नए साल के नए संकल्प
वह तीसरी स्थिति थी जब एक कवि से उसकी प्रेयसी ने एक नएपन की माँग की तो उसने कह दिया कि इन दिनों उसकी दाढ़ी के तीन बाल सफ़ेद हुए हैं। नएपन की पहली दो स्थितियों से वह साल-दर-साल गुज़रा करता। एक अवसर होता नए साल की पूर्वसंध्या का जब यों तो इस संध्या से उस सहर को जाता रोज़मर्रा का सपाट विराट ही बना रहता, लेकिन चूँकि एक साथ एक जगह कई लोग इकट्ठा हो पुराने के बीत जाने और नए के आग़ाज़ की आवाज़ लगाते, एक आदिम विवशता में उसे भी सींग सटाए खड़ा रहना पड़ता।
एलियट के पास इस अवसर पर कहने को एक अलग बात होती—‘‘पिछले वर्ष के शब्द पिछले वर्ष की भाषा के थे और नए वर्ष के शब्द नई अभिव्यक्ति की प्रतीक्षा में। प्रत्येक शब्द और वाक्य है एक अंत और एक आरंभ। इस दूसरी बात को और गझिन कर कहूँ तो एक अंत का अंत है—एक आरंभ के आरंभ में। ‘‘कविता है—मृतक की समाधि पर रोपा गया लेख।’’
शब्द पर आएँ तो शब्दों की शक्ति पर बहुत कुछ लिखा-पढ़ा गया है। पान और पनही की लोकोक्ति से लेकर बुद्ध के सम्यक ज्ञान तक। किसी ने जैसे सारी बातों को ‘कम्पाइल’ कर कह दिया हो कि शब्द बहलाते भी हैं, सहलाते भी, रुलाते भी हैं तो सावधान! नीत्शे ने इसी आशय में कह दिया होगा कि एक सादे काग़ज़ पर कुछ शब्द दर्ज कर वह पूरी दुनिया को पलट सकता है। आशय के दूसरे संदर्भ में इन दिनों ‘इंटरनेट-नल सोसाइटीज़’ में ‘लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन’ की लोकप्रियता कुछ बढ़ी है। तुम्हारे लिखे बोले गए शब्द आकर्षित कर सकते हैं—एक ‘घटित’ को।
पिछले वर्ष नव वर्ष की पूर्वसंध्या पर पता नहीं किस मनःस्थिति में मैंने याद किया सुजान सौन्टैग को और कह दिया उनके हवाले से कि इस वर्ष संकल्प नहीं, प्रार्थनाएँ—करुणा, कृपा, नवाज़िश।
कोरोना का प्रकोप बढ़ा भारत में तो कवि-पत्नी ने कहा, ”इसलिए कहती हूँ कि कविता में भी बोलो तो अच्छा बोलो। शब्दों में घुली हुई चाहना आकर्षित करती है—अच्छे और बुरे को।” मैं आकाश ताकने लगता हूँ। जैसे पृथ्वी का महाभाग मेरे शब्दों के अभाग पर निर्भर हो!
नएपन की दूसरी स्थिति प्रत्येक वर्ष उसके जन्मदिवस पर गुज़रा करती। यह कैसा नयापन था, जहाँ नया अंगा पहना हुआ वही आदमी पुराना हुआ जाता था!
नव वर्ष की एक प्रसिद्ध व्यंग्य-कथा में चार्ल्स लैम्ब ने पिछले वर्ष के देहावसान ही घोषणा कर दी है और नए साल ने आते ही एक बड़ी पार्टी का आयोजन किया है जिसमें साल के सारे दिन आमंत्रित हैं। उत्सवीय दिवसों की सूची तो बनाई गई है, उपवास दिवसों को लेकर एक दुविधा है। दिवसों में आपसी ईर्ष्या भी है जो उनके मानवीकरण के क़िस्से में भी उभर आई है। पार्टी चल रही है और हँसी-मज़ाक़ का दौर जारी है। धूप-दिवस वर्षा-दिवस की मदद करता है, उसके पुराने मोज़े सुखाने में, कि पे-डे भारी लेट-लतीफ़ है, कि डूम्स-डे ने तो हमेशा सबको नोटिस ही भेजनी है। चार क्वार्टर दिवस बहनें झगड़े ही मचाती हैं। ज़ाहिर है कि अप्रैल-फूल्स-डे को इंतज़ाम सौंपा गया है तो कुछ बेतरतीबी मची हुई है। 21 जून (सबसे लंबा दिन) को बिठाया गया है, 22 दिसम्बर (सबसे लंबी रात) की बग़ल में तो क्रिसमस-डे और एश-वेडनेस-डे की नोंक-झोंक बनी हुई है। सारे दिन अपनी-अपनी पसंद की चीज़ें खा रहे हैं और फिर एक झगड़ा शुरू हो गया है कि राजा की मृत्यु किस दिवस के हिस्से में आए। तय यह हुआ है कि राजा की मृत्यु उस दिन के हिस्से आए जिस दिन के हिस्से में अभी राजा है। पार्टी के अंत में दिन वापस चले जा रहे हैं, साथ चले जा रहे वैलेंटाइन-डे (प्रेम) और मई दिवस (श्रम) इश्क़ में डूबे हुए।
नए साल के साथ ही जुड़ा रहा है—नए साल का/के संकल्प। बेबिलोनियाई प्रत्येक वर्ष के आरंभ में फ़सल रोपते, अपना नया राजा चुनते या पुराने राजा के प्रति नई आस्था जताते और देवताओं के सामने संकल्प लेते कि नए वर्ष में वे प्रत्येक उधार ली गई चीज़ वापस कर देंगे—वे राजा को अपने सारे पुराने ऋण चुका देंगे।
रोम के जेनस देवता के दो मुख थे—एक मुख अतीत-वर्ष को सोचता हुआ, दूसरा मुख नव वर्ष को निहारता हुआ। रोमवासी उसके समक्ष पशुओं की बलि देते और शपथ लेते कि प्रभु हम नेक बने रहेंगे।
दर्ज इतिहास में अमेरिका में पहली बार सबसे अधिक लोगों ने नव वर्ष के संकल्प थर्टीज़ के ग्रेट डिप्रेसन के बाद लिए। एक बार फिर जब कोरोना महामारी ने आर्थिक-मानसिक-समय को कोरोना-पूर्व और कोरोना-पश्चात में बाँट रखने की तैयारी कर रखी हो तो शायद इन संकल्पों की तादाद इस वर्ष बढ़ जाए। नॉन-लग्ज़री संकल्पों की तादाद बढ़ेगी अलग। जीने की बुनियादी बातों से संबद्ध दुनिया की बड़ी आबादी के छोटे मासूम संकल्प, जैसे—करूँगा इंतज़ाम कि हाथ के लिए हमेशा बचा रहे काम, पेट के लिए बचा रहे अनाज, देह में बची रहे रोगों से लड़ लेने की शक्ति। कवि लेंगे संकल्प कि व्यय-रहित सुख के लिए ईश्वर बची रहें मेरे पास कविताएँ। यद्यपि जनवरी बीतते इनमें से अधिकांश लोग हार भी जाएँगे। चार हज़ार वर्षों में भी मानव को जिस एक अभ्यास की आदत नहीं पड़ी है, वह संकल्प निभाना ही तो है।
मुझे अनाइस नीन की यह बात अच्छी लगी थी कि आलोचक होना, अपने जीवन को नियंत्रित करना और उसे बदल देना एकदिवसीय तय-कारक कारोबार के लिहाज़ से कुछ अधिक की अपेक्षा है। मैं वर्ष-दर-वर्ष गुज़रता सोचता रहा हूँ कि इधर कुछ ‘मनुष्यतर लौटूँगा’, न हो मुझसे ‘एक तिनके का भी अहित’—इस वर्ष नएपन के संकल्प में रख लूँगा कवि-पत्नी-आग्रह कि कविता में भी अच्छा बोलो कि शब्दों में घुली हुई चाहना भी आकर्षित करती है—अच्छे और बुरे को। मैं शर्म रख लूँगा कि इतर-अपेक्षा के मानकों पर फिर आगे नहीं कहूँ कभी कि आज नहीं—कल समर्पित कर दूँगा हफ़्ते का मेरा सारा किया काम।