रहती है।
औज़ार के नाम पर चाक, चाक लोड़ी (घुमाने के लिए डंडा) तागा या सूत, क़ाबारी( बाँस का चाकू), ऊँचा (छोटा आधे बाँस का टुकड़ा जो सफ़ाई करने में मदद करता है) लाता( सूती कपड़ा), पीटन्या और बोलिया (गोल पत्थर या ऐन्विल) ही हैं। पीटन्या तीन प्रकार का—उथला, उभरा और चौकड़ी के डिज़ाइन के साथ होता है।
बनक या रंग
केनाल या नदी के पास चमकती गाद या उपरा मिट्टी को घर ला कर सुखा कर, कूट कर फिर हाँडी में घोल के रख दिया जाता है। तीन दिन बाद ऊपर के पतले घोल को दूसरी हाँडी में ले लेते हैं और नीचे बैठ गए कचरे को फेंक देते हैं। यही प्रक्रिया दो-तीन बार दोहराई जाती है। जो पतला घोल इस तरह मिलता है, वही बनक या रंग है। इसे पुआन या भाटा यानी आवे में रखने के लिए तैयार, सूखे हुए सामान पर धूप में कुछ गरम हो चुके पात्रों पर लाता यानी सूती कपड़े के टुकड़े की मदद से लगाया जाता है, ताकि यह फ़ौरन सूख जाए।
पकने पर यह चमकदार नारंगी-लाल रंग देता है। चमक कुछ नक़ली और ज़्यादा लगती है पर लोगों को अक्सर पसंद आती है। कालिपद जी के घर के पिछवाड़े में बनक की कई हाँडियाँ ढकी रखी थी। उन्होंने बताया कि ये जितने समय घुली रहें, इनका असर तेज़ होता जाता है। पुराने घोल की बहुत पतली-सी परत ही रंग और चमक लाने के लिए काफ़ी होती है। कुम्हार वैसे भी बनक ज़्यादा बना कर रखते हैं, क्योंकि कई बार नदी किनारे वह चमकीली उपरा मिट्टी मिलती ही नहीं है। उनके साथ एक दूसरे गाँव जाते समय नदी पार करते हुए मैंने उनसे उपरा मिट्टी दिखाने के लिए कहा, लेकिन बहुत ढूँढ़ने पर भी उस रोज़ वह हमें नहीं मिली।
पुआन या भाटा
पूरे बाँकुरा के इलाक़े में पुआन यानी आवा दो खंडों में विभक्त संरचना है, जिसमें कालिपद जी द्वारा किए गए ज़बरदस्त फेर-बदल का ज़िक्र में ऊपर कर चुकी हूँ। लगभग दो-ढाई फ़ीट चौड़ा और गहरा वृत्ताकार गड्ढा खोदा जाता है। अब इसमें मिट्टी, बारीक़ कटी पुआल और गोबर से कुछ अधूरी-सी दीवारें उठाते हैं जिन पर फिर आड़े और खड़े बाँस जमा कर जाली बना ली जाती है। इस जाली को भी चारों ओर से मिट्टी से थाप दिया जाता है। मिट्टी, पुआल और गोबर का कमाल देखिए कि पुआन के भीतर की इतनी आँच के बावजूद इस जाली में लगा बाँस नहीं जलता। अब इस जाली के ऊपर भी एक-डेढ़ फ़ीट की गोल दीवार उठा दी जाती है। नीचे के खंड में जहाँ ईंधन (बुरादा या यूकेलिप्टस की पत्तियाँ या लकड़ी) जलेगा, उससे जोड़ कर दो फ़ीट चौड़ी नाली बना दी जाती है। ऊपर के खंड में मिट्टी के गढ़े गए आकार इस तरह से जमाए जाएँगे कि सबसे बड़ी आकृतियाँ बीच में और छोटे पात्र किनारे की ओर आएँगे। किनारे की ओर चार पहले से पकी हुई हाँडियाँ जिनके पेंदे तोड़ दिए गए हैं, इस तरह जमा दी जाएँगी कि उन पर ढक्कन लगा कर बंद या हटा कर खोला जा सके। इनका काम भट्टी में अच्छी आँच बन जाने के बाद धुएँ को बाहर निकलने देने के लिए रास्ता मुहैया कराना है, ताकि किनारे की ओर लपट तेज़ी से घूमे और तापमान यहाँ तक पहुँच पाए (ऐसे गोल पुआन में सबसे तेज़ आँच बीच में रहती है और सबसे कम किनारे की ओर)।
जिस जगह पर पुआन बना रहता है, उस जगह चार मिट्टी के खम्भे उठा कर, उन पर छाजन भी डाला जाता है; यानी बाँकुरा के इलाक़े में कुम्हार का पुआन एक निश्चित अलग से लक्षित की जा सकने वाली संरचना है।
मिट्टी के काम से जुड़े कुछ निषेध
बाँकुरा के कुम्हार चैत मास के अट्ठाइसवें दिन से चाक पर काम बंद कर देते हैं। वे इस दिन चाक पर एक शिवलिंग बना कर छोड़ देते हैं। ज्येष्ठ मास के बीजड़ शनिवार को इस शिवलिंग की पूजा की जाएगी और फिर इसे विसर्जित कर दिया जाएगा। इसके बाद कुम्हार फिर से चाक पर काम आरम्भ करेंगे।
कालिपद जी और उनके बेटे सपन कुम्भकार ने हमें आस-पास के कुम्हारों से मिलवाया, और मिट्टी से जुड़ी तमाम बारीकियाँ साझा कीं। मनसा देवी के स्थान दिखाए। उनके घर में आँगन में बैठ कर जो खाना खाया था वह तो भूला नहीं जा सकता। स्वाद तो उसका अद्भुत था ही, लेकिन बड़ी-बड़ी मिट्टी की चमकदार लाल-काली हाँडियों से निकाल कर परोसे जा रहे भात, दाल, तरकारी को देखना भी एक विलक्षण अनुभव था।
बातों- बातों में घर पर लटके माँदल, झाँझ, हारमोनियम को देख पता चला कि मिट्टी के अलावा कालिपद जी का मन संकीर्तन में भी ख़ूब रमता है। उनकी अपनी कीर्तन मंडली थी जो रात-रात भर कीर्तन किया करती थी। स्वयं कालिपद जी हारमोनियम, माँदल और मूल गायन में पारंगत थे। अस्सी पार करने के बाद भी वे संक्रांति, होली आदि त्योहारों पर मंडली के साथ गाँव की गलियों में अवश्य निकलते थे।
सन् 2000 में छियासी बरस का भरा-पूरा और समृद्ध जीवन जी कर, कालिपद जी इस लोक को विदा कह गए। अपने अंतिम दिन तक मिट्टी में काम करते हुए वे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से सतत होड़ लेते रहे। उन्होंने अपनी परंपरा से जो कुछ भी लिया था, उसे कई गुना बढ़ा कर लौटा गए। वह उन विरल कलाकारों में से थे, जिन्होंने परंपरा की धारा को क्षीण नहीं होने दिया, जो उसमें ताउम्र नित नई चेतना, नई ऊर्जा उड़ेलते रहे।