स्मृतियों का प्रतिफल आँसू है

मैं अस्ल में अपने भीतर चौबीसों घंटे लड़ाई लड़ता हूँ और इसमें कोई ज़ख़्मी नहीं होता, कोई मेरे हाथों मारा नहीं जाता, सिर्फ़ मैं लहूलुहान होता हूँ। कभी राजनीति कविता पर हमला करती है, कभी कविता राजनीति पर। मैं दोनों का द्वंद्व-युद्ध रोकने के प्रयत्न में स्थायी तौर पर ज़ख़्मी होकर रह गया हूँ—ज़ख़्मी, मगर अपंग नहीं।

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जो मुझसे नहीं हुआ, वह मेरा संसार नहीं।

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मैं उन लोगों से घृणा करता हूँ जो उर्दू को सिर्फ़ एक मज़हब की भाषा मानते हैं। ऐसे लोग सिर्फ़ एक भाषा से घृणा नहीं करते, बल्कि इस देश से भी बैर करते हैं। सच्चाई यह है कि उर्दू नहीं रहेगी तो यह देश भी नहीं रहेगा, यह ताजमहल भी नहीं रहेगा। क्या आप ताजमहल को खोना चाहेंगे?

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हर व्यक्ति एक रहस्य है। वह स्वयं को समझ नहीं पाता। बहुत से लोग रास्ता दिखाते हैं। लेकिन कुछ लोगों को ही रास्ता दिखता है।

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मेरे मन पर मुक्तिबोध की आतंक-भरी छाप है, यंत्रणामय स्मृतियाँ हैं। मुक्तिबोध को याद करते हुए तकलीफ़ होती है।

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मैं एक चक्रव्यूह में फँस गया हूँ। निकलना चाहता हूँ, रास्ता नहीं मालूम, जिधर से निकलने की कोशिश करता हूँ, सिर दीवार से टकरा जाता है। शायद यहीं मारा जाऊँगा, इसी तरह इस चक्रव्यूह के भीतर, छटपटाता, चीख़ता, चिल्लाता, आर्त्तनाद करता हुआ अरण्यरोदन।

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मेरी पिछली ज़बान में चटखारापन था, नई ज़बान में मितव्ययिता और सादगी होनी चाहिए। मेरी पिछली कविताओं में भूगोल था। मेरी नई कविताओं में काल होना चाहिए और कालातीत भी। मगर यह इतिहास का काल या कालखंड नहीं। यह वह काल है जो इतिहास को जन्म देता है और लील लेता है।

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स्मृतियों का प्रतिफल आँसू है।

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मैंने अपनी कविता में लिखा है ‘मैं अब घर जाना चाहता हूँ’, लेकिन घर लौटना नामुकिन है; क्योंकि घर कहीं नहीं है।

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राहों का अन्वेषण करने के लिए भी किसी मशाल की ज़रूरत होती है। अंधकार के खंडहरों में भटककर चमगादड़ के पंखों की फड़फड़ाहट को ही जीवन का एकमात्र चिह्न मान लेना एक और बात है, पथ की खोज करना एक और बात है।

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कभी भी व्यक्तिगत दुखबोध की कविता एक अच्छी कविता का मानदंड नहीं हो सकती, वही कविता प्रामाणिक होगी जिसके सरोकार राष्ट्रीय दुखों से जुड़े होंगे।

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नष्ट होने की भावना भी प्रेम का एक अविभाज्य अंग है।

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प्रेम में सिर्फ़ चुम्बन और सहवास और सुख-शैया ही नहीं, सब कुछ है, नरक है, स्वर्ग है, दर्प है, घृणा है, क्रोध है, द्वेष है, आनंद है, लिप्सा है, कुत्सा है, उल्लास है, प्रतीक्षा है, कुंठा है, हत्या है।

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जब इंसान अपने दर्द को ढो सकने में असमर्थ हो जाता है तब उसे एक कवि की ज़रूरत होती है, जो उसके दर्द को ढोए अन्यथा वह व्यक्ति आत्महत्या कर लेगा।

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कविता लिखते हुए मेरे हाथ सचमुच काँप रहे थे। तब मैंने कहानियाँ भी लिखनी आरंभ कीं। यह सोचकर कि रचना से रचना का यह कंपन कुछ कम होगा।

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वैसे यह कहना एक मुहावरा हो गया है कि मेरी ज़िंदगी मेरी किताबों के पन्नों में बिखरी पड़ी है। लेकिन मैं अपने विषय में इस बात को बिल्कुल ही चरितार्थ मानता हूँ। मेरी कहानियों का नायक या अनायक वस्तुतः मैं हूँ।

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प्रेम अकेले होने का एक ढंग है।

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मैं एक कवि के रूप में प्रकट हुआ, एक कवि के रूप में मरूँगा।

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साहित्य में कोई पक्ष-विपक्ष नहीं होता। पक्षधरता राजनीति का स्वभाव है।

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दरअस्ल, अस्मिता का प्रश्न अतीत के प्रश्न से जुड़ा हुआ है। कोई भी रचनाकार अपनी अस्मिता की तलाश अपनी परंपरा के बाहर जाकर नहीं कर सकता।

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लेखक को यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछ प्रश्न सार्वभौमिक होते हैं, कुछ निजी और कुछ राष्ट्रीय। वह किसी भी प्रश्न से कतरा नहीं सकता। जब तक प्रश्न है, तभी तक साहित्य है।

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मैं बसंत की तलाश में हूँ। मेरी रचनाओं में बसंत कभी नहीं आया… अगर मैं चाहूँ भी तो यह कह सकता हूँ, यही इस युग का सत्य है। लेकिन मैंने युग-सत्य की तलाश का दावा कभी नहीं किया। इसलिए सिर्फ़ इतना ही कहूँगा कि मैंने जो और जैसा जीवन जिया—उसका यही सत्य था।

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कभी निराला की पंक्ति की याद आती है—‘‘दुख ही जीवन की कथा रही / क्या कहूँ आज जो नही कही।’’ तो कभी मुक्तिबोध की—‘‘पिस गया वह भीतरी / औ’ बाहरी दो कठिन पाटों के बीच, / ऐसी ट्रेजिडी है नीच!!’’ नहीं जानता यह डायरी जारी रहेगी या यह इसका अंतिम पन्ना होगा, मगर इतना अवश्य कहूँगा, मैं जीना चाहता हूँ।

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श्रीकांत वर्मा (1931–1986) समादृत कवि-लेखक और विचारक हैं। उनके यहाँ प्रस्तुत उद्धरण (पुस्तक : श्रीकांत वर्मा, लेखक : अरविंद त्रिपाठी, प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, प्रथम संस्करण : 1998) से चुने गए गए हैं। श्रीकांत वर्मा की कविताएँ यहाँ पढ़ें : श्रीकांत वर्मा का रचना-संसार